सर्वेश सक्सेना समझ नहीं पा रहा है कि आज वैशाली इतना क्यों रोई और वह उससे इतनी नाराज़ क्यों है। लेकिन उसकी अंतरात्मा कारण जानती है और यह भी मानती है कि कारण वाज़िब है।

धनाढ्य पिता की इकलौती संतान होने से जो गुण-दोष किसी में उत्पन्न होते हैं वे सभी सर्वेश में दिखाई देते हैं। पैसे की कोई कमी नहीं है सो उसने पैसा बहाना भी खूब सीखा है। यार-दोस्तों के साथ अक्सर घूमने जाना, अपने खर्चे पर उन्हें सैवन-स्टार होटलों में ठहराना, महंगे से महंगे यातायात के साधनों का प्रयोग, पार्टियों में शराब इत्यादि पर खुल कर खर्चा... शराब... हाँ... इसी शराब के कारण आज वैशाली उससे इतनी नाराज़ है। सर्वेश का मन चाहता है कि किसी तरह सारा दोष शराब पर मढ़ दे। लेकिन मन का भी एक मन होता है और मन का यह मन जानता है कि दोष शराब का नहीं बल्कि ख़ुद सर्वेश का है।

सर्वेश में चाहे जितनी भी बुराईयाँ हों लेकिन दिल से वह एक अच्छा इंसान है। उसकी बुराईयाँ भी कुछ अनोखी नहीं हैं... पिता के पैसे ने उसे संसार को एक बिल्कुल अलग ढंग से देखने और मनमानी करने की छूट बचपन से ही दी हुई है। वह कठोर जीवन से दूर और उसकी वास्तविकताओं से अनजान रहा है। उसके लिये दुनिया में कोई डर नहीं, मर्यादा नहीं, बंधन नहीं, कोई ज़िम्मेदारी नहीं... धन की ताकत ने यह सब उसके जीवन से बहुत दूर कर दिया है। लेकिन फिर भी वह मूल-रूप से एक अच्छा व्यक्ति है -जो सोच सकता है और महसूस कर सकता है। उसकी उम्र 25 के करीब होने को आई है। एक बड़े विश्वविद्यालय से एम.बी.ए. करने के बाद उसने पिता के व्यापार में हाथ बंटाना शुरु तो कर दिया लेकिन बस नाम भर के लिये। पिता ने बार-बार कहा कि वह बिज़नेस के प्रति गंभीर बने लेकिन सर्वेश का मानना था कि अभी उसकी उम्र यह सब करने की नहीं हुई है। शुरु से ही पैसे की अत्यधिक उपलब्धता व्यक्ति को इसी तरह ढाल देती है। जीवन को दिशाहीन और संवेदनहीन बना देती है।

फिर वैशाली ने उसकी ज़िन्दगी में क़दम रखा। किसी फ़िल्म की कहानी की तरह वैशाली एक साधारण, पारम्परिक, भारतीय परिवेश में पली-बढ़ी लड़की थी। उसके परिवार ने जैसे-तैसे करके उसे अच्छी शिक्षा दी और उसी के सुफल से वैशाली एक चार्टेड अकाउंटेंट बन गयी। आज वह एक मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करती है और अपने परिवार के लिये अच्छी आजीविका कमाती है। जब वह सर्वेश से मिली से उसे सर्वेश कोई बहुत अच्छा व्यक्ति नहीं लगा लेकिन सर्वेश को वैशाली की "ऊंची सोच और साधारण जीवन" की बात भा गयी। वह वैशाली के करीब आने लगा। समय के साथ-साथ वैशाली को भी सर्वेश को और भली-भांति जानने का मौका मिला और उसने पाया कि तमाम ऊपरी बुराईयों को बावज़ूद सर्वेश एक अच्छा लड़का था।

सर्वेश को शराब पसंद थी। वह तकरीबन हर रात दोस्तों के साथ पब में जाकर शराब पीता था। वैशाली को सर्वेश की यह आदत बहुत बुरी लगती थी और उसे सर्वेश के स्वास्थ्य की चिंता भी थी। जब वैशाली और सर्वेश की मित्रता उस सीमा को पार कर गयी जब कि दोनो एक दूसरे पर कुछ अधिकार अनुभव करने लगे -तब एक दिन वैशाली ने सर्वेश से वचन लिया कि वह शराब पीना छोड़ देगा। सर्वेश वैशाली का बहुत सम्मान करता था और मन-ही-मन उससे प्रेम भी करने लगा था। इसलिये सर्वेश ने यह वचन देने में ज़रा भी देरी नहीं की और वैशाली का हाथ थाम कर कह दिया कि आज से वह शराब को कभी नहीं छुएगा। वैशाली ख़ुश थी कि उसके कारण सर्वेश कम-से-कम एक बुराई से तो दूर हटा। सर्वेश का इस तरह एक बेहतर इंसान बनना और इस परिवर्तन के होने में वैशाली की भागीदारी; ये दोनो ही बातें वैशाली को बहुत अच्छी लगने लगी थीं और वह भी धीरे-धीरे सर्वेश को प्रेम करने लगी।

इस तरह कई महीने बीत गये। सर्वेश और वैशाली एक दूसरे के बहुत करीब आ गये थे और दोनों बहुत ख़ुश थे।

लेकिन आज वैशाली सर्वेश से बहुत नाराज़ है।

सर्वेश ने वैशाली को वचन दे तो दिया था लेकिन उसने वचन के महत्व को नहीं समझा। उसने जीवन में कोई बंधन या मर्यादा कभी मानी ही नहीं थी। जब तक आसानी से हो सका उसने वचन को निभा दिया लेकिन कल रात जब दोस्तों ने बहुत अधिक ज़िद की तो उसने शराब पी लेने में कोई हर्ज़ नहीं समझा। उसने अधिक नहीं पी और आज सुबह वैशाली से मिलने पर उसे बता भी दिया कि कल रात उसने शराब पी थी। यह सुन कर वैशाली का मन टूट गया। वह रो पड़ी। सर्वेश ने बहुत कहा कि उसने केवल थोड़ी-सी ही शराब पी थी और उसे नहीं लगा था कि वैशाली इस बात का भी बुरा मानेगी। कल रात शराब का गिलास उठाते समय ऐसा नहीं कि सर्वेश अपने दिये वचन को भूल गया था। लेकिन उसके दिमाग़ ने ऐसे-वैसे कई तर्क गढ़ दिये और सर्वेश को विश्वास हो गया कि वह कुछ ग़लत नहीं कर रहा है। यूं तो सामन्यत: उसने पीना छोड़ ही दिया था -लेकिन कभी-कभार पी लेने में क्या हर्ज़ है... यह सोच कर उसने शराब अपने गले के नीचे उतार ली थी।

परेशान और नाराज़ वैशाली को उसके घर छोड़ कर सर्वेश अभी-अभी अपने घर पँहुचा है। अपने बड़े-से ड्राइंग रूम में एक कीमती सोफ़े पर बैठा वह सोच रहा है कि उससे आखिर कहाँ ग़लती हुई है। ड्राइंग रूम में एक बार है। सर्वेश बार-कैबिनेट में रखी शराब की बोतलों को देखे जा रखा है और बोतलें सर्वेश को देख रही हैं।

Character, not brain, will count at the crucial moment
-Rabindranath Tagore

विश्वास एक बहुत नाज़ुक डोर होती है। इसे कभी नहीं तोड़ना चाहिये। अपनी कमज़ोरियों को छुपाने के लिये हमारा दिमाग़ अपने पक्ष में कोई ना कोई तर्क बुन ही लेता है। तर्क करना और स्वयं को सही ठहराना -दिमाग़ इसी काम के लिये बना है -लेकिन भावनाएँ दिमाग़ में नहीं बल्कि मन में रहती हैं। इसी मन में रहता है हमारा चरित्र और हमारी अंतरात्मा। अंतरात्मा का कार्य हमें कचोटना और दिमाग़ के सभी तर्कों के बावज़ूद हमें सही-गलत का अहसास कराना होता है। विश्वास प्रेम की आधारशिला है -इसमें कभी कोई दरार नहीं आने देनी चाहिये। और इस कार्य में सहायता हमारा दिमाग नहीं बल्कि चरित्र करता है।

मेरी कल्पना का एक और रूप। लेकिन मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या ऐसी कल्पना सत्य सिद्ध हो सकती है?

लेखक: ध्रुवभारत (01 फ़रवरी 2007, बृहस्पतिवार, 1:45 सांय)
आवाज़: ध्रुवभारत  


तुम बैठी ऐसी लगती हो
इस घने आम की छाँव में
जैसे कोई पावन मंदिर हो
इक छोटे से गाँव में

बड़ी मनभावन लगती हैं
ये सुंदर प्यारी हथेलियाँ
जैसे प्रेम से सजी हुई हों
दो पूजा की थालियाँ

काजल लगे नयन खिले हैं
ज्यों आने से वसंत नवल के
हैं ज्यों श्याम के चरणों पर
रखे हुए दो फूल कमल के

आरती की घंटियाँ बजें लगती
जब पायल बजती पाँव में

तुम बैठी ऐसी लगती हो
इस घने आम की छाँव में
जैसे कोई पावन मंदिर हो
इक छोटे से गाँव में

उजाला करती मन के अंदर
माथे पर बिंदिया दमकती
नाक का मोती है जैसे कि
दीपों की हो ज्योति चमकती

सुगंध है साँसो में जैसे
पुष्पों ने दिया खजाना खोल
पंखुरी से होंठो से आती
वाणी है ज्यों वीणा के बोल

और मन ऐसा निर्मल है कि
जीते सब कुछ एक दाँव में

तुम बैठी ऐसी लगती हो
इस घने आम की छाँव में
जैसे कोई पावन मंदिर हो
इक छोटे से गाँव में

परीक्षित ने कार को अपने ऑफ़िस की पार्किंग में धीरे-धीरे मोड़ा और उसे निर्धारित जगह पर पार्क कर दिया। कुछ मिनट तक वह यूं ही कार में बैठा शून्य में ताकता रहा और फिर अनमना-सा कार से उतर कर ऑफ़िस की मल्टी-स्टोरी बिल्डिंग की ओर बढ़ गया। ऑफ़िस में अपने कमरे तक पँहुचते-पँहुचते वह करीब आधा घंटा लेट हो चुका था। उसका मन कुछ उदास है और वह काम में किसी भी तरह मन नहीं लगा पा रहा है। सहकर्मियों को आधा-अधूरा-सा "गुड मॉर्निंग" कहते हुए उसने अपने कमरे में प्रवेश किया। कोट उतार कर कुर्सी के पीछे लटकाने के बाद वह थका हुआ सा अपनी कुर्सी में धंस गया। सामने फ़ाइलों का बड़ा-सा ढेर पड़ा उसके ध्यान का इंतज़ार कर रहा था लेकिन परीक्षित का ध्यान जाने कहाँ था।

वह रमोना से कुछ ही महीने पहले मिला था। उस दिन पहली बार जब एक दोस्त के घर पार्टी में उसने रमोना को देखा था तो देखता ही रह गया था। वह खूबसूरत तो थी ही -साथ ही साथ एक सुलझे हुए व्यक्तित्व की स्वामिनी भी थी। प्रोफ़ेशनल फ़ैशन डिज़ाइनर के तौर पर एक जानेमाने ब्रैंड के लिये काम करने वाली रमोना खुले विचारों वाली लड़की थी। उसकी जीवनशैली को हर तरह से आधुनिक कहा जा सकता था। महानगर में एक शानदार फ़्लैट, काले रंग की एक बड़ी चमचमाती कार, डिज़ाइनर कपड़े, अक्सर पार्टीयों में शिरकत, शराब और सिगरेट -ये सब रमोना के जीवन का हिस्सा थे। लेकिन ऐसा नहीं था कि रमोना केवल बाहरी चमक-दमक से भरी एक आधुनिक लड़की थी। वह कुशाग्र और बुद्धिमान थी; कला और पढ़ने-लिखने में भी गहरी रुचि रखती थी। उसे संबंधों पर विश्वास भी था। रमोना के साथ घंटो बाताचीत की जा सकती थी और व्यक्ति बोर नहीं होता था। पार्टी में मुलाकात के बाद से रमोना और परीक्षित अक्सर मिलने लगे थे। जल्द ही वे दोनो अच्छे दोस्त बन गये और फिर उससे भी जल्दी उन्होनें पाया कि वे एक दूसरे से प्रेम करने लगे थे।

परीक्षित पिछले कुछ महीनों से बहुत खुश था। उसकी ज़िन्दगी में जो एक भयानक खालीपन था वह रमोना के आने से भर गया था। जो दिनचर्या उसे पहले बोझल लगती थी अब उसी दिनचर्या में कुछ चीज़ें ऐसी थी जिनका उसे इंतज़ार उसे बेसब्री से रहता था; जैसे कि सुबह उठते ही रमोना के गुड मॉर्निंग वाले एस.एम.एस. का आना, दिन में दो-तीन बार रमोना से फ़ोन पर बातचीत और रात को सोने से पहले भी एक बार ज़रूर बात होना... परीक्षित को लगने लगा था कि अब वह अकेला नहीं है। वह और रमोना एक दूसरे को पसंद करने लगे और और उन्होनें विवाह-सूत्र में बंधने का निर्णय कर लिया था।

