यह पोस्ट मैं अपने कुछ पुराने सहकर्मियों को ध्यान में रखते हुए लिख रहा हूँ। आज किसी कारणवश उनकी याद आ गयी। अब ऐसा भी नहीं है कि अब से पहले उनकी याद नहीं आई। सहकर्मी तो जीवन का हिस्सा हो जाते हैं; कुछ यादें सुखद होती हैं तो कुछ मन में रोष व क्रोध उत्पन्न करती हैं; लेकिन जो भी हो उनकी याद तो गाहे-बगाहे आती ही रहती है। ख़ैर, आज उनकी याद आने का कारण उनका व्यहवार-विशेष है। जब मैं उनके साथ काम करता था तो मैनें मन-ही-मन उनके लिये एक शब्द गढ़ा था "pseudo-intellectuals"। मैनें यह शब्द "गढ़ा" था, ऐसा कह कर मैं इस शब्द के सृजक होने का दावा नहीं कर रहा हूँ, लेकिन जब यह शब्द मेरे मन में आया था तो उससे पहले मैनें कभी भी इसे कहीं ना तो सुना था और ना पढ़ा था। परंतु मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि यह शब्द बहुत समय पहले से प्रयोग में रहा है। अर्थात इस शब्द की आवश्यकता भी बहुत समय से रही है।

बहरहाल, मेरे कुछ सहकर्मी ऐसे थे जिन्हें मैं "pseudo-intellectuals" की श्रेणी में रखता था। आप पहली मुलाकात में उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते थे। वे भाषा और ज्ञान के भंडार जान पड़ते थे। आप किसी भी विषय पर बात करें तो उस पर उनकी एक नपी-तुली राय होती थी (और बहुत संभव है आप पाएं कि अक्सर यह राय उसी विषय पर आपकी व्यक्तिगत राय से मुख्तलिफ़ है!) अपनी राय के पक्ष में वे बहुत-से तथ्य आपके सामने रखेंगे और दस-पाँच किताबों, लेखकों, फ़िल्मों, निर्देशको, अख़बारों और पत्रिकाओं के नाम बता कर उन तथ्यों को समर्थित भी कर देंगे। आप बुद्धु की तरह उनका मुँह देखने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएंगे। आपको लगेगा कि आपने तो अपने जीवन को व्यर्थ कर दिया; ज़रा-सा भी ज्ञान और बुद्धि अर्जित नहीं की। सामने बैठे व्यक्ति को देखिये कितनी ज्ञानपूर्ण बातें करता है। कैसा बढ़िया और परिष्कृत व्यक्ति है।

मुझे यह सब पता है क्योंकि मैनें यह सब अनुभव किया है। ऐसे कितने ही व्यक्तियों से मैं मिला हूँ, बातें की हैं और उनके साथ काम किया है। आरम्भ में मैं ऐसे व्यक्तियों से बेहद प्रभावित भी हुआ हूँ। प्रभावित तो कुछ इस हद तक हुआ कि कई बार तो खु़द को उन जैसा बना लेने के योजनाबद्ध प्रयास भी आरम्भ कर दिये। परंतु बीतते समय के साथ जैसे पहाड़ों पर गिरी बर्फ़ पिघलती है और पथरीले पहाड़ उजागर होने लगते हैं; ठीक उसी तरह समय के साथ इन "बुद्धिजीवियों" का सत्य भी सामने आने लगता है। पहली कुछ मुलाकातें गहरा प्रभाव छोड़ती हैं; लेकिन अगर आपको इनसे और मुलाकातें/बातें करने का अवसर मिले तो यह प्रभाव काफ़ूर होने लगता है। ऐसा क्यो भला?

इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिये सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि आखिर बुद्धिजीविता क्या है? (कृपया मुझे बताइयेगा कि क्या "बुद्धिजीविता" हिन्दी का एक सही शब्द है? मुझे नहीं पता; मैनें तो बस अंग्रेज़ी के शब्द intellectualism का अनुवाद करने की कोशिश की है)... ख़ैर, मेरे विचार में बुद्धिजीवी होने की परिभाषा सीधी-सादी है -बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जिसके विचार समाज को प्रभावित करते हों। इन विचारों का प्रकटन वह व्यक्ति लेखन, भाषण, फ़िल्मों, चित्रकला, नर्तन इत्यादि किसी भी विधा के ज़रिये कर सकता है। ये ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें विश्लेषण, चिंतन और रचनात्मक आलोचना करने की क्षमता होती है। ये व्यक्ति बौद्धिक ज्ञान का सृजन करते हैं और पहले से उपलब्ध ज्ञान को अपने चिंतन की कसौटी पर परख कर उसे संवारते भी हैं।

