आज लिखने बैठा तो जो लिखा उसने कुछ-कुछ कहानी जैसा रूप ले लिया।

ऊपर की शेल्फ़ पर रखे टिन के एक छोटे-से डिब्बे को दीपा ने उतारा और उसमें से बहुत संभालकर दो सौ रुपये निकाले। डिब्बे में बस इतने ही रुपये थे। ऐसा डिब्बा हर विवाहिता स्त्री के पास होता है जिसमें वह घर की आमदनी से बचाकर कुछ पैसे इकठ्ठे करती है ताकि यह पैसे मुश्किल पड़ने पर उपयोग किये जा सकें। पुरुष में यह हुनर नहीं होता और इसीलिये अक्सर कहा जाता है कि घर की बरकत स्त्री के हाथ में ही होती है।

दीपा को यह रुपये रमेश ने दो महीने पहले करवाचौथ पर उपहार में दिये थे। वह दीपा को साथ ले जाकर इन रुपयों से दीपा के लिये उसकी पसंद की साड़ी खरीदना चाहता था। लेकिन दीपा ने रुपये लेकर कहा कि अभी उसके पास दो साड़ियां हैं और वह ज़रूरत पड़ने पर इन रुपयो से कुछ महीने बाद एक और साड़ी खरीद लेगी।

रमेश पास की एक फ़ैक्ट्री में मैकेनिक का काम करता है। पगार के नाम पर बस इतने ही पैसे मिलते हैं कि घर का खर्च बड़ी मुश्किल से चल पाता है। साइकिल ना होने के कारण रमेश फ़ैक्ट्री आने-जाने के लिये रोज़ तीन किलोमीटर चलता है पर अपने लिये साइकिल नहीं खरीद पाता। फिर भी दो-दो चार-चार रुपये करके वह भी अपने पास थोड़े पैसे जमा करता रहता है ताकि दीपा के लिये कभी-कभार कोई उपहार खरीद सके। ये दो सौ रुपये इसी तंग हाथ से पैसे खर्च करने की आदत का नतीजा थे। वरना दो सौ रुपये की जमापूंजी इस दम्पत्ति के लिये एक सुखद सपने जैसी बात ही है।

दीपा भी इस तंगहाली में जीवन की गाड़ी को आगे बढा़ने में रमेश की मदद करती है। घर में हाथ से चलाई जाने वाली एक सिलाई मशीन है। मोहल्ले के लोग कमीज़, ब्लाउज़, बच्चों की निक्कर जैसे कपड़े दीपा से ही सिलवा लेते थे। लेकिन अब ऐसा काम बस कभी-कभार ही मिल पाता है। लोग अब ज़्यादा पैसा देकर दुकान वाले दर्ज़ियों से फ़ैन्सी स्टाइल के कपड़े बनवाना अधिक पसंद करते हैं। हमारा मध्यम-वर्ग अब बदल रहा है। कभी-कभार मिले सिलाई के ऐसे कामों से दीपा को जो पैसा मिलता है उसे वह एक गुल्लक में इकठ्ठा करती रहती है और उसने प्रण किया है कि इसका उपयोग बस किसी आपात स्थिति में ही करेगी।

रमेश आज सुबह जल्दी ही फ़ैक्ट्री चला गया। आजकल फ़ैक्ट्री में काम कुछ ज़्यादा है इसलिये ओवरटाइम करने का अवसर मिल रहा है और रमेश खुश है कि कुछ अतिरिक्त पैसे इस महीने मिल जाएगें। उधर दो सौ रुपये हाथ में लिये दीपा भी बहुत खुश है। उसने घर का काम जल्दी-जल्दी निपटाया था। एक निक्कर सीलनी थी -वह भी फ़टाफ़ट सील कर पड़ोसन को दे आयी थी। उसे इस काम के 15 रुपये मिले और उसने ये रुपये बाकयदा गुल्लक में डाल दिये। फिर दीपा जल्दी-जल्दी नहा-धोकर तैयार हुई। सुबह के दस बज चुके थे और आज उसे एक बहुत ज़रूरी काम करना था।