परन्तु शीघ्र ही परीक्षित को कभी-कभी लगने लगा कि रमोना शायद उसके उतने निकट नहीं है जितना वह समझता है या चाहता है कि रमोना उसके उतना निकट हो। परीक्षित के मन में यह कोई स्थायी भावना नहीं है; बस कभी-कभार ही उसे ऐसा लगता है। उसे लगता है कि रमोना के लिये ज़िन्दगी में उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बहुत-सी चीज़े हैं और उन चीज़ों के कारण रमोना कभी-कभी परीक्षित की उपेक्षा कर देती है।

ऑफ़िस की अपनी कुर्सी पर बैठा आज भी वह उन्हीं चीज़ों के बारे में सोच रहा है। वह जानता है कि रमोना के लिये कैरियर महत्वपूर्ण है... परीक्षित स्वयं भी रमोना के कैरियर में बहुत दिलचस्पी लेता है और उसे आगे बढ़ने में हर संभव सहायता करता है। कैरियर के कारण तो शायद रमोना उसकी उपेक्षा नहीं करेगी। तो फिर क्या ऐसा उसकी जीवनशैली के कारण है?... या फिर अब संसार में संबंध वाकई उतने गहरे नहीं रह गये हैं जितना गहरा परीक्षित उन्हें समझता है और चाहता है कि वे उतने गहरे हों?... या फिर शायद रमोना से उसकी अपेक्षाएँ बहुत अधिक हैं।

"आप किसी को कितना प्यार, सम्मान और देख-रेख देते हैं यह तो आप निश्चित कर सकते हैं; लेकिन कोई आपको यह सब कितना देगा यह सुनिश्चित कर पाना आपके हाथ में नहीं होता", लम्बे सोच-विचार के बाद निष्कर्ष-प्राप्ति पर ली जाने वाली गहरी सांस लेते हुए परीक्षित ने सोचा और फ़ाइलों के ढेर पर सबसे ऊपर रखी फ़ाइल को उठा लिया।

"प्रेम तो देने का नाम है अपेक्षा करने का नहीं", यह सोचते हुए उसने फ़ाइल को पढ़ना शुरु कर दिया। उसके मन में रमोना के लिये प्यार का एक विशाल सागर छलक रहा था।

प्यार किसी को करना लेकिन, कह कर उसे बताना क्या
अपने को अर्पण करना पर, और को अपनाना क्या
त्याग अंक में पले प्रेम शिशु, उन्हें स्वार्थ बताना क्या
देकर हृदय, हृदय पाने की, आशा व्यर्थ लगाना क्या
-- हरिवंशराय बच्चन

विदेश में एक शाम झील किनारे बैठे हुए जो मैनें अनुभव किया उसे इस रचना में लिख दिया।

लेखक: ध्रुवभारत
3 मार्च 2007 को लिखित

हे झील
मुझे क्षमा करना
आज तुम्हारे पानी को
मैनें जो पत्थर मारा था
वह मेरा क्रोध नहीं
बल्कि मेरी हताशा थी
तुम्हारे किनारे बैठा मैं
बोलता रहा
मन की सब गांठे
आगे तुम्हारे खोलता रहा
पर उन वृक्षों की तरह
और उस गगन की तरह
तुम भी कुछ नहीं बोली
सुनती रहीं तुम
पता नहीं तुमने
सुना भी या नहीं
क्या मेरा साथ देना
मुझसे कुछ कहना
तुम्हारा कर्तव्य नहीं था?
तुम्हें मित्र जान कर ही तो
मैनें सब कहा था
पर तुम कुछ नहीं बोली
तुमने भी मुझे
अकेला छोड़ दिया

और ना जाने
कब वो पत्थर
मेरे हाथ से छूटा
तुम पर से विश्वास टूटा
मन मेरा हताश हुआ
पत्थर ने तुम्हें छुआ
तुम्हें चोट तो लगी होगी
दर्द तो तुम्हें हुआ होगा
मेरी तो तुम मित्र हो
दर्द दिया तुम्हें मैनें
जबकि
चाहिये था मुझे
दुख तुम्हारा हरना
हे झील
मुझे क्षमा करना

आज लिखने बैठा तो जो लिखा उसने कुछ-कुछ कहानी जैसा रूप ले लिया।

ऊपर की शेल्फ़ पर रखे टिन के एक छोटे-से डिब्बे को दीपा ने उतारा और उसमें से बहुत संभालकर दो सौ रुपये निकाले। डिब्बे में बस इतने ही रुपये थे। ऐसा डिब्बा हर विवाहिता स्त्री के पास होता है जिसमें वह घर की आमदनी से बचाकर कुछ पैसे इकठ्ठे करती है ताकि यह पैसे मुश्किल पड़ने पर उपयोग किये जा सकें। पुरुष में यह हुनर नहीं होता और इसीलिये अक्सर कहा जाता है कि घर की बरकत स्त्री के हाथ में ही होती है।

दीपा को यह रुपये रमेश ने दो महीने पहले करवाचौथ पर उपहार में दिये थे। वह दीपा को साथ ले जाकर इन रुपयों से दीपा के लिये उसकी पसंद की साड़ी खरीदना चाहता था। लेकिन दीपा ने रुपये लेकर कहा कि अभी उसके पास दो साड़ियां हैं और वह ज़रूरत पड़ने पर इन रुपयो से कुछ महीने बाद एक और साड़ी खरीद लेगी।

रमेश पास की एक फ़ैक्ट्री में मैकेनिक का काम करता है। पगार के नाम पर बस इतने ही पैसे मिलते हैं कि घर का खर्च बड़ी मुश्किल से चल पाता है। साइकिल ना होने के कारण रमेश फ़ैक्ट्री आने-जाने के लिये रोज़ तीन किलोमीटर चलता है पर अपने लिये साइकिल नहीं खरीद पाता। फिर भी दो-दो चार-चार रुपये करके वह भी अपने पास थोड़े पैसे जमा करता रहता है ताकि दीपा के लिये कभी-कभार कोई उपहार खरीद सके। ये दो सौ रुपये इसी तंग हाथ से पैसे खर्च करने की आदत का नतीजा थे। वरना दो सौ रुपये की जमापूंजी इस दम्पत्ति के लिये एक सुखद सपने जैसी बात ही है।

दीपा भी इस तंगहाली में जीवन की गाड़ी को आगे बढा़ने में रमेश की मदद करती है। घर में हाथ से चलाई जाने वाली एक सिलाई मशीन है। मोहल्ले के लोग कमीज़, ब्लाउज़, बच्चों की निक्कर जैसे कपड़े दीपा से ही सिलवा लेते थे। लेकिन अब ऐसा काम बस कभी-कभार ही मिल पाता है। लोग अब ज़्यादा पैसा देकर दुकान वाले दर्ज़ियों से फ़ैन्सी स्टाइल के कपड़े बनवाना अधिक पसंद करते हैं। हमारा मध्यम-वर्ग अब बदल रहा है। कभी-कभार मिले सिलाई के ऐसे कामों से दीपा को जो पैसा मिलता है उसे वह एक गुल्लक में इकठ्ठा करती रहती है और उसने प्रण किया है कि इसका उपयोग बस किसी आपात स्थिति में ही करेगी।

रमेश आज सुबह जल्दी ही फ़ैक्ट्री चला गया। आजकल फ़ैक्ट्री में काम कुछ ज़्यादा है इसलिये ओवरटाइम करने का अवसर मिल रहा है और रमेश खुश है कि कुछ अतिरिक्त पैसे इस महीने मिल जाएगें। उधर दो सौ रुपये हाथ में लिये दीपा भी बहुत खुश है। उसने घर का काम जल्दी-जल्दी निपटाया था। एक निक्कर सीलनी थी -वह भी फ़टाफ़ट सील कर पड़ोसन को दे आयी थी। उसे इस काम के 15 रुपये मिले और उसने ये रुपये बाकयदा गुल्लक में डाल दिये। फिर दीपा जल्दी-जल्दी नहा-धोकर तैयार हुई। सुबह के दस बज चुके थे और आज उसे एक बहुत ज़रूरी काम करना था।

साढे़-दस बजे दीपा पास की मार्केट में एक कपड़े वाले की दुकान पर थी और दुकानदार उसे सूती कपड़ों के थान खोल-खोलकर दिखा रहा था। दीपा की नज़रें ऊपर की अलमारियों में लगे महंगे कपडों पर थी और उसे एक हल्के नीले रंग का कपड़ा बहुत भा रहा था। लेकिन दुकानदार ने उसका भाव बहुत अधिक बताया। दीपा इतने पैसे नहीं दे सकती थी -उसके पास तो केवल दो सौ रुपये थे। आखिरकार बड़े अच्छे-से जांच-परख कर दीपा ने एक स्लेटी रंग का कपड़ा खरीद लिया और उसके लिये 170 रुपये चुका दिये। कपड़ा कोई बहुत अच्छा नहीं था लेकिन उसके पास बस इतने ही पैसे थे। कपड़ा खरीद कर दीपा बहुत खुश थी। फिर वह एक और दुकान पर गयी जहाँ से उसने उसी स्लेटी रंग का धागा और कुछ मैचिंग बटन खरीदे।

बारह बजे तक दीपा सब सामान लेकर घर आ गयी थी और आते ही उसने कपड़े की कटाई शुरु कर दी। लगातार काम करते हुए उसने दोपहर का खाना भी नहीं खाया। उसे यह काम शाम से पहले ही पूरा करना था। शाम पाँच बजे तक स्लेटी रंग का कपड़ा एक कमीज़ की शक्ल ले चुका था। अगले मोहल्ले में इस्त्री करने वाले का ठीया था। दीपा दौड़ी-दौड़ी वहाँ गयी और कमीज़ को दो रुपये दे कर इस्त्री करवा लाई। इस्त्री जैसी चीज़ों पर खर्च करने के लिये इस युगल के पास पैसे नहीं थे। लेकिन यह नई सिली कमीज़ ख़ास है। इस पर अब के बाद शायद कभी इस्त्री नहीं होगी लेकिन आज तो दीपा इसे जितना अच्छा हो सके उतना अच्छा बना देना चाहती थी। दो सौ रुपये के अंदर दीपा ने शाम छह बजे तक कमीज़ तैयार कर दी थी। आज उसके पांवों में एक थिरकन-सी है। दीपा बहुत खुश है। शाम के खाने के लिये दाल पकाते हुए जाने क्या सोच-सोच कर मुस्कुरा रही है, गुनगुना रही है।

सवा-सात बजे के करीब रमेश थका-हारा घर पँहुचा। वह सुबह छह बजे ही फ़ैक्ट्री के लिये घर से निकल गया था। घर आते ही वह एक पटरी लेकर स्टोव के पास बैठ गया। दीपा ने स्टोव पर चाय का पानी चढ़ा दिया था और वहीं बैठी थी।

"दीपा, आज तो फ़ैक्ट्री में बस पूछो मत कितना काम था। शरीर टूट रहा है। पर अच्छा है, कुछ अतिरिक्त पैसे मिल जाएंगे इस महीने। फिर घर के दरवाज़े को ठीक करवा लेंगे। अब तो बस नाम का ही दरवाज़ा रह गया है -जाने कब गिर जाये। अच्छा तुम्हारा दिन कैसा रहा?", रमेश ने एक चम्मच से स्टोव पर चढी चाय को हिलाते हुए कहा।

"दिन बहुत अच्छा रहा। लेकिन मुझे तुम्हारा इतनी अधिक मेहनत करना अच्छा नहीं लगता। ये ओवरटाइम करना कोई ज़रूरी तो नहीं"

"ज़रूरी तो नहीं है, लेकिन दीपा मेहनत तो करनी ही पड़ती है। तुम भी तो कितनी मेहनत करती हो। मैं तो कहता हूँ कि तुम ये सिलाई के काम मत लिया करो। सारा दिन घर संभालती हो वो क्या कम है"

"सिलाई का काम अब मिलता ही कहाँ है, महीने में मुश्किल से एक-दो कपड़े सीलने के लिये मिलते हैं"

उनके इसी तरह बातें करते-करते चाय तैयार हो गयी। दीपा ने स्टील के दो गिलासों में थोड़ी-थोड़ी चाय डाली और एक गिलास रमेश को दे दिया। वे वहीं स्टोव के पास बैठे हुए बातें करते-करते चाय पीने लगे। रोज़ शाम को दीपा के साथ बैठ कर चाय पीने के इन कुछ मिनटों में कुछ ऐसा असर था कि रोज़ ही रमेश की सारे दिन की थकान इन्हीं पलों में छू-मंतर हो जाती थी। दीपा की आंखों में छांक कर उसे असीम सुकून मिलता था।

रमेश आराम से बातें करते हुए धीरे-धीरे चाय की चुस्किया ले रहा था। दीपा ने अपनी चाय खत्म करके गिलास बर्तन मांजने की जगह पर रख दिया। फिर वह उठ कर अंदर के कमरे में गयी और आज उसने जो कमीज़ सीली थी उसे ले आई। वापस रमेश के पास बैठते हुए उसने वह कमीज़ पटरी पर बैठे रमेश की गोद में रख दी।

"ये कमीज़ तुम्हारे लिये है", दीपा ने कहा

"मेरे लिये? लेकिन..."

"अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। मैं खरीद कर नहीं लाई हूँ... मैनें खुद सीली है।", दीपा ने मुस्कुराते हुए कहा

"ओह दीपा!...", रमेश ने चाय का गिलास एक ओर रख कर कहा और दीपा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उसे अपने कांधे पर टिका लिया। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे, बस वह दीपा के बालों को प्यार से सहला रहा था।

"लेकिन तुम्हारे पास कपड़ा खरीदने के पैसे कहाँ से आये?", कुछ पल बाद रमेश ने पूछा

"ये सब छोड़ो... पहले ये बताओ कि कमीज़ कैसी लगी"

"तुम्हारा उपहार मुझे कैसा लगेगा?... कुछ कहने को शब्द नहीं मिल रहे हैं दीपा। तुम्हें मेरा कितना ख्याल है और मैं तुम्हारे लिये कुछ नहीं..."

दीपा ने रमेश के होठों पर अपनी उंगली रख दी थी।

"तुम मुझे मिले हो क्या इससे अधिक खुशी और सौभाग्य की बात मेरे लिये कुछ और सकती है?", दीपा ने पूछा

"लेकिन तुमने इस कमीज़ के लिये अपनी गुल्लक से पैसे क्यों...", कहते हुए रमेश रुक जाता है और फिर उसके चेहरे पर अविश्वास और गहन प्रेम के मिले-जुले से भाव उभर आते हैं। उसने दीपा के चेहरे को अपने दोनो हाथों में लेते हुए कहा

"कहीं तुमने वो दो सौ रुपये..."

अब तक रमेश की आंखें भर आयीं थी। उसने दीपा को कस कर गले से लगा लिया। उसे पता था कि दीपा को पिछले तीन वर्ष से एक भी नई साड़ी नहीं मिली थी। रमेश के पास भी बस तीन कमीज़े थी जो अब टांके लग-लग कर जर्जर हो चली थी। दीपा ने उपहार में मिले उन दो सौ रुपयों में अपना प्यार मिला कर उन्हें अमूल्य कर दिया था। दुनिया का कोई भी कपड़ा आज दीपा की बनाई इस सूती स्लेटी कमीज़ का मुकाबला नहीं कर सकता था। प्रेम की भावना बहुत महान होती है और अगर उसमें त्याग की भावना मिल जाये तो वह ईश्वर हो जाती है। इस क्षण रमेश को लग रहा था कि उसकी बाहों में दीपा के रूप में स्वयं ईश्वर ही हैं। वह उस भावना के समक्ष नत-मस्तक हो जाना चाहता था। दीपा के त्यागपूर्ण प्रेम की विशालता के सामने वह अपने को बहुत सूक्ष्म अनुभव कर रहा था। लेकिन इस सूक्ष्मता ने उसे इतनी प्रसन्नता दी कि उसकी आंखे छलछला उठी...

अगले दिन रमेश वही कमीज़ पहन कर फ़ैक्ट्री की ओर जा रहा था। उसे लग रहा था कि जैसे इस कमीज़ से छन कर दीपा की हथेलियों की कोमलता और गर्माहट उसके शरीर तक पँहुच रही है। कमीज़ दीपा के प्यार से महक रही थी... और रमेश के चेहरे पर दीपा के प्यार की दमक थी।

उपकार

उपकार मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्मों में से एक है। क्यों भला?... इसके मैं कोई 25-30 कारण तो गिना ही सकता हूँ लेकिन यहाँ सबका बयान नहीं करूंगा। इस फ़िल्म के पसंद आने का सबसे पहला कारण तो शायद यह है कि इसमें मनोज कुमार मुख्य पात्र की भूमिका में हैं। मनोज कुमार द्वारा निभाये गये चरित्रों से मैं कहीं ना कहीं जुड़ाव महसूस करता हूँ। और उन चरित्रों के मुकाबिले जो मैं नहीं हूँ वह मैं हमेशा से ही बनना चाहता हूँ। सो यह कहा जा सकता है कि मनोज कुमार द्वारा अभिनीत चरित्र मेरे बचपन से ही मेरे "हीरो" रहें हैं। उपकार मुझे पसंद है क्योंकि:

1) जैसा कि मैनें कहा, मनोज कुमार द्वारा मुख्य पात्र की भूमिका का निभाया जाना व्यक्तिगत-रूप से मेरे कारण नम्बर एक है। इस पात्र का नाम "भारत" है। क्या अब आपको पता चला कि ध्रुवभारत में "भारत" कहाँ से आया है? :-) भारत एक आदर्शवान, मेहनती, ईमानदार, पढ़ा-लिखा, नौजवान किसान है जो अपने जीवन के कर्तव्य को समझता है। वह पैसे के लालच में खेती-बाड़ी छोड़कर शहर नहीं जाता क्योंकि उसे इस बात का अहसास है कि यदि हर किसान शहर चला जाएगा तो फिर अनाज की पैदावार नहीं हो सकेगी। भारत के चरित्र में मानवता है, भावनाएँ हैं और प्यार है... और शायद एक अच्छा इंसान होने के लिये इतना काफ़ी है।

2) यह एक मसाला फ़िल्म नहीं है बल्कि काफ़ी अर्थपूर्ण फ़िल्म है। साधारण भाषा में सरल और रोचक संवादों के ज़रिये बहुत से सामाजिक संदेश उस जनता तक पँहुचाने की कोशिश की गयी है जो इस फ़िल्म को देखने सिनेमा तक गई। परिवार-नियोजन का महत्व, "जय जवान जय किसान" के नारे का महत्व, किसानों को कालाबाज़ारी से बचने की सलाह इत्यादि कितने ही संदेश यह फ़िल्म जनता तक पहुँचाती है। आजकल अर्थपूर्ण और संदेशवाहक फ़िल्में तो लगता है बननी ही बंद हो गयी हैं।

3) यह एक सीधी-सादी सरल फ़िल्म है। एक साधारण-से गांव के साधारण-से जीवन पर बनी एक कहानी। मुझे ऐसी फ़िल्मे अच्छी लगती हैं जिनमें शहरी चमक-दमक की जगह हमारे गांवों की मिट्टी की खुशबू और सरलता हो। यदि कोई इस फ़िल्म के हल्के-फुल्केपन में छुपी गहरी दार्शनिकता को समझ सके तो बढ़िया लेकिन अधिकतर लोग इसे melodramatic और intellectually-shallow फ़िल्म ही कहेंगे।

4) लोगों ने आजकल आदर्श रखना और निभाना दोनो ही छोड़ दिये हैं। लेकिन यह कहानी दर्शाती है कि चाहे खरगोश तेज़ी से प्रगति करता दिखाई दे लेकिन कछुए की निरन्तरता का आदर्श अंतत: उसे विजय दिला ही देता है। Nice guys don't finish last.

5) इस फ़िल्म का गीत-संगीत बहुत ही मधुर और आत्मा को छू लेने वाला है। जहाँ एक ओर "क़स्में वादे प्यार वफ़ा सब" जैसा दर्द-भरा और दार्शनिक गीत है तो वहीं "आई झूम के बसंत" जैसा गीत भी है जिस पर मन थिरकने लगता है। "मेरे देश की धरती" तो देशभक्ति के गीतों में हमेशा अग्रणी रहा है। "दीवानों से ये मत पूछो" और "हर ख़ुशी हो वहाँ" दुख और असहाय होने के भावों को बड़ी ही शिद्दत से प्रस्तुत करते हैं।

6) गांव के जीवन की सरलता में जो हास-परिहास और अपनापन घुला होता है उसको भी यह फ़िल्म बखूबी उभारती है। सोम-मंगल, उनके बापू, प्यारी, लखपती और टुनटुन द्वारा निभाये गये किरदार पूरी फ़िल्म को जीवंत बनाये रखते हैं और उसे कहीं भी उबाऊ नहीं होने देते।

7) इस फ़िल्म का अंत भी मुझे बहुत पसंद है। इसका अंत ख़ुशनुमा है। अधिकांश ख़ुशनुमा अंत वाली फ़िल्मों में अगर किसी कारण से हीरो अपाहिज हो जाता है तो फ़िल्म के ख़त्म होते-होते हीरो पूरी तरह ठीक हो जाता है। और फ़िल्म ज़िन्दगी को परफ़ेक्ट दिखाते हुए समाप्त होती है। इस फ़िल्म में भारत के दोनो हाथ हमेशा के लिये कट जाते हैं लेकिन फ़िल्म यह दिखाते हुए समाप्त होती है कि कविता (फ़िल्म की नायिका: आशा पारेख) ने इसके बावज़ूद भारत का साथ नहीं छोड़ा। भारत को अपने भाई पूरण (प्रेम चोपड़ा) के रूप में अपने दोनों हाथ मिल गये थे। पूरण ने अपनी सभी बुराईयों से तौबा करते हुए गांव वापस आना और अपने खेतों में हल चलाने का निर्णय कर लिया था। भारत को कविता का मिल जाना बहुत दिलचस्प है क्योंकि वास्तविक ज़िन्दगी में इससे मुख़्तलिफ़ बातें अधिक होती हैं। विकलांगता वास्तविक संसार में (कमोबेश) अभिशाप की तरह है और विकलांग व्यक्ति को व्यहवारिक तौर पर समाज से बाहर ही रखा जाता है। ऐसा होता है लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिये। फ़िल्म के ख़त्म होने पर सिनेमा-हॉल से बाहर जाने की जल्दी के चलते शायद अधिकतर लोग इस संदेश को ना तो देखते होंगे और ना ही इसे तरजीह देते होंगे। हालांकि मेरे विचार में यह भी इस फ़िल्म द्वारा दिया जाने वाला एक महत्वपूर्ण संदेश है।

हालांकि अधिक समय नहीं हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि इस रचना को लिखे हुए एक अरसा बीत गया है।

लेखक: ध्रुवभारत
28 फ़रवरी 2008 को लिखित

तुम कल्पना साकार लगती हो
नभ का धरा को प्यार लगती हो

फ़सल भरे खेतों के पार
हो उड़ती चिड़ियों की चहकार
ग्रीष्म उषा की ठंडी बयार
सावन बूंदो की बौछार

हो खिली सर्दी की धूप सुहानी
मधु-ऋतु का सिंगार लगती हो

नभ का धरा को प्यार लगती हो

कर्म, वाणी और मन में
सुमन हो शूलों के इस वन में
आस्था प्रेम की तुम आशा हो
पूर्ण सौन्दर्य की परिभाषा हो

जीवन के सूने मंदिर में
तुम ईश का सत्कार लगती हो

नभ का धरा को प्यार लगती हो

जीवन का शुभ शगुन हो
मीठी-सी कोई धुन हो
हर पल की तुम हो मनमीता
करती जीवन-वीणा संगीता

मुझ-सा कहाँ तुम्हे पाएगा
तुम खुशियों का संसार लगती हो

नभ का धरा को प्यार लगती हो

किनारे संग नदिया है रहती
कली मधुप से यही है कहती
जीवन रंगो से भर जाता
जब साथ कोई है साथी आता

किन्तु हमेशा जो रही अनुत्तरित
तुम मेरे मन की पुकार लगती हो

तुम कल्पना साकार लगती हो
नभ का धरा को प्यार लगती हो

कल अखबार में पढ़ा कि Slumdog Millionaire में लतिका का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री फ़्रीडा पिंटो को "नन्ही कली फ़ाउंडेशन" ने विश्व की 101 सबसे अधिक Impressive and Accomplished Women की सूची में शामिल किया है। यह संस्था बालिकाओं के उत्थान के लिये कार्य करती है। इस सूची में फ़्रीडा के अलावा चैरी ब्लेयर, शबाना आज़मी, सानिया मिर्ज़ा, इंदिरा नूयी, नैना लाल किदवई, नीता अम्बानी, सुष्मिता सेन, विद्या बलान, प्रियंका चोपड़ा और नंदिता दास के नाम भी शामिल हैं।