एक समय का ज्ञान और सच यह था कि सूर्य धरती के चारों ओर घूमता है। यह बात उस समय के स्कूलों में पढ़ाई जाती रही होगी
एक ज़रूरी बात यह भी है कि वास्तविक बुद्धिजीवी वह लोग होते हैं जो स्वयं को बुद्धिजीवी नहीं मानते। क्योंकि बुद्धिजीविता को जिस तरह हमारे समाज में एक मजदूर की कमर-तोड़ मेहनत के बनिस्बत अधिक सम्मान हांसिल है -उससे स्वयं के बुद्धिजीवी होने का अहसास व्यक्ति को अंहकार की ओर ले कर जा सकता है। कोई भी वास्तविक बुद्धिजीवी इस बात को जानता है कि अहंकार विनाश का मार्ग होता है। वह यह भी जानता है कि किसी भी बात का अंहकार कितनी निर्मूल और खोखली भावना है। जो बुद्धिजीवी है वह जानता है कि वह, उसका ज्ञान और उसका समय प्रकृति के अति-विशाल चक्र में एक बेहद नगण्य कड़ी के अलावा और कुछ भी नहीं है। वह अपने ज्ञान का अहंकार इसलिये भी नहीं करता क्योंकि उसने इसी ज्ञानार्जन प्रक्रिया में यह सीखा हुआ होता है कि कोई भी ज्ञान हमेशा के लिये सच नहीं रहता। आने वाला समय और पीढ़ियाँ जब उस ज्ञान को अपनी नई समझ और बेहतर संसाधनों के ज़रिये परखती हैं तो बहुत बार ऐसा होता है कि पहले से स्थापित बहुत से तथ्य ग़लत साबित हो जाते हैं। एक समय का ज्ञान और सच यह था कि सूर्य धरती के चारों ओर घूमता है। यह बात उस समय के स्कूलों में पढ़ाई जाती रही होगी और बड़े-बड़े विद्वान इस बात को अपने तर्कों के ज़रिये साबित करके उस समय के बुद्धिजीवी होने का ख़िताब हांसिल करते रहे होंगे। लेकिन बाद में यह बात ग़लत साबित हो गयी और आज का सच यह है कि धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है।

दुर्भाग्य से हमारे वर्तमान में दिखावे का बड़ा महत्व है। कुछ किताबें, पत्रिकाएँ, फ़िल्में देख/पढ़ कर अधिकांश लोग खु़द को मन-ही-मन बुद्धिजीवी होने के ख़िताब से नवाज़ देते हैं और फिर स्वयं के इस आधे अधूरे ज्ञान को दूसरों पर बड़े चाव और गंभीरता से लादते हैं। मुझे परेशानी उन लोगों से है जो केवल दूसरे की लिखी किताबों में पढ़ी बातों को दोहरा कर स्वयं को हावी करने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगो की कोई मौलिक सोच नहीं होती। और इसी कारण ऐसे लोग अपने मत की आलोचना सहन नहीं कर पाते। वे पढ़ी-पढ़ाई एक राय से बंध जाते हैं और अपने मन में चिंतन के लिये कोई जगह छोड़े बिना अपनी सोच के दरवाज़े बंद कर लेते हैं। यदि कोई उनकी इस उधार ली हुई राय से इत्तेफ़ाक नहीं रखता तो उनके पास कहने को अधिक कुछ नहीं बचता।

मेरे विचार में एक वास्तविक बुद्धिजीवी अपनी राय को बदलने के लिये हमेशा तैयार रहता है। वह हमेशा अन्य लोगो की बात सुनता है और उस पर गंभीरता से मनन करता है। वह संसार को केवल अपने ही नहीं वरन अन्य लोगो के दृष्टिकोण से भी देखने की काबलियत रखता है। यदि उसे दूसरे का मत बेहतर लगे तो वह ना केवल उस मत को स्वीकारता है बल्कि उस दूसरे व्यक्ति के प्रति आभार व्यक्त करता है कि उसने उसके ज्ञान को परिष्कृत करने में सहायता की।

वास्तविक ज्ञान और बुद्धि मानव को सहनशील और सम्मिलनशील बनाती है।

आरम्भ में मैं बात कर रहा था अपने सहकर्मियों की जो दिखावे के शिकार थे। मुझे नहीं लगता कि ऐसे व्यक्ति जान-बूझ कर ज्ञानी होने का दिखावा करते हैं। इसके उलट सच यह है कि अपने बुद्धिजीवी होने की धारणा उनके मन में इस तरह बैठ जाती है कि वे इस pseudo-intellectualism के आधार पर स्वयं को दूसरों से बेहतर मानने लगते हैं। अहंकार की भावना को तो बस ऐसी ही स्थिति की तलाश होती है। मैनें इस तरह की भावना में बंधे बहुत-से लोगों को देखा है जिनमें कवि, लेखक, चित्रकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक इत्यादि भी शामिल हैं।

ज्ञान होना, जानकारी होना बहुत अच्छी बात है लेकिन अपने ज्ञान का दिखावा और अहंकार हमारे ज्ञान के परिष्करण में एक बड़ी रुकावट बन कर खड़े हो जाते हैं। चाहे हमारा कुंआ कितना भी बड़ा क्यों ना हो; अंतत: हम कूएं के मेंढक ही रह जाते हैं।

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