उसकी उम्र कोई 45 या 50 साल के आस-पास होगी लेकिन देखने में वह व्यक्ति कहीं अधिक उम्र-दराज लगता था। उसे याद करने वाले किसी भी व्यक्ति के ज़हन में शायद सबसे पहले उसका गहरा रंग, गोल बड़ा-सा चेहरा और मोटी-सी नाक ही आती होगी। चौड़े पांयचो का पायजामा और एक कमीज़; बस सुन्दर ने उसे हमेशा यही कपड़े पहने देखा था। कमीज़ अक्सर धारीदार होती थी और उसके ऊपर के दो बटन खुले होते थे जिससे उसकी गहरे रंग की छाती पर उगे सफ़ेद हो चले बाल झांका करते थे। पैरों में रिलेक्सो की घिसी हुई चप्पलें पहने वह सड़क पर झाड़ू लगाया करता था। डाकखाने से लेकर सरकारी अस्पताल के बीच की सकड़ के किनारे वह कभी-कभार सुन्दर को मिल जाता था। या यूं कहिये कि उसे सुन्दर मिल जाता था।

नगर निगम का वह वृद्ध दिखने वाला कर्मचारी रोज़ाना सुबह-सवेरे सड़क साफ़ किया करता था। वह शायद कोशिश करता था कि जितना सुबह अपना काम निपटा ले उतना ही अच्छा क्योंकि फिर जैसे-जैसे सूरज निकलता था; वैसे-वैसे सकड़ पर कदमों और पहियों की आवाजाही बढ़ती जाती थी और कूड़ा समेटने का उसका काम मुश्किल होता जाता था। स्कूल जाने के लिये सुन्दर घर से सुबह सवा-छह बजे निकला करता था और तब तक वह व्यक्ति सड़क साफ़ करने का काम पूरा करके चला जाया करता था। यही कारण था कि दोनों बस कभी-कभार ही मिलते थे।

जब भी उस व्यक्ति को सुन्दर दिखायी देता तो वह झाड़ू लगाना भूल कर स्कूल की ओर जाते सुन्दर के पास आ जाता। बैसाखियों पर झूलते हुए चलने वाले 10 या 11 साल के सुन्दर को सड़क पर चलते हुए इस तरह लोगो के ध्यान में आना बड़ा अटपटा लगता था। वह बस चाहता था कि कोई उसे देख ना सके। लेकिन उस व्यक्ति के यूं सुन्दर को देखते ही उसके पास चले आने से सुन्दर को बड़ी शर्मिन्दगी-सी होती थी। अपनी जिस विकलांगता को वह भुला देना चाहता था; उसे लगता था कि वही विकलांगता लोगो के दया-भाव को जगा कर उनकी निगाहों को उसकी ओर खींचती है।

अपनी लम्बी-सी झाड़ू को सड़क पर घसीटते हुए वह पास आता। पास आते ही वह व्यक्ति सुन्दर से बस एक ही सवाल किया करता था:

"कौन-सी क्लास में हो गये हो बेटा?"

सुन्दर को कई बार यह याद होता था कि इस व्यक्ति ने यही सवाल अभी कुछ ही महीने पहले पूछा था। शर्मिन्दगी और झेंप तो होती ही थी और इसके चलते सुन्दर के मन में आता था कि कह दे:

"अभी कुछ दिन पहले बताया तो था"

लेकिन जाने क्यों सुन्दर अपनी झेंप को गुस्से में परिवर्तित नहीं होने देता था और समुचित जवाब देता था:

"छठी क्लास में"

जवाब सुनते ही उस व्यक्ति का चेहरा खिल उठता और वह हाथ में पकड़ी झाडू के लम्बे-से डंडे को अपने छाती पर टिका लेता और दोनों हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा कर कहता:

"खूब जियो बेटा, खूब पढो़ लिखो, खूब पढ़ो लिखो"

यह कहते हुए उसके चेहरे पर बड़े गहरे संतोष के भाव होते थे। कुछ ऐसी शांति और ठंडक उसके मन में होती थी जो उसके चेहरे पर दिखती तो थी लेकिन उसे बयान करना बहुत मुश्किल होता था। बस इतना कह कर वह वापस जाता और धूल और कूड़े को सड़क से इकठ्ठा करने लगता। इसी तरह साल-दर-साल बीतते गये। इस प्रकरण में कुछ भी नहीं बदला; सिवाय सुन्दर के जवाब के:

"सातवीं क्लास में"

"आठवीं क्लास में"

"नवीं क्लास में"

"दसवीं क्लास में"

"ग्यारहवीं क्लास में"