शोहरत की नज़र से देखा जाये तो शायद फ़्रीडा का इस सूची में होना ठीक माना जा सकता है। लेकिन फ़्रीडा ने आज तक केवल एक फ़िल्म में काम किया है। इस फ़िल्म ने संसार भर में धूम मचा दी तो इसके पीछे बहुत से कारक थे -और मेरे विचार में फ़्रीडा उनमें से एक नहीं थी। लेकिन फिर भी भाग्य देखिये कि आज फ़्रीडा की शोहरत कहाँ से कहाँ आ पँहुची है। एक अभिनेत्री के तौर पर अभी फ़्रीडा को अपने को साबित करना बाकी है।

चाहे फ़्रीडा कितनी भी मशहूर क्यों ना हो जायें लेकिन इस सूची में उनका शामिल होना बहुत अखरता है। आप उन्हें विश्व की सबसे खूबसूरत महिलाओं की सूची में शामिल कीजिये तो यह उचित ही होगा। लेकिन बालिकाओं के उत्थान के लिये काम करने वाली एक संस्था द्वारा फ़्रीडा को सबसे अधिक Impressive and Accomplished Women की सूची में शामिल किया जाना कुछ जमा नहीं। ये वही फ़्रीडा हैं जिन्होनें पैसा और शोहरत मिलते ही अपने मंगेतर, रोहन, से सगाई तोड़ कर उसे छोड़ दिया था। तब इन्होनें रोहन से, जो कि इनके साथ आठ वर्षों से था, कहा था कि अब इनके सामने एक सुनहरा अवसर है और वे इसका लाभ नहीं उठा सकेंगी अगर वे रोहन के साथ "बंधी" रहेंगी। अवसरवाद के समक्ष नैतिकता और प्रेम का कुछ भी मोल फ़्रीडा ने नहीं लगाया था। बाद में वे अपनी तरह मशहूर और कामयाब अभिनेता देव पटेल के साथ दिखाई देने लगीं। नये ज़माने की कामयाब लड़कियों के लिये ऐसी बातें शायद असाधारण ना हों लेकिन जिस व्यक्ति में इतनी भी नैतिकता हो तो ऐसा व्यक्ति और चाहे जो हो जाये लेकिन एक अच्छा इंसान नहीं हो सकता। मेरे ख़्याल में बालिकाओं के उत्थान की बात करने वाली संस्था को इस प्रसंग पर विचार कर लेना चाहिये था।

लकड़ी की एक छोटी-सी खूंटी सड़क की बीचो-बीच गड़ी है और एक नेवला करीब एक मीटर लम्बी, पतली-सी, पुरानी रस्सी से इस खूंटी के साथ बंधा। किसी बेचैनी में नेवला खूंटी के चारों ओर गोल-गोल घूम रहा है मानो अपने लिये कोई काम दिये जाने की खातिर उतावला हो। बड़ी-सी गिलहरी जैसा लगने वाले भूरे रंग के इस जीव की चाल तेज़ और फुर्तीली होती है। वहीं नेवले के पास ही आदमी नाम का एक और जीव खड़ा है। उसने टखनों तक आती तहमद के ऊपर एक मैला गेरुए रंग का कुर्ता पहना है। सर पर एक अजीब-से ढंग से बंधी पगड़ी है। उसके हाथ में एक गोल पिटारी है और वह अपने आस-पास कुछ मीटर की दूरी पर खड़े 8-10 नौजवानों और बच्चों से कह रहा है:

"बाबू साहब, इस पिटारी में एक नाग है। नेवले और नाग का बैर जनम-जनम का बैर है। ये एक दूसरे को देखते ही मारने को दौड़ते हैं। आज आप एक ऐसी लड़ाई देखेंगे जैसी आपने कभी न देखी होगी। एक तरफ़ ये फुर्तीला नेवला है और दूसरी तरफ़ ये भयंकर नाग"

सांप की पिटारी अपनी हथेली पर टिकाये बोलने वाला यह आदमी एक संपेरा है। पिटारी अभी भी बंद है और इसके अंदर किनारे-किनारे एक सांप कुंडली मारे बैठा है। संपेरे ने पिटारी वाला हाथ अपने शरीर से दूर करके पिटारी का ढक्कन धीरे-धीरे ऐसे उठाया जैसे कि सांप बस अभी निकल कर उसे डस लेगा। संपेरे ने ढक्कन हटा कर एक ओर रखी अपनी पोटली पर उछाल दिया। पिटारी खुल गयी है लेकिन कोई सांप बाहर नहीं निकला। संपेरे ने अपने दाहिने हाथ को पिटारी में डाला और "भयंकर नाग" के नाम पर एक छोटा-सा पतला-सा सांप पूंछ से पकड़ कर धीरे-धीरे पिटारी से बाहर निकाला और उसे पूंछ से पकड़ कर हवा में लटका लिया। बल खाता हुआ सांप ऊपर की ओर उठता है और फिर अपने ही वज़न के कारण थक कर फिर नीचे की ओर चला जाता है। सांप को देखकर आस-पास खड़े नवयुवकों में सरसराहट दौड़ जाती है। अब संपेरा फिर से कुछ कह रहा है:

"साहेबान, ये नाग बड़ा खतरनाक है। इसका काटा पानी नहीं मांगता। लेकिन आप लोग डरिये मत और आराम से अपनी-अपनी जगह खड़े रहिये। ये आप लोगो को कुछ नहीं कहेगा। मैनें इसका ज़हर निकाल दिया है और दांत भी तोड़ दिये हैं"

संपेरे की बात सुन कर भी नवयुवक काफ़ी असहज हैं और वे सब दो-तीन फ़ुट और दूर हट जाते हैं। संपेरा अब सांप को ज़मीन पर थोड़ा-सा टिकाता है और रस्सी से बंधा नेवला तुरंत सांप के पास आ धमकता है। सांप नेवले से दूर हटने की कोशिश करता है। संपेरा उसकी पूंछ देता है और उसे पूरा ज़मीन पर गिरा कर स्वयं दूर हट जाता है। सांप की सारी उम्मीदें स्वाहा हो जाती हैं। वह बड़ा शिथिल-सा ज़मीन पर पड़ा हुआ है। अपने "जन्मजात दुश्मन" नेवले को देखकर भी उसके अंदर कोई हरकत नहीं है। उसने अपने को भाग्य के सहारे छोड़ दिया है। नेवला सांप के चारों तरफ़ घूमता है और फिर अचानक उसने बड़ी फुर्ती के साथ सांप के मुंह को अपने पैने दांतो में दबोच लिया। सांप दर्द से बिलबिला गया और उसने नेवले के चारों ओर खुद को लपेट कर कुंडली बना ली। लेकिन नेवले को इस कमज़ोर-सी कुंडली के दबाव से कोई असर नहीं पड़ा। उसने सांप के मुंह को काटना शुरु कर दिया। तभी संपेरा आगे बढ़ा। उसने नेवले को दूर हटा कर सांप को पूंछ से पकड़ कर फिर हवा में उठा लिया और सबको उसे दिखा-दिखा कर उसके ज़ख़्म की नुमाइश करने लगा। नेवला नीचे से कूद-कूद कर हवा में उठे हुए सांप तक पँहुचने की कोशिश में लगा है। नुमाइश के बाद संपेरे ने सांप को फिर से ज़मीन पर रख दिया। ज़मीन पर आते ही सांप ने जितना हो सकता था उतनी तेज़ी से भागना शुरु किया। नेवला उसके पीछे दौड़ा लेकिन इससे पहले कि वह सांप को पकड़ पाता उसके गले में बंधी रस्सी तन गयी और वह आगे ना बढ़ सका। सांप बस एक सेकेंड के रहते हुए नेवले की पंहुच से बाहर निकल गया। नेवले ने ज़ोर लगाया लेकिन रस्सी से ना छूट सका। सांप बच गया था और तेज़ी से दूर भाग रहा था। पर तभी संपेरा आगे बढ़ा और उसने दूर जाते सांप को फिर से पूंछ पकड़ कर उठा लिया और उसे वापस नेवले के दायरे में लाकर ज़मीन पर रख दिया। नेवले ने तुरंत ही सांप का मुंह फिर से दबोच लिया और उसे काटने लगा। असहाय सांप तड़पने और बल खाने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा था। आस-पास घेरा बना कर खड़े युवक इस "लड़ाई" का आनंद ले रहे थे।

सांप अब बुरी तरह घायल हो चुका है और उसने विरोध करना बिल्कुल छोड़ दिया है। नेवला अपनी मर्ज़ी से उसे जहाँ-तहाँ काट रहा है। लेकिन अचानक सांप को फिर से मौका मिला और उसने खुद को नेवले की ज़द के बाहर पाया। इस उम्मीद में कि अब शायद बच जाए घायल सांप में जितनी शक्ति बची थी उसका प्रयोग करते हुए उसने नेवले से दूर रेंगना शुरु किया। इस पर संपेरे ने नेवले की रस्सी खोल दी। बस फिर क्या था नेवला आगे बढा़ और उसने रेंगते हुए सांप को दबोच कर मार डाला। मरा हुआ सांप अब ज़मीन पर उल्टा पड़ा था और उसके शरीर के नीचे का सफ़ेद हिस्सा ऊपर की ओर हो गया था। संपेरा फिर कुछ कह रहा है:

"देखा आपने साहब, कैसी भयंकर लड़ाई हुई! यह नाग बड़ा ही भयंकर था लेकिन इस नेवले ने लम्बी लड़ाई के बाद आखिर जीत हांसिल कर ही ली। नाग हार गया और मारा गया"

आस-पास खड़े युवकों के चेहरे खिले हुए थे। उन्हें ऐसा लग रहा था की "भयंकरता" हार गयी थी। संपेरे ने सभी युवकों से पैसे इकठ्ठे करने शुरु किये, "अरे साहब मैनें एक सांप खोया है। कुछ तो ख्याल कीजिये"। संपेरे ने जितने हो सकते थे उतने पैसे इकठ्ठे किये और अपनी पोटली समेटने लगा। तमाशबीन भी अपनी-अपनी राह चल दिये। संपेरे ने पोटली को कंधे पर टांगा और नेवले की रस्सी एक हाथ में पकड़ ली। दूसरे हाथ से मरे सांप को उठाया और संपेरा चल दिया। मैं कह नहीं सकता कि क्या संपेरा उस मरे सांप को रास्ते में आने वाले किसी कूड़े के ढेर पर फ़ेक देगा या फिर सांप का यह मृत शरीर आज रात नेवले का भोजन बनेगा।

विश्व में कितनी क्रूरता है। जंगलों में यदि ऐसी लड़ाईयाँ हों तो उसे प्रकृति का खेल मानकर रहा जा सकता है। जंगल में भी नेवला ही जीतेगा क्योंकि उसके शरीर पर सांप के ज़हर का अधिक असर नहीं होता। लेकिन कम-से-कम जंगल में अपने जीवन के लिये लड़ने वाले सांप के दांत तो टूटे नहीं होंगे। उसका ज़हर चाहे असर ना करे लेकिन उसके पास तो होगा। और अगर उसे भागने का अवसर मिले तो कोई संपेरा पूंछ पकड़ कर उसे वापस मौत के मुंह में नहीं डालेगा। ज़हर ना सही लेकिन हो सकता है कि अपनी लपेट के बल पर ही सांप नेवले से जीत जाये।

लेकिन यहाँ आदमियों की बस्ती में पहले उसके शरीर को कमज़ोर किया जाता है, उसका ज़हर निकाल लिया जाता है, उसके दांत तोड़ दिये जाते हैं और लड़ाई के दौरान भागने पर उसे वापस नेवले के मुंह में डाल दिया जाता है। फिर इस लड़ाई को "भयंकर" होने का नाम दिया जाता है। अनपढ़ संपेरा तो अपनी आजीविका कमा रहा है -लेकिन ये पढ़े-लिखे युवक इस लड़ाई को किस तरह "भयंकर" मान लेते हैं और किस तरह सांप की बेचारगी पर हँस लेते हैं -मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

मानव समाज अमानवीय और क्रूर होने के साथ-साथ बेवकूफ़ भी है।

प्रेम की पराकाष्ठा तभी पाई जा सकती है जब "बराबरी" और "मैं" जैसी चीज़ों से ऊपर उठ कर "समर्पण" और "तुम और केवल तुम" को अपनाया जाये। प्रेम करने वाला यदि अपने बारे में पहले सोचता है तो वह शायद प्रेम तो कर सकता है लेकिन प्रेम की उस चरम सीमा को नहीं पा सकता। इस संदर्भ में मुझे उद्धव और गोकुल की गोपियों का प्रसंग बहुत उचित लगता है। उद्धव जैसे ब्रह्म-ज्ञानी ने भी गोपियों से सीखा की प्रेम की पराकाष्ठा क्या होती है। जब तक उद्धव को केवल "मैं" से लगाव था और अपने ज्ञान का अभिमान था -तब तक वह ब्रह्म-ज्ञानी बनने की सीमा तक तो जा सकते थे लेकिन उस ब्रह्म को पा नहीं सकते थे। ब्रह्म यहाँ पर लक्ष्य है... ब्रह्म यहाँ पर वो प्रेमी है जिसे हम पाना चाहते हैं। उद्धव ने देखा कि गोकुल की गंवार गोपियों ने अपने प्रेमी कृष्ण को इस तरह पा लिया था कि वे कृष्ण के साथ एकाकार हो गयी थीं। इसके लिये उन गोपियों को समझदार या विद्वान बनने की ज़रूरत नहीं थी। उन्होनें केवल अपने-आप को पूर्ण-रूपेण कृष्ण को समर्पित कर दिया था। एक प्रेमी ने यह नहीं देखा कि कौन ऊँचा है और कौन नीचा... ना ही उसने अपनी बराबरी तौलने की कोशिश की। उसने केवल यह किया कि अपने आप को भुला कर अपना अस्तित्व अपने प्रेमी को समर्पित कर दिया।

खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार


अमीर खुसरो ने यहाँ केवल दो पंक्तियों में सारी बात कह दी है। प्रेम की पराकाष्ठा का पार वही पा सकता है जो इसमें डूब जाये। अपने अस्तित्व को विलीन कर दे। जो प्रेमी प्रेम के दरिया के पार उतरने की गणना में उलझा रहता है वो कभी पार नहीं उतरता। इस दरिया को पार करने के लिये इसमें डू़ब जाना पड़ता है। खुसरो की दो और पंक्तियाँ देखिये:

अपनी छब बनाय के, जो मैं पी के पास गयी
जब छब देखी पिया की, तो मैं अपनी भूल गयी


जिस समर्पण की हम बात कर रहे हैं -सूफ़ी संत शायद उसके सबसे नज़दीक पँहुचने वालो में से हैं। उस "एक" के इश्क़ में इन संतो ने अपना सब कुछ भुला दिया और जब अपनी भावनाओं को बयां किया तो वो भी इस शिद्दत के साथ कि सुनने/पढ़ने वाले हर व्यक्ति को वह अपनी ही बात लगने लगती है। प्रेम में पूर्ण समर्पण ज़रूरी है। प्रेम है ही पूर्ण समर्पण। बाद में मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी यही बात अपने ही अंदाज़ में कही।

ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है


सच्चा इश्क़ बहुत कठिन काम है -एक आग के दरिया को पार करने के समान है। ऊपर से ये कि इस दरिया को पार नहीं करना है बल्कि इसमें डूबना ही लक्ष्य होता है।

सबसे पहले तो मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं यहाँ भौतिक जगत की प्रतियोगिताओं में किसी के बराबर होने या किसी से आगे होने की बात नहीं कर रहा। यहाँ बात भावनाओं और भावनाओं की अभिव्यक्ति की हो रही है। प्रश्न यह है कि प्रेम और मित्रता जैसे संबंधो में क्या बराबर होने की भावना का महत्व होता है? और आगे स्पष्ट करना चाहूँगा कि यहाँ बराबर होने की नहीं वरन अपने को बराबर या ऊँचा मानने या मनवाने की बात हो रही है।



विपत्ति पड़े पै द्वार मित्र के ना जाइये

एक समय था जब इस उक्ति को मानते हुए ही सुदामा अपने मित्र द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के पास सहायता मांगने जाने में हिचकिचा रहे थे। उनका मानना था कि इस तरह मित्र के आगे हाथ फैलाने से उनके स्वाभिमान को ठेस लगती है। यह बात शायद ठीक भी हो लेकिन फिर आखिर मित्र होते किस लिये हैं? संसार में कोई भी मनुष्य पूर्णत: आत्मनिर्भर नहीं होता। जन्म लेने के तुरंत बाद वह जीने के लिये माँ पर निर्भर होता है। और फिर उसके बाद भी माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, सगे-संबंधी और मित्र उसके जीवन के पल्लवित, पुष्पित और फलित होने में किसी ना किसी रूप में सहायता करते हैं। तो फिर यह अहम कैसा कि विपत्ति पड़ने पर मित्र के द्वार नहीं जाना चाहिये? यदि मित्र से सहायता नहीं लेंगे तो क्या शत्रुओं से सहायता मांगी जाये? और क्या उनसे सहायता मांगने में हिचक नहीं होगी?

मित्र केवल हँस-बोल कर अपना खाली समय समय बिताने के प्रयोजन से नहीं बनाये जाते। मित्र की सहायता करना ही मित्रधर्म है। अंतत: सुदामा को यह बात समझ में आ गयी थी। वे द्वारिका गये और कृष्ण ने भी उनकी मित्रता का मान रखा। उन्हें अपने बराबर के सिंहासन पर नहीं बल्कि स्वयं अपने सिंहासन पर बिठाया। इसे एक मित्र के प्रेम की अभिव्यक्ति माना जा सकता है -लेकिन अपने स्वयं के सिंहासन पर बिठाने वाली यह बात इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इससे कृष्ण ने यह दर्शाया कि वे सुदामा को स्वयं से अलग नहीं मानते थे। अब चूंकि कृष्ण की निगाह में कृष्ण और सुदामा एक ही थे -सो सुदामा को बराबर का स्थान देने का कोई प्रश्न ही नहीं था।

प्रेम और मित्रता जैसे पवित्र संबंधों में बराबरी होने या ना होने जैसी बातों के आने से इन संबंधों की गरिमा और पवित्रता को क्षति पँहुचती है। बहुत समय से मैं नारीवाद के चलते बराबरी की यह बातें सुनता आया हूँ। मेरी दृष्टि से देखें तो स्त्री और पुरुष एक ही शय के आधे-आधे घटक हैं। और यही बराबरी है। यह सच है कि प्रकृति ने इन दोनो घटकों को अलग-अलग तरह का शरीर, कुछ अलग-अलग भावनाएँ और व्यहवार दिये हैं। पुरुष नाम के घटक की देह सामान्यत: अधिक शक्तिशाली होती है और इसी के चलते मानव ने विकास के क्रम में (मानवता छोड़ते हुए) स्त्री नामक घटक का दमन किया है। इसमें कोई शक नहीं है। प्रकृति ने जो बराबरी स्त्री-पुरुष को दी थी उसका उलंघन पुरुषों ने किया -यह सच है।

समय कभी रुकता नहीं और हमेशा चलता बदलता रहता है। आज स्त्री अपनी खोयी हुई बराबरी को पाने के लिये प्रयत्नशील है। यह देख कर मन बहुत प्रसन्न होता है। हालांकि मैं स्त्री को मनसा, वाचा, कर्मणा बराबर मानता हूँ -लेकिन पुरुष होने के नाते मुझे लज्जा का अनुभव भी होता है कि जो बराबरी प्राकृतिक-रूप से स्त्री की है -उसे आज स्त्री को पुरुषों लगभग छीनना पड़ रहा है।

जो नारीवाद स्त्री को सम्मान दिलाये उसे शत-शत नमन...

लेकिन मेरे मन में इसी कड़ी में अगला प्रश्न यह उठता है कि कहीं कुछ सौ वर्षों के बाद पुरुषवाद की ज़रूरत तो नहीं आ पड़ेगी? पुरुष देह अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली होती है। पुरुषों ने इसका अनुचित लाभ उठाया और स्त्री-पुरुषों से बने इस समाज में जितना मान, सम्मान और सुविधाएँ अधिकारपूर्वक उनकी थीं -उससे कहीं अधिक पर उन्होनें (बलपूर्वक) अधिकार कर लिया। नारी पिछड़ गयी।

वर्तमान संसार पहले से कहीं अधिक लोकतांत्रिक है। आज भी विश्व में हिंसा बहुत है लेकिन फिर भी इतिहास के किसी भी और दौर की तुलना में कम है। विरोध की आवाज़े आज भी दबायी जाती हैं लेकिन अब यह उतना आसान नहीं रहा जितना किसी ज़माने में हुआ करता था। इन सब परिवर्तनों के चलते आज नारी को अपनी आवाज़ उठाने का अवसर और साधन दोनों उपलब्ध हुए हैं। आज नारी (यानि विश्वभर की स्त्रियाँ) एक विकासशील देश की तरह है -धरती के कुछ हिस्सों में स्त्री पुरुषों के बिल्कुल बराबर है -और दूसरे कुछ हिस्सों में अभी विकास की काफ़ी गुंजाइश है। यह देख कर बहुत अच्छा लगता है कि स्त्रियों के दमन के दिन धीरे-धीरे ही सही लेकिन समाप्त हो रहे हैं।

जो प्रश्न मैनें पहले उठाया अब उस पर फिर से निगाह डाली जाये। क्या इतिहास अपने को दोहरा सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं होगा की अपनी इस शक्ति के मद में नारी वही करे जो पुरुषों ने किया था -दूसरे घटक का दमन? मुझे इस बात की कुछ हद तक आशंका है लेकिन यह आशंका बहुत गंभीर नहीं है। इस आशंका से कहीं अधिक चिंतित करने वाला प्रश्न यह है कि क्या नारीवाद से तप कर निकली नारी नारी रह जाएगी?

हालहि में मैनें एक सवाल किया था कि क्या प्रेम में पूर्ण समर्पण संभव है? मेरी नज़र में इसका उत्तर "हाँ" है। लेकिन जब भी मैं नारीवादी स्त्रियों के ख़्यालात से रू-ब-रू होता हूँ -तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि यह नारीवाद केवल बराबरी पाने की एक मुहिम नहीं है। कहीं ना कहीं इसकी नींव में पुरुषों के प्रति घृणा का भाव भी छुपा होता है। इस भावना के चलते एक ही शय के ये आधे-आधे घटक, स्त्री और पुरुष, कभी भी एक दूसरे के प्रति ऐसा समर्पण नहीं कर पाएंगे कि ये आधे-आधे ना रह कर एक हो जायें।

पुरुषों द्वारा स्त्री के दमन ने सामान्यत: पुरुषों को कोमल-भावनाओं से पूर्ण नहीं रहने दिया। तो क्या एक दिशाहीन नारीवाद भी स्त्रियों को कोमल-भावनाओं से रिक्त कर सकता है?

क्रमश:...

मैं मन का पंछी, इस सूने आकाश में अकेला बिना किसी संगी-साथी के उड़ रहा हूँ। अकेलापन -यही मेरा भाग्य है। मेरा आकाश एक वीराने से भी कहीं सूना है। मेरे कान जैसे किसी आवाज़ का सहारा ढूंढते रहते हैं; पर कोई आवाज़ नहीं आती। चहूँ ओर केवल एक गूंजता हुआ सन्नाटा है। किसी की खोज में आंखे दूर क्षितिज को चीरती चली जाती हैं; पर कुछ दिखाई नहीं देता। कुछ दिखता है तो वही निर्दयी समानता से फैला आकाश का नीला रंग। कितनी ही दूर तक देखिये यही नीला रंग फैला है -यहाँ -वहाँ -हर तरफ़ वही आकाश का नीला रंग। मैं जानता हूँ कि कुछ और देख पाने की मेरी इच्छा की पूर्ति संभव नहीं -इसीलिये मैनें इस नीले रंग में ही कुछ बदलाव ढूंढने की कोशिश की थी। लेकिन सिर्फ़ हताशा ही हाथ लगी। इस नीले रंग में कहीं भी लेश-मात्र भी बदलाव नहीं है -इसका कोई किनारा नहीं है। यह मेरे हर तरफ़ इतने समान भाव से फैला है कि अब मुझे दिशा का ज्ञान भी नहीं रहा। मैं नहीं जानता कि मैं किस ओर जा रहा हूँ। सब दिशाएँ एक जैसी ही लगती हैं।

बस उड़ते रहना मेरी नियती है। इस विरहित सूने आकाश में किसी गंतव्य को पाने के बारे में सोचना भी अपने-आप को सांतव्ना देने जैसा होगा। जलता हुआ सूरज ठीक मेरे ऊपर चमक रहा है। आंखों को चुंधिया देने वाली चमक सब तरफ़ बिखरी हुई है और आग की लपट के समान गर्म हवाओं के थपेड़ों से मेरा शरीर जल रहा है। सूरज ऊपर है और ऐसा लगता है कि जैसे नीचे धरती पर भी कोई दावानल धधक रहा है। गर्म हवाएँ सब ओर से आकर जैसे मेरे शरीर से पानी की आखिरी बूंद भी सुखा देना चाहती हैं। इन गर्म हवाओं के पास भी तो ठंडक पाने का और कोई रास्ता नहीं है। संभवत: इसी लिये यह हवाएँ मुझ पर दया नहीं करती। ये मुझे जला कर ही संतुष्टि प्राप्त करती हैं।

