प्रेम की पराकाष्ठा तभी पाई जा सकती है जब "बराबरी" और "मैं" जैसी चीज़ों से ऊपर उठ कर "समर्पण" और "तुम और केवल तुम" को अपनाया जाये। प्रेम करने वाला यदि अपने बारे में पहले सोचता है तो वह शायद प्रेम तो कर सकता है लेकिन प्रेम की उस चरम सीमा को नहीं पा सकता। इस संदर्भ में मुझे उद्धव और गोकुल की गोपियों का प्रसंग बहुत उचित लगता है। उद्धव जैसे ब्रह्म-ज्ञानी ने भी गोपियों से सीखा की प्रेम की पराकाष्ठा क्या होती है। जब तक उद्धव को केवल "मैं" से लगाव था और अपने ज्ञान का अभिमान था -तब तक वह ब्रह्म-ज्ञानी बनने की सीमा तक तो जा सकते थे लेकिन उस ब्रह्म को पा नहीं सकते थे। ब्रह्म यहाँ पर लक्ष्य है... ब्रह्म यहाँ पर वो प्रेमी है जिसे हम पाना चाहते हैं। उद्धव ने देखा कि गोकुल की गंवार गोपियों ने अपने प्रेमी कृष्ण को इस तरह पा लिया था कि वे कृष्ण के साथ एकाकार हो गयी थीं। इसके लिये उन गोपियों को समझदार या विद्वान बनने की ज़रूरत नहीं थी। उन्होनें केवल अपने-आप को पूर्ण-रूपेण कृष्ण को समर्पित कर दिया था। एक प्रेमी ने यह नहीं देखा कि कौन ऊँचा है और कौन नीचा... ना ही उसने अपनी बराबरी तौलने की कोशिश की। उसने केवल यह किया कि अपने आप को भुला कर अपना अस्तित्व अपने प्रेमी को समर्पित कर दिया।

खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार


अमीर खुसरो ने यहाँ केवल दो पंक्तियों में सारी बात कह दी है। प्रेम की पराकाष्ठा का पार वही पा सकता है जो इसमें डूब जाये। अपने अस्तित्व को विलीन कर दे। जो प्रेमी प्रेम के दरिया के पार उतरने की गणना में उलझा रहता है वो कभी पार नहीं उतरता। इस दरिया को पार करने के लिये इसमें डू़ब जाना पड़ता है। खुसरो की दो और पंक्तियाँ देखिये:

अपनी छब बनाय के, जो मैं पी के पास गयी
जब छब देखी पिया की, तो मैं अपनी भूल गयी


जिस समर्पण की हम बात कर रहे हैं -सूफ़ी संत शायद उसके सबसे नज़दीक पँहुचने वालो में से हैं। उस "एक" के इश्क़ में इन संतो ने अपना सब कुछ भुला दिया और जब अपनी भावनाओं को बयां किया तो वो भी इस शिद्दत के साथ कि सुनने/पढ़ने वाले हर व्यक्ति को वह अपनी ही बात लगने लगती है। प्रेम में पूर्ण समर्पण ज़रूरी है। प्रेम है ही पूर्ण समर्पण। बाद में मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी यही बात अपने ही अंदाज़ में कही।

ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है


सच्चा इश्क़ बहुत कठिन काम है -एक आग के दरिया को पार करने के समान है। ऊपर से ये कि इस दरिया को पार नहीं करना है बल्कि इसमें डूबना ही लक्ष्य होता है।

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