उस व्यक्ति को शायद पता भी नहीं होता था कि सुन्दर पिछली बार बात होने के समय जिस कक्षा में था -वह इस बार आगे बढ़ा है या उसी कक्षा में है। लेकिन हर बार सुन्दर का जवाब उसके चेहरे पर गहरे संतोष की झलक ले आता था। पहले तो सुन्दर बस चाहता था कि यह व्यक्ति उसके पास ना आये और आ ही जाये तो जितना जल्दी हो वापस चला जाये। लेकिन जैसे-जैसे सुन्दर बड़ा हुआ उसे उस व्यक्ति से एक अपनापन-सा महसूस होने लगा। सुन्दर समझने लगा था कि उस व्यक्ति के मुंह से निकले आशीर्वचन दिल की गहराईयों से निकले शब्द होते थे।

उनकी दो मुलाकातों के बीच कई-कई महीने बीत जाते थे; आज सुन्दर को याद भी नहीं है कि वह आखिरी बार कब उस व्यक्ति से मिला। लेकिन इतना ज़रूर है कि मिले हुए बहुत वर्ष हो गये हैं। अब शायद वह व्यक्ति जीवित भी ना हो लेकिन आज सुन्दर के ज़हन में जब भी वह गहरे रंग का गोल चेहरा आता है तो उसके साथ ही याद आते हैं उस व्यक्ति के द्वारा कहे गये केवल दो वाक्य:

"कौन-सी क्लास में हो गये हो बेटा?"
"खूब जियो बेटा, खूब पढो़ लिखो, खूब पढ़ो लिखो"

इन्हीं दो वाक्यों को वह व्यक्ति साल-दर-साल दोहराता रहा और सुन्दर के द्वारा प्रकृति के अन्याय का सामना किये जाने को सराहता रहा। सुन्दर को आशीर्वाद देता रहा।

सुन्दर ने कभी उसका नाम नहीं पूछा। और उस व्यक्ति को भी सुन्दर का नाम नहीं पता था।

जीवन में कई संबंध ऐसे होते हैं जिनमें ना तो नाम की ज़रूरत होती है और ना ही कुछ कहे जाने की। ऐसे संबंध के लिये ही कहा जाता है कि "मन से मन को राह होती है"

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नोट:
सुन्दर मेरा निकट मित्र है। उसी के लिये मैनें अपनी पिछली पोस्ट वाली कविता लिखी थी। सुन्दर को बचपन से ही पोलियो है और उसने मुझे अपने संघर्ष और दुख-सुख के तमाम प्रकरण सुनाए हैं। सुन्दर की अनुमति से उन्हीं में से कुछ प्रकरणो को मैं यहाँ धीरे-धीरे प्रकाशित करूंगा। भाषा मेरी होगी और जीवन सुन्दर का।

यह रचना "ओ पेड़" श्रृंखला की दूसरी कड़ी है। इस श्रृंखला में मैनें एक कमज़ोर हो चले सूखे पेड़ की विभिन्न मनोस्थितियों का वर्णन करने की कोशिश की है। इस श्रृंखला की पहली रचना यहाँ उपलब्ध है।

लेखक: ध्रुवभारत

ओ पेड़
तुम्हारे हौसले को
कोई सराहेगा नहीं

आस्मां में चमकती
इन बिजलियों का दिल तंग है
और फिर जला देने की आदत
रहती इनके संग है
ये पहले जलाती हैं
फिर खिलखिलाती हैं
तुम खुले आकाश तले
बंजर पर खड़े अकेले
बादल बूंद ना एक बरसाते हैं
बस साथ बिजलियां लाते हैं
ये अपना दिल बहलाती हैं
और तुम्हारा दिल दहलाती हैं
पर फिर भी तुम तने हुए
साहस की मूरत बने हुए
बस यूं ही खड़े रहते हो

लेकिन कहो तो
वहाँ दूर से जो
सड़क निकलती है
जिस पर दुनिया चलती है
क्या उनमें कोई हमदर्द है?
क्या कभी किसी ने पूछा
कैसा तुम्हारा दुख-दर्द है
प्यार की धूप खिली रहे
चाहे सारे जहाँ में
तुम्हारे लिये तो मौसम
सदा सर्वदा सर्द है

जानता हूँ तुम मन ही मन
अपने दर्द से गीत बुनते हो
पर इन गीतों को साथ तुम्हारे
कोई गाएगा नहीं

ओ पेड़
तुम्हारे हौंसले को
कोई सराहेगा नहीं
 

अपने एक मित्र को समर्पित मेरी यह रचना बहुत छोटी-सी और साधारण-सी है लेकिन इसकी हर पंक्ति किसी के जीवन का कोई पहलू उजागर करती है। हर पंक्ति एक पूरी कहानी कहती है। केवल समझ सकने वाला एक संवेदनशील हृदय चाहिये। यहाँ जिन बैसाखियों की बात हो रही है वे सांकेतिक बैसाखियाँ (metaphore) नहीं हैं बल्कि मेरे मित्र की असली बैसाखियाँ हैं जो उसके जीवन का हिस्सा हैं।

लेखक: ध्रुवभारत

बैसाखियों पे सधी ज़िन्दगी
बैसाखियों से बंधी ज़िन्दगी
बैसाखियों पे चली ज़िन्दगी
बैसाखियों से बनी ज़िन्दगी
बैसाखियों पे खड़ी ज़िन्दगी
बैसाखियों से लड़ी ज़िन्दगी
बैसाखियों से बड़ी ज़िन्दगी!
 

