आज मन विचलित है। मन विचलित है यानि यह अपने स्थिर भाव से डिगा हुआ है और एक बात के बारे में बार-बार विचार कर रहा है। क्या यह बात वाकई में सच है कि इंसान किसी के लिये भी पूर्ण समर्पित नहीं हो सकता? क्या वाकई में जब लोग किसी से प्यार करते हैं तो उसमें कोई ना कोई स्वार्थ छुपा होता है?
अपने चारों ओर का संसार देख कर लगता तो यहीं है कि आज किसी में भी पूर्ण समर्पण कर देने की क्षमता नहीं बची है। आज की दुनिया में लोग प्यार अपने व्यक्तिगत आराम, कैरियर, यश और पैसे इत्यादि को ध्यान में रखते हुए करते हैं। त्याग की भावना, जो की सच्चे प्रेम का अटूट हिस्सा होती है, आज ढूंढे से भी नहीं मिलती। जिससे हम प्यार करते हैं उसके सुख के लिये अपने सुख का त्याग कर देना; ये अब किताबी बातें लगती हैं। कोई किसी को प्यार नहीं करता, जो भी है केवल कैल्कुलेशन है क्योंकि भावनाएँ अब "मैं" प्रधान हो गयी हैं। पति को वनवास जाना है तो अपना सब-कुछ छोड़ कर उसके पीछे-पीछे जाने वाली सीता अब नहीं हैं। पत्नी वनवास में कठोर धरती पर सोती होगी यह सोच नर्म बिस्तर छोड़ धरती पर सोने वाले राम भी अब नहीं रहे।
जो मैनें ऊपर कहा वह सामान्यत: सच है लेकिन अपवाद हमेशा होते हैं। सो मेरा विश्वास है कि धरती के किसी कोने में कम से कम कोई एक इंसान तो होगा ही जिसमें ऐसा कर सकने की क्षमता होगी। कोई तो ऐसा होगा जो ख़ुद को इसलिये मिट्टी कर देना चाहेगा ताकि वो किसी पौधे को सहारा दे सके। ऐसे इंसान कम ही होंगे लेकिन उससे भी कम ऐसे लोग होंगे जो इस तरह के समर्पण और प्रेम के मूल्य को पहचान सकें।
यदि मैं जीवन में एक भी ऐसे व्यक्ति से मिल सकूं जिसमें सच्चा प्रेम और पूर्ण समर्पण कर सकने की क्षमता हो तो मुझे लगेगा कि ज़िन्दगी सफल हुई।
लेकिन शायद यह संभव नहीं होगा।
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