मेरा गला प्यास के मारे सूखकर चिपक चुका है और अब कंठ से कोई आवाज़ भी नहीं निकलती। पहले मैं कभी-कभी घोर हताशा में खु़द पर ही चिल्ला लिया करता था पर अब वो भी नहीं कर सकता। मेरे पंख थक कर मेरे शरीर से टूट अलग होना चाहते हैं। मेरे लिये अपने पंखों को दिलासा देना मुश्किल हो रहा है। लेकिन अंतिम सांस तक उड़ना तो है -इसलिये मेरे पंखों -बस कुछ देर और अपने को संभाले रहो। हिलते रहो ताकि शरीर आगे बढ़ सके -उसी नीले क्षितिज की तरफ़। हाँ वही नीला क्षितिज -देखो! पास ही है ना! वहाँ शरीर आराम पाएगा। वहाँ अमृत के झरने होंगे जहाँ मैं अपनी प्यास बुझा सकूंगा। वहाँ किसी वृक्ष की ठंडी छांव में आराम की नींद सो सकूंगा। वहाँ मेरी सारी थकान दूर हो जाएगी। सारी मांसपेशियों को आराम आएगा। आत्मा भी स्वतंत्रता का अनुभव करेगी। मुझे नींद आएगी और मैं सो जाऊंगा।

इन विचारों के आते ही मुझमें कुछ स्फ़ूर्ती आयी है। पर शरीर अब भी साथ नहीं देना चाहता। मुझ मन की यही तो विडम्बना है -ये मेरा ही कार्य है कि मैं शरीर को आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करूं। ऐसा करने के लिये मैं शरीर को अलग-अलग प्रकार से प्रोत्साहित करता हूँ। पर मैं तो मन हूँ -जानता हूँ कि प्रोत्साहन केवल कुछ देर के लिये है। शरीर को थोड़ी ही देर में फिर से ऐसे ही सुंदर सपनें दिखाने होंगे -सपनें जो कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। मुझे तो शरीर पर दया आती है। इतना थक कर भी उड़ते रहना -यही इसकी नियती है।

मैं तो जानता हूँ कि क्षितिज के पार कुछ भी नहीं है। वास्तव में क्षितिज मृगतृष्णा का ही एक रूप है। कोई कभी क्षितिज तक नहीं पँहुच सकता क्योंकि क्षितिज का कोई अस्तित्व है ही नहीं। फिर भी मन होने के नाते मुझे शरीर को इस मृगतृष्णा में डालना पड़ता है -अन्यथा शरीर आगे नहीं बढ़ेगा। प्रकृति कितनी निर्दयी है।

मैनें सुना है कि प्रकृति ने मुझ जैसे हर एक मन को एक साथी दिया है। दो मन जब एक साथ उड़ते होंगे तो कितना अच्छा लगता होगा ना! वे एक-दूसरे का सहारा बन सकते होंगे। एक मन के पंखों से आती हवा -दूसरे के परों को सहलाती होगी -ठंडक देती होगी। उन्हें दिशा-ज्ञान ना भी हो तो क्या? मैं अकेला मन का पंछी, दिशा-ज्ञान इसीलिये तो चाहता हूँ कि सही दिशा में आगे बढ़ सकूं -कि शायद कहीं कोई साथ उड़ने वाला एक साथी मन मिल जाये। पर जाने क्यों प्रकृति ने मुझे एक साथी मन नहीं दिया। एक साथी -जिसके बारे में सोचकर मैं अपने दुखों और अपनी इस थकान को भुला सकूं। एक साथी -जो मेरे बारे में सोच सके। दोनो एक दूसरे पर अपने पंखों की छाया कर सकें -एक दूसरे को जलते सूरज की तपन से बचा सके। जाने क्यूं प्रकृति ने मुझे एक साथी नहीं दिया?

ख़ैर, अब अधिक देर नहीं। मैं जानता हूँ कि शरीर के साथ में स्वयं मैं भी हार चला हूँ। जी में आता है कि अपने पंखों से कह दूं कि वे रुक जाएं और शरीर को गिर जाने दें। आज तक उड़ते-उड़ते मैं कोई किनारा नहीं पा सका तो शायद गिरते हुए ही किसी किनारे को पा जाऊं।

मेरी आंखें बंद होने को हैं। मेरे पंख वीरों की भांति अब भी पूरी ताकत से शरीर को आगे बढ़ा रहे हैं। ये अंतिम क्षण तक शरीर को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन अब इनका हिलना ही इनके जल्द ही रुक जाने का सूचक बन गया है। मेरी आंखे बंद होते-होते भी हमेशा की तरह शरीर के लिये दिशा तलाश रही हैं। परंतु हमेशा की तरह आंखों को अगर कुछ दिखाई देता है तो वही -एक सूना आकाश...

लेखक: ध्रुवभारत
2003 में लिखित
एक बच्चे से पूछो ज़रा ज़ोर से
तुम्हारे हाथ में क्या है?
देख सकोगी छलकते आंसू
उसकी निर्दोष, प्यारी-सी आंखों में
उसकी मुठ्ठी बड़े ज़ोर से होगी बंद
खोलोगी तो कुछ नन्हे कंचे मिलेंगें
मुठ्ठी में बंद उन्ही कंचो की तरह
हम तुम्हे अपने दिल में रखेंगें

जहाँ रेत होगी कुछ साफ़-साफ़
किनारे समन्दर के चलते-चलते तुम
पाओगी, एक सीप आधी दबी-सी रेत में
जैसे वो कुछ छुपाना चाहती हो जग से
तोड़ोगी उस सीप को, तो एक चीख के साथ
कुछ सुन्दर सफ़ेद मोती बिखरेंगे
सीप में छुपे उन मोतियों की तरह
हम तुम्हे अपने दिल में रखेंगे

किसी बहुत दिल-अज़ीज़ को एक शाम
अगर तुम पाओगी बैठे हुए उदास
जब पूछोगी तुम कि क्या ग़म है?
तब भर आएंगी जो आंखे उसकी
तुम थाम लोगी हथेली पर वो आंसू
और तुम्हारे हाथ उन्हें सहेज कर रखेगें
हथेली पर थमे उन आंसुओं की तरह
हम तुम्हे अपने दिल में रखेंगें

सींचा है जिस पेड़ को बरसों से
इस बसंत में खिलेगा उस पर पहला फूल
तुम देख सकोगी उस मुस्कान को
जो माली के चेहरे पर खेल जाएगी
महसूस कर सकोगी तुम उस खुशी को
जिसे माली ने पाया है बरसों के बाद
उसी फूल, उसी मुस्कान, उसी खुशी की तरह
हम तुम्हे अपने दिल में रखेंगें

आज मन विचलित है। मन विचलित है यानि यह अपने स्थिर भाव से डिगा हुआ है और एक बात के बारे में बार-बार विचार कर रहा है। क्या यह बात वाकई में सच है कि इंसान किसी के लिये भी पूर्ण समर्पित नहीं हो सकता? क्या वाकई में जब लोग किसी से प्यार करते हैं तो उसमें कोई ना कोई स्वार्थ छुपा होता है?

अपने चारों ओर का संसार देख कर लगता तो यहीं है कि आज किसी में भी पूर्ण समर्पण कर देने की क्षमता नहीं बची है। आज की दुनिया में लोग प्यार अपने व्यक्तिगत आराम, कैरियर, यश और पैसे इत्यादि को ध्यान में रखते हुए करते हैं। त्याग की भावना, जो की सच्चे प्रेम का अटूट हिस्सा होती है, आज ढूंढे से भी नहीं मिलती। जिससे हम प्यार करते हैं उसके सुख के लिये अपने सुख का त्याग कर देना; ये अब किताबी बातें लगती हैं। कोई किसी को प्यार नहीं करता, जो भी है केवल कैल्कुलेशन है क्योंकि भावनाएँ अब "मैं" प्रधान हो गयी हैं। पति को वनवास जाना है तो अपना सब-कुछ छोड़ कर उसके पीछे-पीछे जाने वाली सीता अब नहीं हैं। पत्नी वनवास में कठोर धरती पर सोती होगी यह सोच नर्म बिस्तर छोड़ धरती पर सोने वाले राम भी अब नहीं रहे।

जो मैनें ऊपर कहा वह सामान्यत: सच है लेकिन अपवाद हमेशा होते हैं। सो मेरा विश्वास है कि धरती के किसी कोने में कम से कम कोई एक इंसान तो होगा ही जिसमें ऐसा कर सकने की क्षमता होगी। कोई तो ऐसा होगा जो ख़ुद को इसलिये मिट्टी कर देना चाहेगा ताकि वो किसी पौधे को सहारा दे सके। ऐसे इंसान कम ही होंगे लेकिन उससे भी कम ऐसे लोग होंगे जो इस तरह के समर्पण और प्रेम के मूल्य को पहचान सकें।

यदि मैं जीवन में एक भी ऐसे व्यक्ति से मिल सकूं जिसमें सच्चा प्रेम और पूर्ण समर्पण कर सकने की क्षमता हो तो मुझे लगेगा कि ज़िन्दगी सफल हुई।

लेकिन शायद यह संभव नहीं होगा।

आज इंटरनैट पर भ्रमण करते-करते फिर से कविता कोश तक जा पहुँचा। "फिर से" इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि मैं अक्सर इस साइट पर जाता हूँ। कविताएँ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती हैं और कविता कोश में हर किस्म की उत्तम कविताएँ एक जगह पढ़ने को मिल जाती हैं। इस कोश में आज अदम गोंडवी साहब की मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको शीर्षक से एक हृदय-विदारक रचना पढी़। पढ़ कर मन रो पड़ा। बलात्कार सबसे जघन्य अपराधों में से एक है। यह रचना बहुत मार्मिक-रूप से पीड़ित स्त्री और दलितों के व्यथा को कहती है। यह रचना पढ़कर फूलनदेवी की याद आ गयी।

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था

भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
`मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

30 अक्तूबर को विदेश-प्रवास से घर वापस लौटते ही बड़ा सुकून महसूस हुआ। शरीर को हवा में घुली हल्की-सी ठंड की सिहरन का अनुभव हुआ। दीपावली का त्यौहार कुछ दिन पहले जा चुका है लेकिन दीपावली के निशान अभी भी आस-पास देखे जा सकते हैं। अधिकतर घरों को नए रंग-रोगन से सजाया गया है। शाम ढले अभी भी इक्की-दुक्की अतिशबाज़ी आसमान को रौशन कर देती है। घरों में बिजली के बल्बों की लड़ियाँ, कंदीलें और वंदनवार इत्यादि से की गयी सजावट अभी भी बाकी है।


दिल्ली शहर की सर्दियाँ बहुत सुखकर होती हैं। तापमान ना बहुत कम होता है और ना बहुत ज़्यादा। अधिकांश दिनों में सूर्य अपनी सुहावनी धूप बिखेरता है। धूप में बैठ कर कोई किताब पढ़्ते हुए गाजर, मूंगफ़ली और अमरूद खाने का आनंद किसी समुद्र किनारे धूप सेकने से कम नहीं है (ये और बात है कि समुद्री किनारे पर धूप सेकने को अच्छी छुट्टियों का एक फ़ैशनेबल प्रतीक मान लिया गया है)। ब्रिटेन में मैनें शायद ही कभी उगता सूरज देखा हो। वहाँ ज़िन्दगी प्रकृति से काफ़ी कटी-कटी रहती है। देर रात तक पार्टी या काम करना और फिर देर से सो कर उठना। कुछ हद तक प्रकृति भी खुद को मनुष्य से काटती हुई प्रतीत होती है। ठंड ज़्यादा होती है, बारिश और बर्फ़ सर्दियों के मौसम में तो रुकते ही नहीं, सूरज देर से निकलता है और जल्दी छुप जाता है। ठंड से बचने के लिये घर ऐसे बनाये गये हैं कि हवा के आवागमन का कोई मार्ग नहीं होता। यह घर सर्दी में काफ़ी आरामदेह तो होते हैं लेकिन वो जो सर्दी के मौसम की एक मीठी-सी सिहरन होती है उसका अहसास इन घरों में नहीं होता। चारों तरफ़ एक सन्नाटा-सा छाया रहता है।

