सबसे पहले तो मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं यहाँ भौतिक जगत की प्रतियोगिताओं में किसी के बराबर होने या किसी से आगे होने की बात नहीं कर रहा। यहाँ बात भावनाओं और भावनाओं की अभिव्यक्ति की हो रही है। प्रश्न यह है कि प्रेम और मित्रता जैसे संबंधो में क्या बराबर होने की भावना का महत्व होता है? और आगे स्पष्ट करना चाहूँगा कि यहाँ बराबर होने की नहीं वरन अपने को बराबर या ऊँचा मानने या मनवाने की बात हो रही है।
विपत्ति पड़े पै द्वार मित्र के ना जाइये
एक समय था जब इस उक्ति को मानते हुए ही सुदामा अपने मित्र द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के पास सहायता मांगने जाने में हिचकिचा रहे थे। उनका मानना था कि इस तरह मित्र के आगे हाथ फैलाने से उनके स्वाभिमान को ठेस लगती है। यह बात शायद ठीक भी हो लेकिन फिर आखिर मित्र होते किस लिये हैं? संसार में कोई भी मनुष्य पूर्णत: आत्मनिर्भर नहीं होता। जन्म लेने के तुरंत बाद वह जीने के लिये माँ पर निर्भर होता है। और फिर उसके बाद भी माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, सगे-संबंधी और मित्र उसके जीवन के पल्लवित, पुष्पित और फलित होने में किसी ना किसी रूप में सहायता करते हैं। तो फिर यह अहम कैसा कि विपत्ति पड़ने पर मित्र के द्वार नहीं जाना चाहिये? यदि मित्र से सहायता नहीं लेंगे तो क्या शत्रुओं से सहायता मांगी जाये? और क्या उनसे सहायता मांगने में हिचक नहीं होगी?
मित्र केवल हँस-बोल कर अपना खाली समय समय बिताने के प्रयोजन से नहीं बनाये जाते। मित्र की सहायता करना ही मित्रधर्म है। अंतत: सुदामा को यह बात समझ में आ गयी थी। वे द्वारिका गये और कृष्ण ने भी उनकी मित्रता का मान रखा। उन्हें अपने बराबर के सिंहासन पर नहीं बल्कि स्वयं अपने सिंहासन पर बिठाया। इसे एक मित्र के प्रेम की अभिव्यक्ति माना जा सकता है -लेकिन अपने स्वयं के सिंहासन पर बिठाने वाली यह बात इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इससे कृष्ण ने यह दर्शाया कि वे सुदामा को स्वयं से अलग नहीं मानते थे। अब चूंकि कृष्ण की निगाह में कृष्ण और सुदामा एक ही थे -सो सुदामा को बराबर का स्थान देने का कोई प्रश्न ही नहीं था।
प्रेम और मित्रता जैसे पवित्र संबंधों में बराबरी होने या ना होने जैसी बातों के आने से इन संबंधों की गरिमा और पवित्रता को क्षति पँहुचती है। बहुत समय से मैं नारीवाद के चलते बराबरी की यह बातें सुनता आया हूँ। मेरी दृष्टि से देखें तो स्त्री और पुरुष एक ही शय के आधे-आधे घटक हैं। और यही बराबरी है। यह सच है कि प्रकृति ने इन दोनो घटकों को अलग-अलग तरह का शरीर, कुछ अलग-अलग भावनाएँ और व्यहवार दिये हैं। पुरुष नाम के घटक की देह सामान्यत: अधिक शक्तिशाली होती है और इसी के चलते मानव ने विकास के क्रम में (मानवता छोड़ते हुए) स्त्री नामक घटक का दमन किया है। इसमें कोई शक नहीं है। प्रकृति ने जो बराबरी स्त्री-पुरुष को दी थी उसका उलंघन पुरुषों ने किया -यह सच है।
समय कभी रुकता नहीं और हमेशा चलता बदलता रहता है। आज स्त्री अपनी खोयी हुई बराबरी को पाने के लिये प्रयत्नशील है। यह देख कर मन बहुत प्रसन्न होता है। हालांकि मैं स्त्री को मनसा, वाचा, कर्मणा बराबर मानता हूँ -लेकिन पुरुष होने के नाते मुझे लज्जा का अनुभव भी होता है कि जो बराबरी प्राकृतिक-रूप से स्त्री की है -उसे आज स्त्री को पुरुषों लगभग छीनना पड़ रहा है।
जो नारीवाद स्त्री को सम्मान दिलाये उसे शत-शत नमन...