लेखक: ध्रुवभारत (1 सितम्बर 2004)
आवाज़: ध्रुवभारत  

हृदय चाहता तुमको पाना, तुम बैठी सागर उस पार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

स्मृति समान संदेश तुम्हारे, निरंतर आते रहते हैं
शब्दो में ही देख तुम्हे हम, प्रेम से निज लोचन भर लेते हैं
पढ़ते पढ़ते ही अधरों पर, एक हंसी जो खेल गई
यह नई दशा है मेरी, और अनुभूती भी यह नई

अब जब तुमने खींच लिया है, मत छोड़ना बीच मझधार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

तुम आओगी विश्वास इसी पर, मैनें जीवन आधार किया
परे तुम्हारे अपने जगत का, नहीं मैंने विस्तार किया
नयन प्रतीक्षारत हैं मेरे, प्राणो में आशा की ज्योती
आभार तुम्हारी प्रतीक्षा का, क्या करता जो यह भी ना होती

निशि वासर में भेद नहीं है, बिना तुम्हारे सूना संसार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

फूलों ने रंग त्याग दिए हैं, कलियाँ मुरझा कर टूट रहीं
बुलबुल गुमसुम सी बैठी है, कोयल देती अब कूक नहीं
बेल बिटप पल्लव उदास हैं, रूका हुआ अलि कली का रास
इन सबको जीवन दे सकता, तुम्हारे मुखमंडल का हास

मेरे मन उपवन से दखो, रूठ गई है बसंत बहार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

खो दी शोभा और ऋतुराज, पतझड़ में बदल गए
समय की खा कर चोट, पाषाण भी हो जर्जर गए
निसर्ग का नियम यही है, जब भी है यौवन आया
उसी क्षण से मंडराने लगता, ढल जाने का साया

पल पल जगत है ढलता रहता, पर अजर रहा है मेरा प्यार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

सृष्टि तो है चल रही, पर मेरा जीवन ठहर गया
सुबह समय पर होती है, पर जाने कहाँ तमहर गया
समय रूका हुआ है मानो, कि बढे तभी जब तुम आओ
मेरे जीवन की घडियाँ ही कितनी, जो हैं आओ, संग बिताओ

हम दोनो ही तो हैं, इक दूजे के जीवन का सार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

बिना तुम्हारे सौन्दर्य के, कहो कैसे बहे काव्य सरिता?
बिना तुम्हारे प्रेम के कहो, कैसे करूँ पूर्ण कविता?
मैं पूर्णता पाऊँ तभी, जब तुमसे मिट जाए मेरी दूरी
बिना तुम्हारे हे प्रियतमा, मैं अधूरा, मेरी हर रचना अधूरी

दरस मेरे नयनों को दे दो, यही मैं चाहूँ बारम्बार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

हृदय चाहता तुमको पाना, तुम बैठी सागर उस पार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

आज का दिन बड़े तेज़ बुख़ार के कारण पलंग पर पड़े हुए बीत रहा है। सोचने के अलावा और कुछ कर सकने की शक्ति दिन भर नहीं रही। जब इंसान बीमार होता है, असहाय होता है तो उसे सहायता के साथ-साथ सहानुभूति की भी ज़रूरत होती है; परन्तु आजकल की दौड़-धूप भरी ज़िन्दगी में सब कुछ कह कर मांगना पड़ता है -इंसान में से संवेदनशीलता मिटती जा रही है। किसी को किसी ख़बर नहीं रहती। लेकिन ईश्वर ने माँ को ना जाने कैसे बनाया है कि प्रेम, करुणा और संवेदना उसमें कूट-कूट कर भरी है। माँ से कुछ मांगना नहीं पड़ता। वह संतान की दुख-तकलीफ़ स्वयं ही जान जाती है। पता नहीं कैसे। कितना भी छिपाओ, माँ को पता चल ही जाता है।

कोई अदृश्य धागा है जो माँ को संतान से बांधता है।

पिछले कुछ समय से एक परेशान कर देने वाली निरन्तरता के साथ नज़रो के सामने ऐसी (नई, पुरानी) पोस्ट्स और टिप्पणियाँ आ रही हैं जिनके लेखक निश्चित रूप से बेहतर और सभ्य  भाषा कर सकते थे। लेकिन ऐसा उन्होनें किया नहीं। अब ब्लॉग को लेखक भी हल्के ढंग से ही लेते जान पड़ते हैं। कहा जाता है कि तलवार का एक वार एक व्यक्ति को घायल करता है लेकिन कलम के लिखे हुए बुरे शब्द  असंख्य लोगो को आहत कर सकते हैं।