साढे़-दस बजे दीपा पास की मार्केट में एक कपड़े वाले की दुकान पर थी और दुकानदार उसे सूती कपड़ों के थान खोल-खोलकर दिखा रहा था। दीपा की नज़रें ऊपर की अलमारियों में लगे महंगे कपडों पर थी और उसे एक हल्के नीले रंग का कपड़ा बहुत भा रहा था। लेकिन दुकानदार ने उसका भाव बहुत अधिक बताया। दीपा इतने पैसे नहीं दे सकती थी -उसके पास तो केवल दो सौ रुपये थे। आखिरकार बड़े अच्छे-से जांच-परख कर दीपा ने एक स्लेटी रंग का कपड़ा खरीद लिया और उसके लिये 170 रुपये चुका दिये। कपड़ा कोई बहुत अच्छा नहीं था लेकिन उसके पास बस इतने ही पैसे थे। कपड़ा खरीद कर दीपा बहुत खुश थी। फिर वह एक और दुकान पर गयी जहाँ से उसने उसी स्लेटी रंग का धागा और कुछ मैचिंग बटन खरीदे।

बारह बजे तक दीपा सब सामान लेकर घर आ गयी थी और आते ही उसने कपड़े की कटाई शुरु कर दी। लगातार काम करते हुए उसने दोपहर का खाना भी नहीं खाया। उसे यह काम शाम से पहले ही पूरा करना था। शाम पाँच बजे तक स्लेटी रंग का कपड़ा एक कमीज़ की शक्ल ले चुका था। अगले मोहल्ले में इस्त्री करने वाले का ठीया था। दीपा दौड़ी-दौड़ी वहाँ गयी और कमीज़ को दो रुपये दे कर इस्त्री करवा लाई। इस्त्री जैसी चीज़ों पर खर्च करने के लिये इस युगल के पास पैसे नहीं थे। लेकिन यह नई सिली कमीज़ ख़ास है। इस पर अब के बाद शायद कभी इस्त्री नहीं होगी लेकिन आज तो दीपा इसे जितना अच्छा हो सके उतना अच्छा बना देना चाहती थी। दो सौ रुपये के अंदर दीपा ने शाम छह बजे तक कमीज़ तैयार कर दी थी। आज उसके पांवों में एक थिरकन-सी है। दीपा बहुत खुश है। शाम के खाने के लिये दाल पकाते हुए जाने क्या सोच-सोच कर मुस्कुरा रही है, गुनगुना रही है।

सवा-सात बजे के करीब रमेश थका-हारा घर पँहुचा। वह सुबह छह बजे ही फ़ैक्ट्री के लिये घर से निकल गया था। घर आते ही वह एक पटरी लेकर स्टोव के पास बैठ गया। दीपा ने स्टोव पर चाय का पानी चढ़ा दिया था और वहीं बैठी थी।

"दीपा, आज तो फ़ैक्ट्री में बस पूछो मत कितना काम था। शरीर टूट रहा है। पर अच्छा है, कुछ अतिरिक्त पैसे मिल जाएंगे इस महीने। फिर घर के दरवाज़े को ठीक करवा लेंगे। अब तो बस नाम का ही दरवाज़ा रह गया है -जाने कब गिर जाये। अच्छा तुम्हारा दिन कैसा रहा?", रमेश ने एक चम्मच से स्टोव पर चढी चाय को हिलाते हुए कहा।

"दिन बहुत अच्छा रहा। लेकिन मुझे तुम्हारा इतनी अधिक मेहनत करना अच्छा नहीं लगता। ये ओवरटाइम करना कोई ज़रूरी तो नहीं"

"ज़रूरी तो नहीं है, लेकिन दीपा मेहनत तो करनी ही पड़ती है। तुम भी तो कितनी मेहनत करती हो। मैं तो कहता हूँ कि तुम ये सिलाई के काम मत लिया करो। सारा दिन घर संभालती हो वो क्या कम है"

"सिलाई का काम अब मिलता ही कहाँ है, महीने में मुश्किल से एक-दो कपड़े सीलने के लिये मिलते हैं"

उनके इसी तरह बातें करते-करते चाय तैयार हो गयी। दीपा ने स्टील के दो गिलासों में थोड़ी-थोड़ी चाय डाली और एक गिलास रमेश को दे दिया। वे वहीं स्टोव के पास बैठे हुए बातें करते-करते चाय पीने लगे। रोज़ शाम को दीपा के साथ बैठ कर चाय पीने के इन कुछ मिनटों में कुछ ऐसा असर था कि रोज़ ही रमेश की सारे दिन की थकान इन्हीं पलों में छू-मंतर हो जाती थी। दीपा की आंखों में छांक कर उसे असीम सुकून मिलता था।

