मैं मन का पंछी, इस सूने आकाश में अकेला बिना किसी संगी-साथी के उड़ रहा हूँ। अकेलापन -यही मेरा भाग्य है। मेरा आकाश एक वीराने से भी कहीं सूना है। मेरे कान जैसे किसी आवाज़ का सहारा ढूंढते रहते हैं; पर कोई आवाज़ नहीं आती। चहूँ ओर केवल एक गूंजता हुआ सन्नाटा है। किसी की खोज में आंखे दूर क्षितिज को चीरती चली जाती हैं; पर कुछ दिखाई नहीं देता। कुछ दिखता है तो वही निर्दयी समानता से फैला आकाश का नीला रंग। कितनी ही दूर तक देखिये यही नीला रंग फैला है -यहाँ -वहाँ -हर तरफ़ वही आकाश का नीला रंग। मैं जानता हूँ कि कुछ और देख पाने की मेरी इच्छा की पूर्ति संभव नहीं -इसीलिये मैनें इस नीले रंग में ही कुछ बदलाव ढूंढने की कोशिश की थी। लेकिन सिर्फ़ हताशा ही हाथ लगी। इस नीले रंग में कहीं भी लेश-मात्र भी बदलाव नहीं है -इसका कोई किनारा नहीं है। यह मेरे हर तरफ़ इतने समान भाव से फैला है कि अब मुझे दिशा का ज्ञान भी नहीं रहा। मैं नहीं जानता कि मैं किस ओर जा रहा हूँ। सब दिशाएँ एक जैसी ही लगती हैं।
बस उड़ते रहना मेरी नियती है। इस विरहित सूने आकाश में किसी गंतव्य को पाने के बारे में सोचना भी अपने-आप को सांतव्ना देने जैसा होगा। जलता हुआ सूरज ठीक मेरे ऊपर चमक रहा है। आंखों को चुंधिया देने वाली चमक सब तरफ़ बिखरी हुई है और आग की लपट के समान गर्म हवाओं के थपेड़ों से मेरा शरीर जल रहा है। सूरज ऊपर है और ऐसा लगता है कि जैसे नीचे धरती पर भी कोई दावानल धधक रहा है। गर्म हवाएँ सब ओर से आकर जैसे मेरे शरीर से पानी की आखिरी बूंद भी सुखा देना चाहती हैं। इन गर्म हवाओं के पास भी तो ठंडक पाने का और कोई रास्ता नहीं है। संभवत: इसी लिये यह हवाएँ मुझ पर दया नहीं करती। ये मुझे जला कर ही संतुष्टि प्राप्त करती हैं।
मेरा गला प्यास के मारे सूखकर चिपक चुका है और अब कंठ से कोई आवाज़ भी नहीं निकलती। पहले मैं कभी-कभी घोर हताशा में खु़द पर ही चिल्ला लिया करता था पर अब वो भी नहीं कर सकता। मेरे पंख थक कर मेरे शरीर से टूट अलग होना चाहते हैं। मेरे लिये अपने पंखों को दिलासा देना मुश्किल हो रहा है। लेकिन अंतिम सांस तक उड़ना तो है -इसलिये मेरे पंखों -बस कुछ देर और अपने को संभाले रहो। हिलते रहो ताकि शरीर आगे बढ़ सके -उसी नीले क्षितिज की तरफ़। हाँ वही नीला क्षितिज -देखो! पास ही है ना! वहाँ शरीर आराम पाएगा। वहाँ अमृत के झरने होंगे जहाँ मैं अपनी प्यास बुझा सकूंगा। वहाँ किसी वृक्ष की ठंडी छांव में आराम की नींद सो सकूंगा। वहाँ मेरी सारी थकान दूर हो जाएगी। सारी मांसपेशियों को आराम आएगा। आत्मा भी स्वतंत्रता का अनुभव करेगी। मुझे नींद आएगी और मैं सो जाऊंगा।
इन विचारों के आते ही मुझमें कुछ स्फ़ूर्ती आयी है। पर शरीर अब भी साथ नहीं देना चाहता। मुझ मन की यही तो विडम्बना है -ये मेरा ही कार्य है कि मैं शरीर को आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करूं। ऐसा करने के लिये मैं शरीर को अलग-अलग प्रकार से प्रोत्साहित करता हूँ। पर मैं तो मन हूँ -जानता हूँ कि प्रोत्साहन केवल कुछ देर के लिये है। शरीर को थोड़ी ही देर में फिर से ऐसे ही सुंदर सपनें दिखाने होंगे -सपनें जो कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। मुझे तो शरीर पर दया आती है। इतना थक कर भी उड़ते रहना -यही इसकी नियती है।
मैं तो जानता हूँ कि क्षितिज के पार कुछ भी नहीं है। वास्तव में क्षितिज मृगतृष्णा का ही एक रूप है। कोई कभी क्षितिज तक नहीं पँहुच सकता क्योंकि क्षितिज का कोई अस्तित्व है ही नहीं। फिर भी मन होने के नाते मुझे शरीर को इस मृगतृष्णा में डालना पड़ता है -अन्यथा शरीर आगे नहीं बढ़ेगा। प्रकृति कितनी निर्दयी है।
मैनें सुना है कि प्रकृति ने मुझ जैसे हर एक मन को एक साथी दिया है। दो मन जब एक साथ उड़ते होंगे तो कितना अच्छा लगता होगा ना! वे एक-दूसरे का सहारा बन सकते होंगे। एक मन के पंखों से आती हवा -दूसरे के परों को सहलाती होगी -ठंडक देती होगी। उन्हें दिशा-ज्ञान ना भी हो तो क्या? मैं अकेला मन का पंछी, दिशा-ज्ञान इसीलिये तो चाहता हूँ कि सही दिशा में आगे बढ़ सकूं -कि शायद कहीं कोई साथ उड़ने वाला एक साथी मन मिल जाये। पर जाने क्यों प्रकृति ने मुझे एक साथी मन नहीं दिया। एक साथी -जिसके बारे में सोचकर मैं अपने दुखों और अपनी इस थकान को भुला सकूं। एक साथी -जो मेरे बारे में सोच सके। दोनो एक दूसरे पर अपने पंखों की छाया कर सकें -एक दूसरे को जलते सूरज की तपन से बचा सके। जाने क्यूं प्रकृति ने मुझे एक साथी नहीं दिया?
ख़ैर, अब अधिक देर नहीं। मैं जानता हूँ कि शरीर के साथ में स्वयं मैं भी हार चला हूँ। जी में आता है कि अपने पंखों से कह दूं कि वे रुक जाएं और शरीर को गिर जाने दें। आज तक उड़ते-उड़ते मैं कोई किनारा नहीं पा सका तो शायद गिरते हुए ही किसी किनारे को पा जाऊं।
मेरी आंखें बंद होने को हैं। मेरे पंख वीरों की भांति अब भी पूरी ताकत से शरीर को आगे बढ़ा रहे हैं। ये अंतिम क्षण तक शरीर को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन अब इनका हिलना ही इनके जल्द ही रुक जाने का सूचक बन गया है। मेरी आंखे बंद होते-होते भी हमेशा की तरह शरीर के लिये दिशा तलाश रही हैं। परंतु हमेशा की तरह आंखों को अगर कुछ दिखाई देता है तो वही -एक सूना आकाश...
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