हो सकता है कि इस बारे में पहले भी किसी ने सोचा और लिखा हो; लेकिन मैनें कहीं भी इस बारे में चर्चा नहीं देखी। लेखन में शिष्ट भाषा के प्रयोग पर चर्चा होनी चाहिये। मेरा मानना है हिन्दी ब्लॉगिंग (या किसी भी अन्य भाषा की ब्लॉगिंग) में वैब शिष्टाचार के कुछ मूल नियमों का पालन होना चाहिये। ऑनलाइन कम्यूनिटी भी तो एक समाज है; जब हम अपने वास्तविक समाज में शिष्टाचार के नियमों का पालन करते हैं तो इस ऑनलाइन समाज में क्यों नहीं? हो सकता है कि वास्तविक समाज में बहुत से लोग सज़ा के डर से शिष्ट व्यवहार करते हों। जो लोग शिष्टता नहीं दिखाते उन्हें एक किस्म से समाज से काट दिया जाता है। उनसे मिलने-जुलने वाले बात करने वाले लोगों की संख्या कम होने लगती है। तो ऐसा ही ऑनलाइन समाज में क्यों नहीं होता? कुछ दिन पहले विनीत के ताना-बाना नामक ब्लॉग पर सराय में हुई मीटिंग की चर्चा पढ़ी तो पाया कि वहां भी लोग इस बात पर ज़ोर दे रहे थे कि अब पाठक का राज होना चाहिये। पाठकों को अशिष्ट सामग्री को बढ़ावा देने की बजाय उससे कन्नी काटनी चाहिये।

मेरे विचार से कम से कम इन तीन शिष्टाचार नियमों का पालन होना चाहिये:
  1. अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखने के बाद आप अपनी एड्रेस बुक में जितने लोग हैं उन सबको ईमेल ना भेजें कि आइये और मेरी पोस्ट पढ़िये। मेरे मेल बॉक्स में रोज़ इस तरह कि दो-तीन ईमेल्स तो आती ही हैं। ब्लॉगर्स को समझना चाहिये कि Google Friend Connect और Feedburner जैसे विकल्प पाठक के पास हैं और इनकी मदद से वह जिन ब्लॉग्स के बारे में जानना चाहता है उनके बारे में जान सकता है। अपने लिखे को थोपिये मत!

  2. टिप्पणियों को विज्ञापन का साधन ना बनाया जाये। टिप्पणी के अंत में अपने निजी ब्लॉग या अन्य वैबसाइट का लिंक तभी दें जब वाकई पोस्ट के संदर्भ में उसकी ज़रूरत हो।

  3. अशिष्ट भाषा या कटुव्ययंगों से बचना चाहिये। आप किसी के बारे में बुरा कह कर या उसका मज़ाक उड़ा कर कुछ हांसिल नहीं करते हैं। जीवन का चक्र इन बुरे वचनों से प्रभावित नहीं होता और चलता रहता है। ब्लॉग्स पर कितना कुछ असभ्य लिखा जा चुका है लेकिन क्या किसी के बारे में ऐसा लिख देने से दुनिया रुक गयी या बदल गयी? संयमित भाषा में रचनात्मक टिप्पणी आपके महत्व को बढाती है; कम नहीं करती। असभ्य भाषा कुछ पलों के लिये कहने वाले को सुकून दे सकती है लेकिन उसका प्रभाव कहने वाले व्यक्ति और उसके संबंधो पर बुरा ही पड़ता है।
इसी संदर्भ में यह भी कहा जाना चाहिये कि ब्लॉगर्स भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है। नई शब्द-रचना और वाक्य-रचना के लिये यह माध्यम पोषक वातावरण उपलब्ध कराता है। लेकिन यही माध्यम हिन्दी भाषा को बिगाड़ भी सकता है। असंयमित और असभ्य वाक्यों का प्रयोग इस माध्यम के महत्व को हल्का कर देगा और एक सामान्य पाठक को यही लगेगा कि हिन्दी ब्लॉग तो टाइम-पास करने और लेखक द्वारा अपनी कुंठाओं के मनोरंजन का माध्यम मात्र है। शब्दों का चयन करते समय हमें यह सोचना चाहिये कि आज नहीं तो कल हमारे माता-पिता, बच्चे, भाई-बहन, मित्र या अन्य रिश्तेदार हमारे लिखे शब्दों को पढ़ेंगे। लिखने से पहले सोचे कि हम उन्हें क्या पढ़ाना चाहते हैं और हम उनकी दृष्टि में कैसा दिखाना चाहते हैं।

