हालांकि अधिक समय नहीं हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि इस रचना को लिखे हुए एक अरसा बीत गया है।

लेखक: ध्रुवभारत
28 फ़रवरी 2008 को लिखित

तुम कल्पना साकार लगती हो
नभ का धरा को प्यार लगती हो

फ़सल भरे खेतों के पार
हो उड़ती चिड़ियों की चहकार
ग्रीष्म उषा की ठंडी बयार
सावन बूंदो की बौछार

हो खिली सर्दी की धूप सुहानी
मधु-ऋतु का सिंगार लगती हो

नभ का धरा को प्यार लगती हो

कर्म, वाणी और मन में
सुमन हो शूलों के इस वन में
आस्था प्रेम की तुम आशा हो
पूर्ण सौन्दर्य की परिभाषा हो

जीवन के सूने मंदिर में
तुम ईश का सत्कार लगती हो

नभ का धरा को प्यार लगती हो

जीवन का शुभ शगुन हो
मीठी-सी कोई धुन हो
हर पल की तुम हो मनमीता
करती जीवन-वीणा संगीता

मुझ-सा कहाँ तुम्हे पाएगा
तुम खुशियों का संसार लगती हो

नभ का धरा को प्यार लगती हो

किनारे संग नदिया है रहती
कली मधुप से यही है कहती
जीवन रंगो से भर जाता
जब साथ कोई है साथी आता

किन्तु हमेशा जो रही अनुत्तरित
तुम मेरे मन की पुकार लगती हो

तुम कल्पना साकार लगती हो
नभ का धरा को प्यार लगती हो

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