यहाँ दिल्ली में, या कम-से-कम दिल्ली के नॉन-पॉश इलाकों में, तो सुबह 4-5 बजे से ही ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार पकड़ने लगती है। बहुत से घरों में बत्तियाँ सूरज के निकलने से पहले ही जल जाती हैं। कोई रिक्शा-वाला अपनी रिक्शा को ले काम की खोज में निकल पड़ता है। लोग मुंह अंधेरे ही नहा-धो कर अपनी किराने की दुकानें खोल लेते हैं और ग्राहक भी जल्दी ही दूध, ब्रैड और अखबार खरीदने आने लगते हैं। सूरज के निकलने से पहले ही मंदिरों से आरती और मस्जिदों से अज़ान की आवाज़े वातावरण को जीवंत कर देती हैं (ऐसा लगने लगता है कि दुनिया में हम अकेले नहीं हैं)... सूरज निकलते ही ऐसा अक्सर होता है कि कोई साधु द्वार पर आकर अलख जगाता है। हमारे यहाँ एक वृद्ध ब्राहम्ण हर द्वादशी के दिन भिक्षा मांगने के लिये आते रहे हैं। वे गेरुए रंग के साधु वेशधारी नहीं हैं। गंगा-घाट के पंडो की तरह हमेशा सफ़ेद धोती-कुर्ता पहनते हैं और कंधे पर एक लाल अंगोछा डाले रखते हैं। उन्हें देख कर बहुत अच्छा लगता है। उनकी आवाज़ बड़ी गहरी और मधुर है। जब से मैनें होश संभाला है मैनें उन्हें हर द्वादशी को भिक्षा मांगने आते देखा है। वे केवल द्वादशी को ही भिक्षा मांगते हैं और बाकि के दिन उसी भिक्षा से अपना और अपने परिवार का पोषण करते हैं। उन्होनें कभी आवश्यकता से अधिक ना तो मांगा और ना ही संग्रह किया। यही कारण है कि भिक्षा देने वाले लोगों ने उन्हें हमेशा बड़ी प्रसन्न्ता से भिक्षा दी है। मुझे याद है जब उनकी बेटी सयानी हो गयी और उसके विवाह का समय आया तो उसके लिये सभी लोगों ने बहुत खुशी से उपहार भेंट किये। यह ब्राहम्ण व्यक्ति मुझे बहुत पसंद हैं। ऐसा इसलिये नहीं कि वे जाति या कार्य से ब्राहम्ण हैं बल्कि इसलिये कि वे एक मर्यादित और संतोषी जीवन जीने का उदाहरण बन कर सामने आते हैं।

सूरज थोड़ा और चढ़ता है तो कोई गुब्बारे-वाला अपना बाजा लेकर सड़क पर निकल पड़ता है। स्कूल जाने वाले बच्चे तैयार हो, वर्दी पहने, बस्ता कमर पर लट्काये स्कूलों की ओर चल पड़ते हैं। साइकिल सवार अपने कार्य-स्थल की ओर जाने लगते हैं (कारों से सफ़र करने वाले थोड़ा देर से घर से निकलते हैं)। मजदूर भी जल्दी-जल्दी चल पड़ते हैं। हमारे यहाँ मज़दूर थोड़ी-से पैसे लेकर बहुत काम करते हैं। जब कभी हमारे घर में चिनाई का काम लगा तो मैनें देखा है कि किस तरह मज़दूर का दिन सुबह सूरज निकलने से पहले ही शुरु हो जाता है और सूरज के छिप जाने के बाद तक उसका कार्य जारी रहता है। दिन-भर वे काम करते हैं और ठेकेदारों की गालियां खाते हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनकी नींद बिना बैड-टी के नहीं खुलती, जो अगर किसी पब में जाकर हर रात "ड्रिंक्स" ना ले ले तो उन्हें जीवन अर्थहीन लगने लगता है, जिन्हें कार के बिना अगर 100 कदम भी चलना पड़ जाये तो वे "व्हाट द हैल" कह कर सारी कायनात को कोसने लगते हैं। इन लोगों को जब मैं इन मज़दूरों के बराबर रख कर देखता हूँ तो लगता है कि अत्यधिक संसाधनों की उपलब्धता हमें कहीं ना कहीं कमज़ोर भी बनाती है।

मैं अब सुबह 5 बजे ही सो कर उठ जाता हूँ। वातावरण में थोडी़ सी ठंड, सड़कों पर लोगो का आना-जाना शुरु हो जाना, आंगन में चिड़ियों चहचहाहट; इन सबके चलते नींद अपने-आप ही 5 बजे बिना किसी अलार्म की मदद के खुल जाती है। ऐसा भी नहीं लगता कि नींद पूरी नहीं हुई। उठ कर ताज़गी का अनुभव होता है। मुझे लगता है कि ब्रिटेन में जो मैं सप्ताहांत में 8-9 बजे तक सोता था सुबह 7 बजे उठ कर ऑफ़िस जाने के लिये तैयार होते हुए भी ऊंघता रहता था; वो सब कितना बेमानी था। सच यह है कि वहाँ मैं ज़रूरत से ज़्यादा सोता था। यहाँ दिल्ली में सुबह 5 बजे उठ कर मेरे दिन को 2-3 घंटे नींद से अधिक अर्थपूर्ण कुछ करने के लिये और मिल जाते हैं।

कई लोग कहते हैं कि यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसी जगहों पर रह कर आओ तो भारत में एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही आपको "कल्चरल शॉक" लगता है। जब आप लोगो की आड़ी-टेढ़ी ड्राइविंग देखते हैं, ट्रैफ़िक के नियमों का उल्लंघन होते देखते हैं या टूटे फ़ुटपाथों पर लगी केले की रहड़ी जैसी चीज़ों को देखते हैं और इन सबकी तुलना विदेश से करते हैं तब आपको यह शॉक लगता है। विदेशी शहर कितने साफ़ सुथरे हैं; विदेशी लोग कितने संस्कारी हैं; विदेश में सब कुछ कितना व्यवस्थित तरीके से चलता है। यह सब बातें आपके मन में स्वयं ही आने लगती हैं।


पता नहीं क्यों लेकिन मुझे ऐसा शॉक कभी नहीं लगा। मैं जब भी विदेश से लौटा और एयरपोर्ट से बाहर निकला तो हमेशा ही अपने शहर से मुझे एक अपनापन महसूस हुआ। हमेशा ही मुझे चीज़े बेहतरी की ओर जाती हुई दिखाई दीं। नये फ़्लाईओवर्स, अभी भी टूटे हुए लेकिन पहले से बेहतर रोड्स, नई-नई बेहतर इमारतें, कई और पड़सियों के पास नई कारें... हर बार कुछ न कुछ बेहतर ही दिखाई देता है। एयरपोर्ट से घर की ओर आते समय टूटे फ़ुटपाथों पर काले हो चले केले बेचते लोग मुझे भी दिखाई देतें हैं। लेकिन मैं उनकी उपस्थिति पर नाक-भौं सिकोड़ विदेश में देखे बढ़िया, साफ़, चौड़े-चौड़े, सजे हुए फ़ुटपाथों के बारे में नहीं सोचता। बहुत से लोगो का बस चले तो इन फ़ुटपाथों पर केले बेच रहे रामखिलावनों को बेरोज़गार करके इन फ़ुटपाथों को विदेशी शहरों के फ़ुटपाथों की तरह ही सुंदर बना दें। लेकिन ऐसे लोगो को सोचना चाहिये कि फिर रामखिलावन के घर में चूल्हा कैसे जलेगा? और कब तक वह अपने पेट की आग को दूसरों के घर जलाने से रोक सकेगा?

मैं कुछ समय एडिनबर्ग शहर में रहा। यह बहुत खूबसूरत शहर है। स्कॉटलैंड की राजधानी है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पूरे स्कॉटलैंड की जनसंख्या 60 लाख से अधिक नहीं है; और इसकी दुगुनी से भी अधिक आबादी तो केवल दिल्ली में ही बसती है। अब ऐसे में स्कॉटलैंड जहाँ अपने पार्कों और फ़ुटपाथों को संवारने में अपना समय और संसाधन लगा सकता है वहीं भारत को अपने रामखिलावनों की चिंता भी करनी होती है। भारत एक अद्वितीय देश है। हमारी बहुत सी समस्याएँ ऐसी हैं जिनका सामना बहुत से अपेक्षाकृत अधिक उन्नत देशों को नहीं करना पड़ता। केवल चीन की ही आबादी भारत से अधिक है परन्तु चीन में लोकतंत्र नहीं है। वहाँ "विकास" की राह में आने वाले रामखिलावनों को रास्ते से हटा दिया जाना आम और आसान बात है। हमारे यहाँ भी प्रशासन मनमानी करता है लेकिन हर 100 में से कुछ मामलो में तो आवाज़ उठती ही है और पीड़ित को न्याय भी मिलता है।

मेरी जितने भी विदेशी लोगो से बात होती है वे सभी इस बात को मानते हैं कि यदि उनके यहाँ भारत जितनी आबादी और विभिन्न्ता होती तो उनकी धरती का नज़ारा भी कुछ-कुछ भारत जैसा ही होता। हालांकि खुद भारतीय लोग ही इस बात को समझ नहीं पाते। भारत के लोगो को बहुत श्रम करने की और अपने व्यहवार में कुछ और अच्छे गुणों को उतारने की ज़रूरत है। हमें एक अच्छा राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचा खड़ा करना है। यह काम हमें ही करना होगा; कोई बाहरी व्यक्ति हमारे लिये ऐसा करने नहीं आएगा। इसलिये हमें चाहिये कि हम विदेश के गुणों का गान करने की बजाये उन गुणो को धारण करने का प्रयत्न करें ताकि हम अपनी आने वाली पीढियों को एक बेहतर भारत दे सकें।

लोग अक्सर कहते हैं कि "इतने बड़े और भ्रष्ट सिस्टम के सामने मैं अकेला क्या कर सकता हूँ? मैं तो इस सिस्टम को नहीं बदल सकता।" देखा जाये तो यह सच भी है। अब हर व्यक्ति कोई महात्मा गांधी तो नहीं है कि उसकी एक आवाज़ पर लाखों-करोड़ो लोग अपने जीवन की राहें बदलने को तैयार हो जायें। लेकिन यहाँ पर महत्वपूर्ण बिंदू यह है कि आपको सिस्टम को बदलने की ज़रूरत है ही नहीं! आप केवल खुद को बदल लीजिये... सिस्टम धीरे-धीरे अपने आप बदल जाएगा।

हमें शिकायत करने की बजाये कुछ बेहतर करने का प्रयास स्वयं करना होगा। निराशा को त्याग कर मन में आशा रखनी होगी कि भविष्य बेहतर होगा।

अभी ३-४ दिन पहले ही मैं एक विदेशी शहर में २ महीने रह कर लौटा हूँ। एयरपोर्ट पर उतरने से लेकर घर पँहुचने और उसके बाद से अब तक बहुत-से अच्छे बुरे अनुभव हुए जो शायद भारत में ही हो सकते हैं। इनमें अच्छे अनुभव ज़्यादा थे लेकिन शुरुआत ऐसी बातों से जहाँ हम भारतीयों में सुधार की गुंजाइश है।

फ़्लाइट के उतरने के बाद जो लोग व्हीलचेयर सहायता चाहते हैं वे बाकि सभी यात्रियों के उतरने के बाद उतरते हैं। जहाँ तक मेरा अनुभव है मैनें किसी फ़्लाइट में १० से अधिक ऐसे लोगो को नहीं देखा था जिन्होनें ऐसी सहायता की मांग की हो। लेकिन इस बार यह देख कर आश्चर्य हुआ कि तकरीबन ३० लोग अपनी सीटों पर बैठे रहे और सहायता के आने की प्रतीक्षा करते रहे। इतने लोगो के लिये व्हीलचेयर एयरपोर्ट पर एक-साथ उपलब्ध नहीं थीं (बाद में मालूम पड़ा कि एक दूसरी फ़्लाइट से १२ लकवाग्रस्त महिला खिलाड़ी भी लगभग उसी समय एयरपोर्ट पर पँहुची थीं और उनके लिये भी व्हीलचेयर्स चाहियें थीं)। मेरे विचार में केबिन क्रयू और एयरपोर्ट के व्हीलचेयर सहायकों ने मेरी फ़्लाइट के ३० लोगो की जल्द से जल्द सहायता करने की भरपूर कोशिश की लेकिन इन ३० लोगो में से अधिकांश का व्यहवार कहीं बेहतर हो सकता था। पहली बात तो यह कि इन ३० लोगो में से केवल १४ ने पहले से व्हीलचेयर बुक करायी थी। बाकि ने इस सुविधा को प्रयोग करने का मन फ़्लाइट के दौरान ही बना लिया। ये सभी वयोवृद्ध पुरुष व महिलायें थी। जिस देश से यह फ़्लाइट आई थी उसे जानते हुए यह कोई आश्चर्य नहीं कि इतने सारे वृद्ध व दुर्बल भारतीय यात्री अकेले सफ़र कर रहे थे।