लेकिन मेरे मन में इसी कड़ी में अगला प्रश्न यह उठता है कि कहीं कुछ सौ वर्षों के बाद पुरुषवाद की ज़रूरत तो नहीं आ पड़ेगी? पुरुष देह अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली होती है। पुरुषों ने इसका अनुचित लाभ उठाया और स्त्री-पुरुषों से बने इस समाज में जितना मान, सम्मान और सुविधाएँ अधिकारपूर्वक उनकी थीं -उससे कहीं अधिक पर उन्होनें (बलपूर्वक) अधिकार कर लिया। नारी पिछड़ गयी।
वर्तमान संसार पहले से कहीं अधिक लोकतांत्रिक है। आज भी विश्व में हिंसा बहुत है लेकिन फिर भी इतिहास के किसी भी और दौर की तुलना में कम है। विरोध की आवाज़े आज भी दबायी जाती हैं लेकिन अब यह उतना आसान नहीं रहा जितना किसी ज़माने में हुआ करता था। इन सब परिवर्तनों के चलते आज नारी को अपनी आवाज़ उठाने का अवसर और साधन दोनों उपलब्ध हुए हैं। आज नारी (यानि विश्वभर की स्त्रियाँ) एक विकासशील देश की तरह है -धरती के कुछ हिस्सों में स्त्री पुरुषों के बिल्कुल बराबर है -और दूसरे कुछ हिस्सों में अभी विकास की काफ़ी गुंजाइश है। यह देख कर बहुत अच्छा लगता है कि स्त्रियों के दमन के दिन धीरे-धीरे ही सही लेकिन समाप्त हो रहे हैं।
जो प्रश्न मैनें पहले उठाया अब उस पर फिर से निगाह डाली जाये। क्या इतिहास अपने को दोहरा सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं होगा की अपनी इस शक्ति के मद में नारी वही करे जो पुरुषों ने किया था -दूसरे घटक का दमन? मुझे इस बात की कुछ हद तक आशंका है लेकिन यह आशंका बहुत गंभीर नहीं है। इस आशंका से कहीं अधिक चिंतित करने वाला प्रश्न यह है कि क्या नारीवाद से तप कर निकली नारी नारी रह जाएगी?
हालहि में मैनें एक सवाल किया था कि क्या प्रेम में पूर्ण समर्पण संभव है? मेरी नज़र में इसका उत्तर "हाँ" है। लेकिन जब भी मैं नारीवादी स्त्रियों के ख़्यालात से रू-ब-रू होता हूँ -तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि यह नारीवाद केवल बराबरी पाने की एक मुहिम नहीं है। कहीं ना कहीं इसकी नींव में पुरुषों के प्रति घृणा का भाव भी छुपा होता है। इस भावना के चलते एक ही शय के ये आधे-आधे घटक, स्त्री और पुरुष, कभी भी एक दूसरे के प्रति ऐसा समर्पण नहीं कर पाएंगे कि ये आधे-आधे ना रह कर एक हो जायें।
पुरुषों द्वारा स्त्री के दमन ने सामान्यत: पुरुषों को कोमल-भावनाओं से पूर्ण नहीं रहने दिया। तो क्या एक दिशाहीन नारीवाद भी स्त्रियों को कोमल-भावनाओं से रिक्त कर सकता है?
क्रमश:...
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