एक समय जीवन में ऐसा आया था जब मुझे स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिये किसी माध्यम की ज़रूरत आ पड़ी थी। शायद हर जीवन में ऐसे समय आते हैं। मैनें खुद को जांचा तो पाया कि मैं तो अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम का ज्ञान नहीं रखता था। नृत्य, संगीत, गायन, अभिनय, चित्रकला, लेखन इत्यादि किसी भी विधा में स्वयं को व्यक्त करना मुझे नहीं आता था। लेकिन अभिव्यक्ति की आवश्यकता बहुत बड़ी और गंभीर थी। सो अंतत: मैनें शब्दों को माध्यम बनाने का विचार किया। कविता लिखने लगा। शुरु में केवल अपने लिये लिखता था; बाद में कुछ करीबी मित्रों के साथ बांटने लगा। धीरे-धीरे एक भ्रम मन में पलने लगा कि मैं भी कविता लिख सकता हूँ। कविता-लेखन ने मुझे अभिव्यक्ति का माध्यम दिया यह बात तो ठीक है; लेकिन स्वयं को कवि मान लेने का भ्रम ना जाने क्यों मुझ पर हावी होने लगा था। जैसे-जैसे मैनें प्रशंसा पाने के अपने गुप्त एजेंडा के चलते अपनी "कविताएँ" और अधिक लोगो से बांटनी शुरु की तो सत्य सामने आने लगा। कई लोगो ने ईमानदारी से मुझे बताया कि मैं अच्छा नहीं लिखता और मेरा मन टूट गया। मैनें लिखना बंद कर दिया। कैसी अजीब कैफ़ियत होती है ना मानव मन की! ज़रा-सी ठेस लगते ही टूट जाता है।

बहरहाल, अब मैनें फिर से लिखने की ठानी है। क्योंकि अब फिर वैसा ही समय है कि मुझे अभिव्यक्ति की बड़ी और गंभीर आवश्यकता है। यह ब्लॉग भी शायद इसी आवश्यकता का परिणाम है। आशा बस यह है कि कवि होने का भ्रम मेरे ऊपर फिर से सवार ना हो। जब तक कुछ नया ना लिख लूं तब तक कुछ पुरानी "कविताएँ" ही यहाँ पोस्ट करूँगा।


लेखक: ध्रुवभारत
02 नवम्बर 2007 को प्रात: 10:00 बजे लिखित
ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?
आंधी ललचाई-सी आँखें लिये
तुम्हारा शिकार करना चाहती है
धूप, जो कभी दोस्त थी
आज चाहती है तुम्हें देना जला
तुम्हारा तन, ये तना
अब तो खोखला हो चला

क्या तुम उन पंछियों की सोचते हो?
जिन्होनें बसाये थे तुम पर
अपने घर और सपनें नये
आंधी ने ज़रा तुम्हें हिलाया
वे साथ तुम्हारा छोड़ गये

कहीं सोचते तो नहीं तुम
उसके बारे में
वो गिलहरी थी जो
इक इस संसार सारे में
बहुत खुश होते थे तुम
देख उसकी अठखेलियाँ
सोचते थे कि यही जीवन है
सुंदर सा, प्यारा सा

पर तुम भूल गये थे कि
तुम तो केवल एक पेड़ हो
चल नहीं सकते
देखो दुनिया, पंछी और गिलहरी
सब आगे दौड़ गये हैं
बोलो अब वे कहाँ हैं?
है कौन इस वीराने में
तुम्हारे साथ?
अकेले जीवन अब लगता तुमको
काली एक अंधियारी रात

हाँ-हाँ मालूम है
एक सूखी, जली, मुरझाई हुई पत्ती
जिसे तुम उम्मीद कहते हो
अब भी तुमसे जुड़ी हुई है
पर क्या एक मुरझाई हुई
उम्मीद के सहारे
इतना दर्द सहना ठीक है?
क्या पा लोगे कुछ और पल
यूँ ही इस ज़मीं पर खडे़ हुए?
ना तुम में छाया है
फल फूल तो छोडो़
ईंधन भी ना बन सके
ऐसी तुम्हारी काया है

सुनो ओ पेड़, तुम गिर जाओ
खुश हो लेने दो आंधी को
अपनी थकी हुई जड़ों को आराम दो
तुम्हे जला संतोष मिलेगा
धूप को भी कुछ काम दो
गिर कर तुम जो खाली करोगे
उस जगह उगेंगे नये पौधे
कड़वे फलों और पैने काँटों का भी
है इस जग में महत्व बड़ा
तुम पूरी तरह उपयोगहीन
क्यूँ चाहते हो रहना खड़ा?
यूँ खड़े-खड़े भला
तुम किसके हो काम आते?

ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?

ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?

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