एक और यह देख कर अच्छा लगा कि इतने सारे वृद्ध भारतीय अकेले इतना लम्बा सफ़र करने में नहीं झिझके थे। वहीं दूसरी ओर इनमें से अधिकांश की ओर से भारतीय जनता के व्यहवार की कुछ "टिपिकल" झलकियां भी देखने को मिलीं। नियम के अनुसार आपको यदि व्हीलचेयर की ज़रूरत है तो आपको उसे टिकट बुक करते समय ही बुक कराना होता है। लेकिन भारतीयों में नियमों का अनुसरण करने की प्रवृत्ति अभी भी ज़रा कम ही है इसीलिये ३० में से केवल १४ ने इस सुविधा की पहले से मांग की थी। व्हीलचेयर्स की कमी के कारण २-२ या ३-३ के समूहों में ही लोगों को हवाई जहाज से ले जाया जा रहा था। इससे जो यात्री पीछे रह रहे थे उनसे ५ मिनट का भी सब्र नहीं रखा गया। कोई केबिन क्रयू के कर्मचारियों को कोसने लगा तो कोई नागरिक उड्डयन मंत्रालय में अपने रिश्तेदारों के नाम गिना कर धमकियां देने लगा। पंक्ति बनाना या किसी और की बड़ी ज़रूरत के लिये अपनी बारी का त्याग कर देना हमारी आदत में शामिल नहीं है। कुछ लोगों ने बैठकर आपस में भारत की कमियों और विदेश की महानता का गुणगान आरम्भ कर दिया। वे भारत की हर बात को उस धरती की बातों से तौलने लगे जहाँ से वे भारत पँहुचे थे। ऐसे लोग इस तरह की बातें करते हुए स्वयं को बड़ा समझदार अनुभव करते हैं लेकिन उन्हें धेले भर की समझ नहीं है कि भारत जैसे विशाल और विभिन्न्ताओं से भरे देश की किसी भी और देश से कोई तुलना नहीं हो सकती।

जो भारतीय भारत की निंदा करता है उसे मैं कृतघ्न मानता हूँ। हमारा देश जैसा भी है हमारा अपना है। जो लोग अपने देश की निंदा करते हैं वे आगे बढ़ कर उसके लिये कभी कुछ नहीं करते। और मैनें यह भी देखा है कि जो लोग वाकई में देश के बारे में सोचते हैं और उसके लिये आगे बढ़ कर कुछ करते हैं वे देश की निंदा नहीं करते। ऐसे लोग निंदा की बजाये आशा और कर्म में विश्वास रखते हैं। मेरे निजी अनुभव के अनुसार हर समय बिजली कटौती को कोसने वाले वे लोग अधिक होते हैं जो अपने बिजली के मीटर से छेड़छाड़ करके बिल-कटौती करते हैं। टूटी सड़कों का रोना रोने वाले कितने लोग अपना आयकर अदा करते हैं -यह जानना ज़रूरी है।

यह सही है कि भारत में बहुत समस्याएँ हैं। यहाँ भ्रष्टाचार है, गंदी राजनीति होती है, सरकारी मशीनरी ढीली है; ये तमाम बातें सच हैं। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि लोगो को वैसी ही सरकार और वैसा ही सिस्टम मिलता है जिसके लायक वे हैं; यह बात बिल्कुल सच है। अपने देश को कोसना तो वैसे भी शिष्टाचार के खिलाफ़ है लेकिन बेहतर ये हो कि लोग कोसने की बजाये कुछ करें। पहले अपने गिरेबां में झांके और फिर देश की बात करें।

ऐसे भी लोग हैं जो या तो कुछ कर नहीं सकते या कुछ करना नहीं चाहते। ऐसे लोगों से कम-से-कम इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है कि वे जो बोलें अच्छा, सकारात्मक और आशापूर्ण बोलें। कुछ लोग तो इतने निर्लज्ज और अहमक़ होते हैं कि विदेशियों के सामने भी अपने देश की बुराई इस शान से करते हैं जैसे कि ऐसा करने से विदेशी उन्हें बड़ा बुद्धिजीवी मान रहे होंगे।

खैर, इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन शायद स्वामी रामतीर्थ के साथ जापान के एक रेल स्टेशन पर हुई घटना के बारे में बता देने से सारी बात का सार अपने आप ही समझ में आ जाता है। यह छोटी-सी कहानी मैनें सबसे पहले अपने स्कूल की किसी किताब में पढ़ी थी और तब से ही यह मेरे जीवन का अंग बन गयी। आशा है कि हम सभी भारतीय इस कहानी से कुछ तो सबक लेंगे।

एक बार स्वामी रामतीर्थ जापान गए। एक लंबी रेल यात्रा के बीच उनका फल खाने का मन हुआ। गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी पर उन्हें वहां फल नहीं मिले। उनके मुंह से निकल गया, "जापान में शायद अच्छे फल नहीं मिलते।"

एक सहयात्री जापानी युवक ने उनके यह शब्द सुन लिए। अगले स्टेशन पर वह तेजी से उतरा और कहीं से एक टोकरी में ताजे मीठे फल ले आया और उसे स्वामी रामतीर्थ की सेवा में प्रस्तुत करते हुए बोला, "लीजिए आपको इसकी ज़रूरत थी"

स्वामी जी ने उसे फलवाला समझकर पैसे देने चाहे लेकिन उसने पैसे नहीं लिए।

स्वामी जी के बहुत आग्रह करने पर उस जापानी युवक ने कहा, "स्वामी जी, इसकी कीमत यही है कि आप अपने देश में किसी से यह न कहें कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।"

स्वामी रामतीर्थ युवक का यह उत्तर सुनकर मुग्ध हो गए।

अभी के लिये इतना ही। आगे के अनुभव अगली पोस्ट में।

एक समय जीवन में ऐसा आया था जब मुझे स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिये किसी माध्यम की ज़रूरत आ पड़ी थी। शायद हर जीवन में ऐसे समय आते हैं। मैनें खुद को जांचा तो पाया कि मैं तो अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम का ज्ञान नहीं रखता था। नृत्य, संगीत, गायन, अभिनय, चित्रकला, लेखन इत्यादि किसी भी विधा में स्वयं को व्यक्त करना मुझे नहीं आता था। लेकिन अभिव्यक्ति की आवश्यकता बहुत बड़ी और गंभीर थी। सो अंतत: मैनें शब्दों को माध्यम बनाने का विचार किया। कविता लिखने लगा। शुरु में केवल अपने लिये लिखता था; बाद में कुछ करीबी मित्रों के साथ बांटने लगा। धीरे-धीरे एक भ्रम मन में पलने लगा कि मैं भी कविता लिख सकता हूँ। कविता-लेखन ने मुझे अभिव्यक्ति का माध्यम दिया यह बात तो ठीक है; लेकिन स्वयं को कवि मान लेने का भ्रम ना जाने क्यों मुझ पर हावी होने लगा था। जैसे-जैसे मैनें प्रशंसा पाने के अपने गुप्त एजेंडा के चलते अपनी "कविताएँ" और अधिक लोगो से बांटनी शुरु की तो सत्य सामने आने लगा। कई लोगो ने ईमानदारी से मुझे बताया कि मैं अच्छा नहीं लिखता और मेरा मन टूट गया। मैनें लिखना बंद कर दिया। कैसी अजीब कैफ़ियत होती है ना मानव मन की! ज़रा-सी ठेस लगते ही टूट जाता है।

बहरहाल, अब मैनें फिर से लिखने की ठानी है। क्योंकि अब फिर वैसा ही समय है कि मुझे अभिव्यक्ति की बड़ी और गंभीर आवश्यकता है। यह ब्लॉग भी शायद इसी आवश्यकता का परिणाम है। आशा बस यह है कि कवि होने का भ्रम मेरे ऊपर फिर से सवार ना हो। जब तक कुछ नया ना लिख लूं तब तक कुछ पुरानी "कविताएँ" ही यहाँ पोस्ट करूँगा।


लेखक: ध्रुवभारत
02 नवम्बर 2007 को प्रात: 10:00 बजे लिखित
ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?
आंधी ललचाई-सी आँखें लिये
तुम्हारा शिकार करना चाहती है
धूप, जो कभी दोस्त थी
आज चाहती है तुम्हें देना जला
तुम्हारा तन, ये तना
अब तो खोखला हो चला

क्या तुम उन पंछियों की सोचते हो?
जिन्होनें बसाये थे तुम पर
अपने घर और सपनें नये
आंधी ने ज़रा तुम्हें हिलाया
वे साथ तुम्हारा छोड़ गये

कहीं सोचते तो नहीं तुम
उसके बारे में
वो गिलहरी थी जो
इक इस संसार सारे में
बहुत खुश होते थे तुम
देख उसकी अठखेलियाँ
सोचते थे कि यही जीवन है
सुंदर सा, प्यारा सा

पर तुम भूल गये थे कि
तुम तो केवल एक पेड़ हो
चल नहीं सकते
देखो दुनिया, पंछी और गिलहरी
सब आगे दौड़ गये हैं
बोलो अब वे कहाँ हैं?
है कौन इस वीराने में
तुम्हारे साथ?
अकेले जीवन अब लगता तुमको
काली एक अंधियारी रात

हाँ-हाँ मालूम है
एक सूखी, जली, मुरझाई हुई पत्ती
जिसे तुम उम्मीद कहते हो
अब भी तुमसे जुड़ी हुई है
पर क्या एक मुरझाई हुई
उम्मीद के सहारे
इतना दर्द सहना ठीक है?
क्या पा लोगे कुछ और पल
यूँ ही इस ज़मीं पर खडे़ हुए?
ना तुम में छाया है
फल फूल तो छोडो़
ईंधन भी ना बन सके
ऐसी तुम्हारी काया है

सुनो ओ पेड़, तुम गिर जाओ
खुश हो लेने दो आंधी को
अपनी थकी हुई जड़ों को आराम दो
तुम्हे जला संतोष मिलेगा
धूप को भी कुछ काम दो
गिर कर तुम जो खाली करोगे
उस जगह उगेंगे नये पौधे
कड़वे फलों और पैने काँटों का भी
है इस जग में महत्व बड़ा
तुम पूरी तरह उपयोगहीन
क्यूँ चाहते हो रहना खड़ा?
यूँ खड़े-खड़े भला
तुम किसके हो काम आते?

ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?

ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?

आरम्भ



ब्लॉगिंग करने का यह मेरा पहला प्रयास नहीं है। पिछले प्रयासों की तरह यह भी कितने दिन चलेगा; कह नहीं सकता। मन में एक घुटन घर किये बैठी है और ऐसा कोई दिखाई नहीं देता कि जिससे मन की बातें कहूं तो वह समझ सके। जिस तरह के प्यार, मित्रता और सहारे की मुझे इस समय आवश्यकता है वैसी किसी शय का शायद कोई अस्तित्व इस संसार में नहीं है। इसलिये दीवारों से अपनी बात कहने का प्रयास कर रहा हूँ। एक व्यक्तिगत डायरी के तौर पर ब्लॉगिंग मूल रूप से दीवारों से बतियाना ही है। हज़ारों लोग आपके मन की बात पढ़ते हैं लेकिन वे सभी इंटरनैट की इस आभासी दुनिया का हिस्सा होते हैं। जिस तरह एक दीवार से बातें करने पर इस बात का आभास होता है कि कोई सुन और समझ रहा है; वैसा ही आभास इंटरनैट दिलाता है। लेकिन आभास तो आखिर आभास ही है। वास्तविकता से कोसों दूर।

मैं एक बेहद आम इंसान हूँ। मेरे पास कोई ऐसा हुनर नहीं है जो मेरे ऊपर परिपक्व या परिष्कृत होने का लेबल लगा सके। मेरी बस एक इच्छा है, आशा है और एक प्रयत्न है कि मैं हर दिन एक बेहतर इंसान बन सकूं। हर दिन प्यार, करुणा, ममता, मित्रता, ईमानदारी और नैतिकता जैसे गुणों को अपने भीतर और अधिक विकसित कर सकूं। अगर मैं लोहा हूँ तो इन गुणों की कीमियागिरी से अपने को सोना बना सकूं। और अगर मैं सोना हूँ तो इन गुणों की आग में तप कर कुंदन बन सकूं।

मुझे आशा है इंटरनैट की दीवार से मैं सब कह सकूंगा। मुझे पता है कि यह दीवार समझ नहीं सकती लेकिन और कुछ नहीं तो शायद यह दीवार मेरे मन और इस मन की भावनाओं की साथी बन सकेगी।

मैं इस ब्लॉग पर हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषाओं में लिखूंगा। शायद अंग्रेज़ी में अधिक लिखूं; लेकिन यह मूलत: निर्भर करेगा कि मैं क्या लिखना चाहता हूँ। वर्तमान हिन्दी ब्लॉगिंग को देख कर मन दुखता है। हिन्दी ब्लॉगिंग का स्तर सामान्यत: बहुत नीचे गिर चुका है। हिन्दी ब्लॉगिंग अब सस्ती शोहरत पाने और एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का ज़रिया अधिक बन गया लगता है। मैं हिन्दी-सेवक नहीं हूँ और ना ही मैं हिन्दी-प्रेमी हूँ। हिन्दी मेरी मातृभाषा है और मैं इसे अपनी अभिव्यक्ति के लिये प्रयोग करता हूँ। इससे अधिक हिन्दी से मेरा कोई जुड़ाव नहीं है (क्या इससे अधिक कोई जुड़ाव हो सकता है?)

इस ब्लॉग पर टिप्पणी करने की सुविधा देने का मेरा अभी कोई विचार नहीं है। टिप्पणियाँ पाने गहरी हार्दिक इच्छा और उसके लिये हर समय अपने ईमेल अकाउंट को चैक करते रहने की लालसा से जब तक हो सके मैं बचना चाहता हूँ।

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