30 अक्तूबर को विदेश-प्रवास से घर वापस लौटते ही बड़ा सुकून महसूस हुआ। शरीर को हवा में घुली हल्की-सी ठंड की सिहरन का अनुभव हुआ। दीपावली का त्यौहार कुछ दिन पहले जा चुका है लेकिन दीपावली के निशान अभी भी आस-पास देखे जा सकते हैं। अधिकतर घरों को नए रंग-रोगन से सजाया गया है। शाम ढले अभी भी इक्की-दुक्की अतिशबाज़ी आसमान को रौशन कर देती है। घरों में बिजली के बल्बों की लड़ियाँ, कंदीलें और वंदनवार इत्यादि से की गयी सजावट अभी भी बाकी है।
दिल्ली शहर की सर्दियाँ बहुत सुखकर होती हैं। तापमान ना बहुत कम होता है और ना बहुत ज़्यादा। अधिकांश दिनों में सूर्य अपनी सुहावनी धूप बिखेरता है। धूप में बैठ कर कोई किताब पढ़्ते हुए गाजर, मूंगफ़ली और अमरूद खाने का आनंद किसी समुद्र किनारे धूप सेकने से कम नहीं है (ये और बात है कि समुद्री किनारे पर धूप सेकने को अच्छी छुट्टियों का एक फ़ैशनेबल प्रतीक मान लिया गया है)। ब्रिटेन में मैनें शायद ही कभी उगता सूरज देखा हो। वहाँ ज़िन्दगी प्रकृति से काफ़ी कटी-कटी रहती है। देर रात तक पार्टी या काम करना और फिर देर से सो कर उठना। कुछ हद तक प्रकृति भी खुद को मनुष्य से काटती हुई प्रतीत होती है। ठंड ज़्यादा होती है, बारिश और बर्फ़ सर्दियों के मौसम में तो रुकते ही नहीं, सूरज देर से निकलता है और जल्दी छुप जाता है। ठंड से बचने के लिये घर ऐसे बनाये गये हैं कि हवा के आवागमन का कोई मार्ग नहीं होता। यह घर सर्दी में काफ़ी आरामदेह तो होते हैं लेकिन वो जो सर्दी के मौसम की एक मीठी-सी सिहरन होती है उसका अहसास इन घरों में नहीं होता। चारों तरफ़ एक सन्नाटा-सा छाया रहता है।
यहाँ दिल्ली में, या कम-से-कम दिल्ली के नॉन-पॉश इलाकों में, तो सुबह 4-5 बजे से ही ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार पकड़ने लगती है। बहुत से घरों में बत्तियाँ सूरज के निकलने से पहले ही जल जाती हैं। कोई रिक्शा-वाला अपनी रिक्शा को ले काम की खोज में निकल पड़ता है। लोग मुंह अंधेरे ही नहा-धो कर अपनी किराने की दुकानें खोल लेते हैं और ग्राहक भी जल्दी ही दूध, ब्रैड और अखबार खरीदने आने लगते हैं। सूरज के निकलने से पहले ही मंदिरों से आरती और मस्जिदों से अज़ान की आवाज़े वातावरण को जीवंत कर देती हैं (ऐसा लगने लगता है कि दुनिया में हम अकेले नहीं हैं)... सूरज निकलते ही ऐसा अक्सर होता है कि कोई साधु द्वार पर आकर अलख जगाता है। हमारे यहाँ एक वृद्ध ब्राहम्ण हर द्वादशी के दिन भिक्षा मांगने के लिये आते रहे हैं। वे गेरुए रंग के साधु वेशधारी नहीं हैं। गंगा-घाट के पंडो की तरह हमेशा सफ़ेद धोती-कुर्ता पहनते हैं और कंधे पर एक लाल अंगोछा डाले रखते हैं। उन्हें देख कर बहुत अच्छा लगता है। उनकी आवाज़ बड़ी गहरी और मधुर है। जब