यह रचना "ओ पेड़" श्रृंखला की दूसरी कड़ी है। इस श्रृंखला में मैनें एक कमज़ोर हो चले सूखे पेड़ की विभिन्न मनोस्थितियों का वर्णन करने की कोशिश की है। इस श्रृंखला की पहली रचना यहाँ उपलब्ध है।
लेखक: ध्रुवभारत
ओ पेड़ तुम्हारे हौसले को कोई सराहेगा नहीं आस्मां में चमकती इन बिजलियों का दिल तंग है और फिर जला देने की आदत रहती इनके संग है ये पहले जलाती हैं फिर खिलखिलाती हैं तुम खुले आकाश तले बंजर पर खड़े अकेले बादल बूंद ना एक बरसाते हैं बस साथ बिजलियां लाते हैं ये अपना दिल बहलाती हैं और तुम्हारा दिल दहलाती हैं पर फिर भी तुम तने हुए साहस की मूरत बने हुए बस यूं ही खड़े रहते हो लेकिन कहो तो वहाँ दूर से जो सड़क निकलती है जिस पर दुनिया चलती है क्या उनमें कोई हमदर्द है? क्या कभी किसी ने पूछा कैसा तुम्हारा दुख-दर्द है प्यार की धूप खिली रहे चाहे सारे जहाँ में तुम्हारे लिये तो मौसम सदा सर्वदा सर्द है जानता हूँ तुम मन ही मन अपने दर्द से गीत बुनते हो पर इन गीतों को साथ तुम्हारे कोई गाएगा नहीं ओ पेड़ तुम्हारे हौंसले को कोई सराहेगा नहीं |
Labels: कविता जैसा कुछ
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