भला कितना मुश्किल है एक-दूसरे के विचारों को सम्मान देना? और कितना मुश्किल है अपनी असहमति को सभ्य भाषा में ज़ाहिर करना? कम ही सही लेकिन कई हिन्दी ब्लॉगर्स इस माध्यम का बहुत अच्छा उपयोग करते दिखते हैं। हमें चाहिये कि हम एक-दूसरे के लेखन से और सौम्य व्यहवार से सीखें और इसे अपने को बेहतर बनाने में प्रयोग करें।

लेखक: ध्रुवभारत
14 फ़रवरी 2007
किसी ख़ामोश शाम को जब मैं
बैठा अकेला क्षितिज की ओर
शून्य में निहार रहा होंऊ
किसी गहरी उदासी में गुम

तब कोई बैठे पास आकर
और पूछे प्यार से
अपनेपन और अधिकार से
"क्या बात है?"
मैं चाहूँ कुछ कहना
किन्तु यदि वाणी न दे साथ
तब कोई मेरे मन को
मेरे चेहरे से पढ़ ले
और थाम ले मेरा हाथ
मुझे बताने को कि मैं
अकेला नहीं हूँ

ज़िन्दगी क्या तुम ऐसा करोगी?
आकर पास बैठोगी?
उदास अकेला होंऊगा
किसी खामोश शाम को जब मैं

लेखक: ध्रुवभारत
14 जनवरी 2010, मंगलवार, 4:00 सांय
जान पहचान
दोस्ती मोहब्बत के
कुछ धागे
लोग मुझसे भी बांधते हैं
ये धागे बहुत अधिक नहीं
और कमज़ोर भी होते हैं
ज़्यादा वक़्त नहीं चलते
जब किसी को कोई धागा
नहीं सुहाता
तो वो उसे खींच देता है
रिश्ता टूट जाता है
और मैं तन्हाई की गहराई में
कुछ और
डूब जाता हूँ

लेखक: ध्रुवभारत
12 जनवरी 2010, मंगलवार, 5:30 सांय
ज़िद ना करो
मुझे बिखर जाने दो
इतनी दरारें पड़ चुकी हैं
मुझे एक बार तो टूट कर
बिखरना ही होगा
तुम ज़िद ना करो
कि मुझे संवार लोगी
प्यार भरा तुम्हारा
एक लफ़्ज़ भी
अकेलेपन से बंधे
टूटे हुए मन से
सहा ना जाएगा
मारे खुशी के
साज़े-धड़कन ही
थम जाएगा

नहीं, तुम यूं ना
मुझे सहारा देने की बातें करो
मत कहो कि दुख मेरे
तुम्हारे हैं
मुझसे कुछ मत कहो
बस, ज़रा छू दो मुझे
कि मैं टूट जाऊं
तुम्हारी छुअन
अकेलेपन के बंधन को तोड़ देगी
और मैं आंसू की लड़ियों-सा
बिखर जाऊंगा

फिर अगर चाहो तो
समेट लेना
मेरे बिखरे हुए टुकड़ों को
और अपने प्यार से
इन्हें फिर जोड़ना
मुझे यकीं है
तुम्हारा प्यार
मुझे एक नई ज़िन्दगी देगा
और देगा एक मन
जो टूटा हुआ नहीं होगा

लेकिन, अभी
तुम ज़िद ना करो...

बीते कुछ दिन से मैं स्वयं के बारे अच्छा अनुभव नहीं कर पा रहा हूँ। एक बेचैनी-सी है मन में; स्वयं का अस्तित्व कुछ गंदा-सा अनुभव हो रहा है। इसके पीछे कारण है कि मैनें कुछ दिन पहले एक निकट मित्र से एक झूठ बोला। यूं तो हर किसी की तरह मैं भी दिन में पाँच-सात झूठ बातें बोल ही देता हूँ लेकिन इस तरह के झूठ हमारे जीवन के सुचारू-रूप से चलने के लिये शायद आवश्यक होते हैं। यहाँ मुझे जिम कैरी की फ़िल्म "लायर लायर" की याद आ रही है। इस फ़िल्म में जिम ने एक सफ़ल वकील का क़िरदार अदा किया है। लेकिन सफ़लता अक्सर व्यक्ति को अपनो से दूर कर देती है और जिम के साथ भी फ़िल्म में ऐसा ही कुछ हुआ। पत्नी से तलाक़ हो जाता है और उसका 7-8 वर्ष का बेटा अपनी माँ के साथ रहने लगता है। एक बार जिम अपने बेटे के जन्मदिन पर भी नहीं पँहुच पाता और कोई झूठा बहाना बना देता है। इस पर बेटा मन ही मन एक दुआ मांगता है कि उसके पिता एक दिन के लिये ना तो झूठ बोल पायें और ना ही अपने मन में आ रही बातों को छुपा पायें। बेटे की दुआ रंग लाती है और एक दिन के लिये जिम के जीवन में क्या-क्या घटता है यह तो फ़िल्म देख कर ही समझा जा सकता है। यह एक अच्छी कॉमेडी फ़िल्म है।

