उसकी उम्र कोई 45 या 50 साल के आस-पास होगी लेकिन देखने में वह व्यक्ति कहीं अधिक उम्र-दराज लगता था। उसे याद करने वाले किसी भी व्यक्ति के ज़हन में शायद सबसे पहले उसका गहरा रंग, गोल बड़ा-सा चेहरा और मोटी-सी नाक ही आती होगी। चौड़े पांयचो का पायजामा और एक कमीज़; बस सुन्दर ने उसे हमेशा यही कपड़े पहने देखा था। कमीज़ अक्सर धारीदार होती थी और उसके ऊपर के दो बटन खुले होते थे जिससे उसकी गहरे रंग की छाती पर उगे सफ़ेद हो चले बाल झांका करते थे। पैरों में रिलेक्सो की घिसी हुई चप्पलें पहने वह सड़क पर झाड़ू लगाया करता था। डाकखाने से लेकर सरकारी अस्पताल के बीच की सकड़ के किनारे वह कभी-कभार सुन्दर को मिल जाता था। या यूं कहिये कि उसे सुन्दर मिल जाता था।

नगर निगम का वह वृद्ध दिखने वाला कर्मचारी रोज़ाना सुबह-सवेरे सड़क साफ़ किया करता था। वह शायद कोशिश करता था कि जितना सुबह अपना काम निपटा ले उतना ही अच्छा क्योंकि फिर जैसे-जैसे सूरज निकलता था; वैसे-वैसे सकड़ पर कदमों और पहियों की आवाजाही बढ़ती जाती थी और कूड़ा समेटने का उसका काम मुश्किल होता जाता था। स्कूल जाने के लिये सुन्दर घर से सुबह सवा-छह बजे निकला करता था और तब तक वह व्यक्ति सड़क साफ़ करने का काम पूरा करके चला जाया करता था। यही कारण था कि दोनों बस कभी-कभार ही मिलते थे।

जब भी उस व्यक्ति को सुन्दर दिखायी देता तो वह झाड़ू लगाना भूल कर स्कूल की ओर जाते सुन्दर के पास आ जाता। बैसाखियों पर झूलते हुए चलने वाले 10 या 11 साल के सुन्दर को सड़क पर चलते हुए इस तरह लोगो के ध्यान में आना बड़ा अटपटा लगता था। वह बस चाहता था कि कोई उसे देख ना सके। लेकिन उस व्यक्ति के यूं सुन्दर को देखते ही उसके पास चले आने से सुन्दर को बड़ी शर्मिन्दगी-सी होती थी। अपनी जिस विकलांगता को वह भुला देना चाहता था; उसे लगता था कि वही विकलांगता लोगो के दया-भाव को जगा कर उनकी निगाहों को उसकी ओर खींचती है।

अपनी लम्बी-सी झाड़ू को सड़क पर घसीटते हुए वह पास आता। पास आते ही वह व्यक्ति सुन्दर से बस एक ही सवाल किया करता था:

"कौन-सी क्लास में हो गये हो बेटा?"

सुन्दर को कई बार यह याद होता था कि इस व्यक्ति ने यही सवाल अभी कुछ ही महीने पहले पूछा था। शर्मिन्दगी और झेंप तो होती ही थी और इसके चलते सुन्दर के मन में आता था कि कह दे:

"अभी कुछ दिन पहले बताया तो था"

लेकिन जाने क्यों सुन्दर अपनी झेंप को गुस्से में परिवर्तित नहीं होने देता था और समुचित जवाब देता था:

"छठी क्लास में"

जवाब सुनते ही उस व्यक्ति का चेहरा खिल उठता और वह हाथ में पकड़ी झाडू के लम्बे-से डंडे को अपने छाती पर टिका लेता और दोनों हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा कर कहता:

"खूब जियो बेटा, खूब पढो़ लिखो, खूब पढ़ो लिखो"

यह कहते हुए उसके चेहरे पर बड़े गहरे संतोष के भाव होते थे। कुछ ऐसी शांति और ठंडक उसके मन में होती थी जो उसके चेहरे पर दिखती तो थी लेकिन उसे बयान करना बहुत मुश्किल होता था। बस इतना कह कर वह वापस जाता और धूल और कूड़े को सड़क से इकठ्ठा करने लगता। इसी तरह साल-दर-साल बीतते गये। इस प्रकरण में कुछ भी नहीं बदला; सिवाय सुन्दर के जवाब के:

"सातवीं क्लास में"

"आठवीं क्लास में"

"नवीं क्लास में"

"दसवीं क्लास में"

"ग्यारहवीं क्लास में"

उस व्यक्ति को शायद पता भी नहीं होता था कि सुन्दर पिछली बार बात होने के समय जिस कक्षा में था -वह इस बार आगे बढ़ा है या उसी कक्षा में है। लेकिन हर बार सुन्दर का जवाब उसके चेहरे पर गहरे संतोष की झलक ले आता था। पहले तो सुन्दर बस चाहता था कि यह व्यक्ति उसके पास ना आये और आ ही जाये तो जितना जल्दी हो वापस चला जाये। लेकिन जैसे-जैसे सुन्दर बड़ा हुआ उसे उस व्यक्ति से एक अपनापन-सा महसूस होने लगा। सुन्दर समझने लगा था कि उस व्यक्ति के मुंह से निकले आशीर्वचन दिल की गहराईयों से निकले शब्द होते थे।

उनकी दो मुलाकातों के बीच कई-कई महीने बीत जाते थे; आज सुन्दर को याद भी नहीं है कि वह आखिरी बार कब उस व्यक्ति से मिला। लेकिन इतना ज़रूर है कि मिले हुए बहुत वर्ष हो गये हैं। अब शायद वह व्यक्ति जीवित भी ना हो लेकिन आज सुन्दर के ज़हन में जब भी वह गहरे रंग का गोल चेहरा आता है तो उसके साथ ही याद आते हैं उस व्यक्ति के द्वारा कहे गये केवल दो वाक्य:

"कौन-सी क्लास में हो गये हो बेटा?"
"खूब जियो बेटा, खूब पढो़ लिखो, खूब पढ़ो लिखो"

इन्हीं दो वाक्यों को वह व्यक्ति साल-दर-साल दोहराता रहा और सुन्दर के द्वारा प्रकृति के अन्याय का सामना किये जाने को सराहता रहा। सुन्दर को आशीर्वाद देता रहा।

सुन्दर ने कभी उसका नाम नहीं पूछा। और उस व्यक्ति को भी सुन्दर का नाम नहीं पता था।

जीवन में कई संबंध ऐसे होते हैं जिनमें ना तो नाम की ज़रूरत होती है और ना ही कुछ कहे जाने की। ऐसे संबंध के लिये ही कहा जाता है कि "मन से मन को राह होती है"

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नोट:
सुन्दर मेरा निकट मित्र है। उसी के लिये मैनें अपनी पिछली पोस्ट वाली कविता लिखी थी। सुन्दर को बचपन से ही पोलियो है और उसने मुझे अपने संघर्ष और दुख-सुख के तमाम प्रकरण सुनाए हैं। सुन्दर की अनुमति से उन्हीं में से कुछ प्रकरणो को मैं यहाँ धीरे-धीरे प्रकाशित करूंगा। भाषा मेरी होगी और जीवन सुन्दर का।

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