
हो सकता है कि इस बारे में पहले भी किसी ने सोचा और लिखा हो; लेकिन मैनें कहीं भी इस बारे में चर्चा नहीं देखी। लेखन में शिष्ट भाषा के प्रयोग पर चर्चा होनी चाहिये। मेरा मानना है हिन्दी ब्लॉगिंग (या किसी भी अन्य भाषा की ब्लॉगिंग) में वैब शिष्टाचार के कुछ मूल नियमों का पालन होना चाहिये। ऑनलाइन कम्यूनिटी भी तो एक समाज है; जब हम अपने वास्तविक समाज में शिष्टाचार के नियमों का पालन करते हैं तो इस ऑनलाइन समाज में क्यों नहीं? हो सकता है कि वास्तविक समाज में बहुत से लोग सज़ा के डर से शिष्ट व्यवहार करते हों। जो लोग शिष्टता नहीं दिखाते उन्हें एक किस्म से समाज से काट दिया जाता है। उनसे मिलने-जुलने वाले बात करने वाले लोगों की संख्या कम होने लगती है। तो ऐसा ही ऑनलाइन समाज में क्यों नहीं होता? कुछ दिन पहले विनीत के ताना-बाना नामक ब्लॉग पर सराय में हुई मीटिंग की चर्चा पढ़ी तो पाया कि वहां भी लोग इस बात पर ज़ोर दे रहे थे कि अब पाठक का राज होना चाहिये। पाठकों को अशिष्ट सामग्री को बढ़ावा देने की बजाय उससे कन्नी काटनी चाहिये।
मेरे विचार से कम से कम इन तीन शिष्टाचार नियमों का पालन होना चाहिये:
- अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखने के बाद आप अपनी एड्रेस बुक में जितने लोग हैं उन सबको ईमेल ना भेजें कि आइये और मेरी पोस्ट पढ़िये। मेरे मेल बॉक्स में रोज़ इस तरह कि दो-तीन ईमेल्स तो आती ही हैं। ब्लॉगर्स को समझना चाहिये कि Google Friend Connect और Feedburner जैसे विकल्प पाठक के पास हैं और इनकी मदद से वह जिन ब्लॉग्स के बारे में जानना चाहता है उनके बारे में जान सकता है। अपने लिखे को थोपिये मत!
- टिप्पणियों को विज्ञापन का साधन ना बनाया जाये। टिप्पणी के अंत में अपने निजी ब्लॉग या अन्य वैबसाइट का लिंक तभी दें जब वाकई पोस्ट के संदर्भ में उसकी ज़रूरत हो।
- अशिष्ट भाषा या कटुव्ययंगों से बचना चाहिये। आप किसी के बारे में बुरा कह कर या उसका मज़ाक उड़ा कर कुछ हांसिल नहीं करते हैं। जीवन का चक्र इन बुरे वचनों से प्रभावित नहीं होता और चलता रहता है। ब्लॉग्स पर कितना कुछ असभ्य लिखा जा चुका है लेकिन क्या किसी के बारे में ऐसा लिख देने से दुनिया रुक गयी या बदल गयी? संयमित भाषा में रचनात्मक टिप्पणी आपके महत्व को बढाती है; कम नहीं करती। असभ्य भाषा कुछ पलों के लिये कहने वाले को सुकून दे सकती है लेकिन उसका प्रभाव कहने वाले व्यक्ति और उसके संबंधो पर बुरा ही पड़ता है।
इसी संदर्भ में यह भी कहा जाना चाहिये कि ब्लॉगर्स भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है। नई शब्द-रचना और वाक्य-रचना के लिये यह माध्यम पोषक वातावरण उपलब्ध कराता है। लेकिन यही माध्यम हिन्दी भाषा को बिगाड़ भी सकता है। असंयमित और असभ्य वाक्यों का प्रयोग इस माध्यम के महत्व को हल्का कर देगा और एक सामान्य पाठक को यही लगेगा कि हिन्दी ब्लॉग तो टाइम-पास करने और लेखक द्वारा अपनी कुंठाओं के मनोरंजन का माध्यम मात्र है। शब्दों का चयन करते समय हमें यह सोचना चाहिये कि आज नहीं तो कल हमारे माता-पिता, बच्चे, भाई-बहन, मित्र या अन्य रिश्तेदार हमारे लिखे शब्दों को पढ़ेंगे। लिखने से पहले सोचे कि हम उन्हें क्या पढ़ाना चाहते हैं और हम उनकी दृष्टि में कैसा दिखाना चाहते हैं।
भला कितना मुश्किल है एक-दूसरे के विचारों को सम्मान देना? और कितना मुश्किल है अपनी असहमति को सभ्य भाषा में ज़ाहिर करना? कम ही सही लेकिन कई हिन्दी ब्लॉगर्स इस माध्यम का बहुत अच्छा उपयोग करते दिखते हैं। हमें चाहिये कि हम एक-दूसरे के लेखन से और सौम्य व्यहवार से सीखें और इसे अपने को बेहतर बनाने में प्रयोग करें।
Labels: लेख
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Randhir Singh Suman said...
January 17, 2010 at 7:41 PM
nice
श्रद्धा जैन said...
January 17, 2010 at 9:48 PM
Agree ji
RAJ SINH said...
January 18, 2010 at 2:36 AM
सहमत !
Khushdeep Sehgal said...
January 18, 2010 at 7:22 AM
आपकी एक-एक बात से सहमत...
लेकिन...
कौन सुनेगा, किसको सुनाए,
इसलिए चुप रहते हैं...
जय हिंद...
siddheshwar singh said...
January 18, 2010 at 3:45 PM
सही कहा आपने। सहमति।
Unknown said...
January 18, 2010 at 5:24 PM
हम भी सहमत हैं आपसे।
अजित गुप्ता का कोना said...
January 18, 2010 at 9:30 PM
पूर्णतया सहमत।