बहरहाल, झूठ तो हम सभी बोलते हैं। झूठ जो किसी को किसी भी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष नुकसान ना पँहुचाए; ऐसे झूठ मान्य भी होते हैं। हालांकि कई बार ऐसा होता है कि झूठ बोलने वाले व्यक्ति के तर्कानुसार कोई नुकसान नहीं हो रहा होता पर अन्य व्यक्ति को शायद और कुछ नहीं तो मानसिक नुकसान हो रहा हो; यह संभव है। मैनें भी ऐसा ही कुछ सोचा था। मैं अमूमन झूठ नहीं बोलता और जो लोग मेरे निकट हैं उनसे तो कतई नहीं। लेकिन इस बार मैनें सोचा कि मेरा सत्य शायद सामने वाले को दुख पँहुचाएगा और मैनें इस बात का ख़्याल करते हुए झूठ कह दिया। लेकिन उस व्यक्ति को मुझ पर शायद विश्वास नहीं हुआ और उसने मुझसे अपनी झूठ बात दोहराने को कहा तो मैं दूसरी बार झूठ नहीं कह पाया। शायद इसी को मित्रता और प्रेम कहा जाता है। किसी निकट मित्र ने आपसे इस विश्वास के साथ कुछ पूछा कि आप सच कहेंगे; तो आप झूठ कैसे कह सकते हैं?

दूसरी बार में मैनें सच कह दिया। लेकिन इस बात का दुख है कि मैनें पहली बार में झूठ कहा। सच और झूठ के दर्शन की कोई भी बात इस सुभाषितानी के बिना अधूरी रहती है:

सत्यं वदं, प्रियं वदं
न वदं सत्यमप्रियात

यह बात बिल्कुल सही है। पर मेरे विचार कुछ संबंध ऐसे होते हैं जिनमें सत्य चाहे कितना भी कटु क्यों ना हो लेकिन उसे कहना चाहिये। ऐसे रिश्तों में बंधे लोग एक-दूसरे पर इतना अधिक विश्वास करते हैं कि सत्य की कड़वाहट को वे पी जाते हैं और कभी साथ नहीं छोड़ते; रिश्ता नहीं तोड़ते। ऐसे रिश्ते दुर्लभ हैं लेकिन ऐसे रिश्ते हमारे जीवन का हांसिल होते हैं।

मैं कुछ दिन में इस दुख से उबर जाऊंगा लेकिन इस निश्चय के साथ कि मैं अपने निकट के लोगों से झूठ नहीं कहूंगा। ऐसे लोगो से पहले मेरे झूठ कहने की संभावना यदि दस लाख में एक बार थी; तो अब इसे दस करोड़ में एक बार हो जाना चाहिये। सत्य को कहा जाना चाहिये; आपकी ग़लती है तो अपनी ग़लती मानते हुए कहना चाहिये; लेकिन कहना चाहिये क्योंकि सत्य कहना संबंध का सम्मान होता है।

इस ब्लॉग के पाठक उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। उनमें से अधिकतर मेरे मित्र हैं और उनमें से कई का कहना है कि मुझे इस ब्लॉग पर टिप्पणी करने की सुविधा आरम्भ कर देनी चाहिये। लेकिन मुझे इस बारे में कई आशंकाएं हैं। पहली बात तो यह है कि इस ब्लॉग पर कोई टिप्पणी करेगा क्यों? चंद पाठक हैं और वे मित्र होने के कारण पोस्ट पर अपनी टिप्पणी ईमेल या फ़ोन के ज़रिये बता ही देते हैं। तो फिर टिप्पणी की सुविधा का क्या फ़ायदा। फिर ऊपर से हिन्दी ब्लॉगिंग की स्थिति देखते हुए वैसे ही टिप्पणियों के चक्कर में फंसने से डर लगता है। यहाँ हर दूसरे दिन कोई नया "चटपटा" विवाद खड़ा ही मिलता है। कई दिन से सोच रहा हूँ कि अब भाषा बदल लूं और अंग्रेज़ी में लिखना शुरु कर दूँ पर ब्लॉग लिख सकने लायक दक्षता शायद अंग्रेज़ी में मेरी नहीं है।

ख़ैर, फ़िलहाल मैंने इस ब्लॉग की पोस्ट्स पर टिप्पणी देने की सुविधा शुरु कर दी है। आशा है कि पाठक रचनात्मक चर्चा के लिये इस सुविधा का प्रयोग करेंगे।