रमेश आराम से बातें करते हुए धीरे-धीरे चाय की चुस्किया ले रहा था। दीपा ने अपनी चाय खत्म करके गिलास बर्तन मांजने की जगह पर रख दिया। फिर वह उठ कर अंदर के कमरे में गयी और आज उसने जो कमीज़ सीली थी उसे ले आई। वापस रमेश के पास बैठते हुए उसने वह कमीज़ पटरी पर बैठे रमेश की गोद में रख दी।

"ये कमीज़ तुम्हारे लिये है", दीपा ने कहा

"मेरे लिये? लेकिन..."

"अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। मैं खरीद कर नहीं लाई हूँ... मैनें खुद सीली है।", दीपा ने मुस्कुराते हुए कहा

"ओह दीपा!...", रमेश ने चाय का गिलास एक ओर रख कर कहा और दीपा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उसे अपने कांधे पर टिका लिया। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे, बस वह दीपा के बालों को प्यार से सहला रहा था।

"लेकिन तुम्हारे पास कपड़ा खरीदने के पैसे कहाँ से आये?", कुछ पल बाद रमेश ने पूछा

"ये सब छोड़ो... पहले ये बताओ कि कमीज़ कैसी लगी"

"तुम्हारा उपहार मुझे कैसा लगेगा?... कुछ कहने को शब्द नहीं मिल रहे हैं दीपा। तुम्हें मेरा कितना ख्याल है और मैं तुम्हारे लिये कुछ नहीं..."

दीपा ने रमेश के होठों पर अपनी उंगली रख दी थी।

"तुम मुझे मिले हो क्या इससे अधिक खुशी और सौभाग्य की बात मेरे लिये कुछ और सकती है?", दीपा ने पूछा

"लेकिन तुमने इस कमीज़ के लिये अपनी गुल्लक से पैसे क्यों...", कहते हुए रमेश रुक जाता है और फिर उसके चेहरे पर अविश्वास और गहन प्रेम के मिले-जुले से भाव उभर आते हैं। उसने दीपा के चेहरे को अपने दोनो हाथों में लेते हुए कहा

"कहीं तुमने वो दो सौ रुपये..."

अब तक रमेश की आंखें भर आयीं थी। उसने दीपा को कस कर गले से लगा लिया। उसे पता था कि दीपा को पिछले तीन वर्ष से एक भी नई साड़ी नहीं मिली थी। रमेश के पास भी बस तीन कमीज़े थी जो अब टांके लग-लग कर जर्जर हो चली थी। दीपा ने उपहार में मिले उन दो सौ रुपयों में अपना प्यार मिला कर उन्हें अमूल्य कर दिया था। दुनिया का कोई भी कपड़ा आज दीपा की बनाई इस सूती स्लेटी कमीज़ का मुकाबला नहीं कर सकता था। प्रेम की भावना बहुत महान होती है और अगर उसमें त्याग की भावना मिल जाये तो वह ईश्वर हो जाती है। इस क्षण रमेश को लग रहा था कि उसकी बाहों में दीपा के रूप में स्वयं ईश्वर ही हैं। वह उस भावना के समक्ष नत-मस्तक हो जाना चाहता था। दीपा के त्यागपूर्ण प्रेम की विशालता के सामने वह अपने को बहुत सूक्ष्म अनुभव कर रहा था। लेकिन इस सूक्ष्मता ने उसे इतनी प्रसन्नता दी कि उसकी आंखे छलछला उठी...

अगले दिन रमेश वही कमीज़ पहन कर फ़ैक्ट्री की ओर जा रहा था। उसे लग रहा था कि जैसे इस कमीज़ से छन कर दीपा की हथेलियों की कोमलता और गर्माहट उसके शरीर तक पँहुच रही है। कमीज़ दीपा के प्यार से महक रही थी... और रमेश के चेहरे पर दीपा के प्यार की दमक थी।

0 comments:

Newer Post Older Post Home