से मैनें होश संभाला है मैनें उन्हें हर द्वादशी को भिक्षा मांगने आते देखा है। वे केवल द्वादशी को ही भिक्षा मांगते हैं और बाकि के दिन उसी भिक्षा से अपना और अपने परिवार का पोषण करते हैं। उन्होनें कभी आवश्यकता से अधिक ना तो मांगा और ना ही संग्रह किया। यही कारण है कि भिक्षा देने वाले लोगों ने उन्हें हमेशा बड़ी प्रसन्न्ता से भिक्षा दी है। मुझे याद है जब उनकी बेटी सयानी हो गयी और उसके विवाह का समय आया तो उसके लिये सभी लोगों ने बहुत खुशी से उपहार भेंट किये। यह ब्राहम्ण व्यक्ति मुझे बहुत पसंद हैं। ऐसा इसलिये नहीं कि वे जाति या कार्य से ब्राहम्ण हैं बल्कि इसलिये कि वे एक मर्यादित और संतोषी जीवन जीने का उदाहरण बन कर सामने आते हैं।
सूरज थोड़ा और चढ़ता है तो कोई गुब्बारे-वाला अपना बाजा लेकर सड़क पर निकल पड़ता है। स्कूल जाने वाले बच्चे तैयार हो, वर्दी पहने, बस्ता कमर पर लट्काये स्कूलों की ओर चल पड़ते हैं। साइकिल सवार अपने कार्य-स्थल की ओर जाने लगते हैं (कारों से सफ़र करने वाले थोड़ा देर से घर से निकलते हैं)। मजदूर भी जल्दी-जल्दी चल पड़ते हैं। हमारे यहाँ मज़दूर थोड़ी-से पैसे लेकर बहुत काम करते हैं। जब कभी हमारे घर में चिनाई का काम लगा तो मैनें देखा है कि किस तरह मज़दूर का दिन सुबह सूरज निकलने से पहले ही शुरु हो जाता है और सूरज के छिप जाने के बाद तक उसका कार्य जारी रहता है। दिन-भर वे काम करते हैं और ठेकेदारों की गालियां खाते हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनकी नींद बिना बैड-टी के नहीं खुलती, जो अगर किसी पब में जाकर हर रात "ड्रिंक्स" ना ले ले तो उन्हें जीवन अर्थहीन लगने लगता है, जिन्हें कार के बिना अगर 100 कदम भी चलना पड़ जाये तो वे "व्हाट द हैल" कह कर सारी कायनात को कोसने लगते हैं। इन लोगों को जब मैं इन मज़दूरों के बराबर रख कर देखता हूँ तो लगता है कि अत्यधिक संसाधनों की उपलब्धता हमें कहीं ना कहीं कमज़ोर भी बनाती है।
मैं अब सुबह 5 बजे ही सो कर उठ जाता हूँ। वातावरण में थोडी़ सी ठंड, सड़कों पर लोगो का आना-जाना शुरु हो जाना, आंगन में चिड़ियों चहचहाहट; इन सबके चलते नींद अपने-आप ही 5 बजे बिना किसी अलार्म की मदद के खुल जाती है। ऐसा भी नहीं लगता कि नींद पूरी नहीं हुई। उठ कर ताज़गी का अनुभव होता है। मुझे लगता है कि ब्रिटेन में जो मैं सप्ताहांत में 8-9 बजे तक सोता था सुबह 7 बजे उठ कर ऑफ़िस जाने के लिये तैयार होते हुए भी ऊंघता रहता था; वो सब कितना बेमानी था। सच यह है कि वहाँ मैं ज़रूरत से ज़्यादा सोता था। यहाँ दिल्ली में सुबह 5 बजे उठ कर मेरे दिन को 2-3 घंटे नींद से अधिक अर्थपूर्ण कुछ करने के लिये और मिल जाते हैं।
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