यह पोस्ट मैं अपने कुछ पुराने सहकर्मियों को ध्यान में रखते हुए लिख रहा हूँ। आज किसी कारणवश उनकी याद आ गयी। अब ऐसा भी नहीं है कि अब से पहले उनकी याद नहीं आई। सहकर्मी तो जीवन का हिस्सा हो जाते हैं; कुछ यादें सुखद होती हैं तो कुछ मन में रोष व क्रोध उत्पन्न करती हैं; लेकिन जो भी हो उनकी याद तो गाहे-बगाहे आती ही रहती है। ख़ैर, आज उनकी याद आने का कारण उनका व्यहवार-विशेष है। जब मैं उनके साथ काम करता था तो मैनें मन-ही-मन उनके लिये एक शब्द गढ़ा था "pseudo-intellectuals"। मैनें यह शब्द "गढ़ा" था, ऐसा कह कर मैं इस शब्द के सृजक होने का दावा नहीं कर रहा हूँ, लेकिन जब यह शब्द मेरे मन में आया था तो उससे पहले मैनें कभी भी इसे कहीं ना तो सुना था और ना पढ़ा था। परंतु मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि यह शब्द बहुत समय पहले से प्रयोग में रहा है। अर्थात इस शब्द की आवश्यकता भी बहुत समय से रही है।

बहरहाल, मेरे कुछ सहकर्मी ऐसे थे जिन्हें मैं "pseudo-intellectuals" की श्रेणी में रखता था। आप पहली मुलाकात में उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते थे। वे भाषा और ज्ञान के भंडार जान पड़ते थे। आप किसी भी विषय पर बात करें तो उस पर उनकी एक नपी-तुली राय होती थी (और बहुत संभव है आप पाएं कि अक्सर यह राय उसी विषय पर आपकी व्यक्तिगत राय से मुख्तलिफ़ है!) अपनी राय के पक्ष में वे बहुत-से तथ्य आपके सामने रखेंगे और दस-पाँच किताबों, लेखकों, फ़िल्मों, निर्देशको, अख़बारों और पत्रिकाओं के नाम बता कर उन तथ्यों को समर्थित भी कर देंगे। आप बुद्धु की तरह उनका मुँह देखने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएंगे। आपको लगेगा कि आपने तो अपने जीवन को व्यर्थ कर दिया; ज़रा-सा भी ज्ञान और बुद्धि अर्जित नहीं की। सामने बैठे व्यक्ति को देखिये कितनी ज्ञानपूर्ण बातें करता है। कैसा बढ़िया और परिष्कृत व्यक्ति है।

मुझे यह सब पता है क्योंकि मैनें यह सब अनुभव किया है। ऐसे कितने ही व्यक्तियों से मैं मिला हूँ, बातें की हैं और उनके साथ काम किया है। आरम्भ में मैं ऐसे व्यक्तियों से बेहद प्रभावित भी हुआ हूँ। प्रभावित तो कुछ इस हद तक हुआ कि कई बार तो खु़द को उन जैसा बना लेने के योजनाबद्ध प्रयास भी आरम्भ कर दिये। परंतु बीतते समय के साथ जैसे पहाड़ों पर गिरी बर्फ़ पिघलती है और पथरीले पहाड़ उजागर होने लगते हैं; ठीक उसी तरह समय के साथ इन "बुद्धिजीवियों" का सत्य भी सामने आने लगता है। पहली कुछ मुलाकातें गहरा प्रभाव छोड़ती हैं; लेकिन अगर आपको इनसे और मुलाकातें/बातें करने का अवसर मिले तो यह प्रभाव काफ़ूर होने लगता है। ऐसा क्यो भला?

इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिये सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि आखिर बुद्धिजीविता क्या है? (कृपया मुझे बताइयेगा कि क्या "बुद्धिजीविता" हिन्दी का एक सही शब्द है? मुझे नहीं पता; मैनें तो बस अंग्रेज़ी के शब्द intellectualism का अनुवाद करने की कोशिश की है)... ख़ैर, मेरे विचार में बुद्धिजीवी होने की परिभाषा सीधी-सादी है -बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जिसके विचार समाज को प्रभावित करते हों। इन विचारों का प्रकटन वह व्यक्ति लेखन, भाषण, फ़िल्मों, चित्रकला, नर्तन इत्यादि किसी भी विधा के ज़रिये कर सकता है। ये ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें विश्लेषण, चिंतन और रचनात्मक आलोचना करने की क्षमता होती है। ये व्यक्ति बौद्धिक ज्ञान का सृजन करते हैं और पहले से उपलब्ध ज्ञान को अपने चिंतन की कसौटी पर परख कर उसे संवारते भी हैं।

एक समय का ज्ञान और सच यह था कि सूर्य धरती के चारों ओर घूमता है। यह बात उस समय के स्कूलों में पढ़ाई जाती रही होगी
एक ज़रूरी बात यह भी है कि वास्तविक बुद्धिजीवी वह लोग होते हैं जो स्वयं को बुद्धिजीवी नहीं मानते। क्योंकि बुद्धिजीविता को जिस तरह हमारे समाज में एक मजदूर की कमर-तोड़ मेहनत के बनिस्बत अधिक सम्मान हांसिल है -उससे स्वयं के बुद्धिजीवी होने का अहसास व्यक्ति को अंहकार की ओर ले कर जा सकता है। कोई भी वास्तविक बुद्धिजीवी इस बात को जानता है कि अहंकार विनाश का मार्ग होता है। वह यह भी जानता है कि किसी भी बात का अंहकार कितनी निर्मूल और खोखली भावना है। जो बुद्धिजीवी है वह जानता है कि वह, उसका ज्ञान और उसका समय प्रकृति के अति-विशाल चक्र में एक बेहद नगण्य कड़ी के अलावा और कुछ भी नहीं है। वह अपने ज्ञान का अहंकार इसलिये भी नहीं करता क्योंकि उसने इसी ज्ञानार्जन प्रक्रिया में यह सीखा हुआ होता है कि कोई भी ज्ञान हमेशा के लिये सच नहीं रहता। आने वाला समय और पीढ़ियाँ जब उस ज्ञान को अपनी नई समझ और बेहतर संसाधनों के ज़रिये परखती हैं तो बहुत बार ऐसा होता है कि पहले से स्थापित बहुत से तथ्य ग़लत साबित हो जाते हैं। एक समय का ज्ञान और सच यह था कि सूर्य धरती के चारों ओर घूमता है। यह बात उस समय के स्कूलों में पढ़ाई जाती रही होगी और बड़े-बड़े विद्वान इस बात को अपने तर्कों के ज़रिये साबित करके उस समय के बुद्धिजीवी होने का ख़िताब हांसिल करते रहे होंगे। लेकिन बाद में यह बात ग़लत साबित हो गयी और आज का सच यह है कि धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है।

दुर्भाग्य से हमारे वर्तमान में दिखावे का बड़ा महत्व है। कुछ किताबें, पत्रिकाएँ, फ़िल्में देख/पढ़ कर अधिकांश लोग खु़द को मन-ही-मन बुद्धिजीवी होने के ख़िताब से नवाज़ देते हैं और फिर स्वयं के इस आधे अधूरे ज्ञान को दूसरों पर बड़े चाव और गंभीरता से लादते हैं। मुझे परेशानी उन लोगों से है जो केवल दूसरे की लिखी किताबों में पढ़ी बातों को दोहरा कर स्वयं को हावी करने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगो की कोई मौलिक सोच नहीं होती। और इसी कारण ऐसे लोग अपने मत की आलोचना सहन नहीं कर पाते। वे पढ़ी-पढ़ाई एक राय से बंध जाते हैं और अपने मन में चिंतन के लिये कोई जगह छोड़े बिना अपनी सोच के दरवाज़े बंद कर लेते हैं। यदि कोई उनकी इस उधार ली हुई राय से इत्तेफ़ाक नहीं रखता तो उनके पास कहने को अधिक कुछ नहीं बचता।

मेरे विचार में एक वास्तविक बुद्धिजीवी अपनी राय को बदलने के लिये हमेशा तैयार रहता है। वह हमेशा अन्य लोगो की बात सुनता है और उस पर गंभीरता से मनन करता है। वह संसार को केवल अपने ही नहीं वरन अन्य लोगो के दृष्टिकोण से भी देखने की काबलियत रखता है। यदि उसे दूसरे का मत बेहतर लगे तो वह ना केवल उस मत को स्वीकारता है बल्कि उस दूसरे व्यक्ति के प्रति आभार व्यक्त करता है कि उसने उसके ज्ञान को परिष्कृत करने में सहायता की।

वास्तविक ज्ञान और बुद्धि मानव को सहनशील और सम्मिलनशील बनाती है।

आरम्भ में मैं बात कर रहा था अपने सहकर्मियों की जो दिखावे के शिकार थे। मुझे नहीं लगता कि ऐसे व्यक्ति जान-बूझ कर ज्ञानी होने का दिखावा करते हैं। इसके उलट सच यह है कि अपने बुद्धिजीवी होने की धारणा उनके मन में इस तरह बैठ जाती है कि वे इस pseudo-intellectualism के आधार पर स्वयं को दूसरों से बेहतर मानने लगते हैं। अहंकार की भावना को तो बस ऐसी ही स्थिति की तलाश होती है। मैनें इस तरह की भावना में बंधे बहुत-से लोगों को देखा है जिनमें कवि, लेखक, चित्रकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक इत्यादि भी शामिल हैं।

ज्ञान होना, जानकारी होना बहुत अच्छी बात है लेकिन अपने ज्ञान का दिखावा और अहंकार हमारे ज्ञान के परिष्करण में एक बड़ी रुकावट बन कर खड़े हो जाते हैं। चाहे हमारा कुंआ कितना भी बड़ा क्यों ना हो; अंतत: हम कूएं के मेंढक ही रह जाते हैं।

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