सर्वेश सक्सेना समझ नहीं पा रहा है कि आज वैशाली इतना क्यों रोई और वह उससे इतनी नाराज़ क्यों है। लेकिन उसकी अंतरात्मा कारण जानती है और यह भी मानती है कि कारण वाज़िब है।

धनाढ्य पिता की इकलौती संतान होने से जो गुण-दोष किसी में उत्पन्न होते हैं वे सभी सर्वेश में दिखाई देते हैं। पैसे की कोई कमी नहीं है सो उसने पैसा बहाना भी खूब सीखा है। यार-दोस्तों के साथ अक्सर घूमने जाना, अपने खर्चे पर उन्हें सैवन-स्टार होटलों में ठहराना, महंगे से महंगे यातायात के साधनों का प्रयोग, पार्टियों में शराब इत्यादि पर खुल कर खर्चा... शराब... हाँ... इसी शराब के कारण आज वैशाली उससे इतनी नाराज़ है। सर्वेश का मन चाहता है कि किसी तरह सारा दोष शराब पर मढ़ दे। लेकिन मन का भी एक मन होता है और मन का यह मन जानता है कि दोष शराब का नहीं बल्कि ख़ुद सर्वेश का है।

सर्वेश में चाहे जितनी भी बुराईयाँ हों लेकिन दिल से वह एक अच्छा इंसान है। उसकी बुराईयाँ भी कुछ अनोखी नहीं हैं... पिता के पैसे ने उसे संसार को एक बिल्कुल अलग ढंग से देखने और मनमानी करने की छूट बचपन से ही दी हुई है। वह कठोर जीवन से दूर और उसकी वास्तविकताओं से अनजान रहा है। उसके लिये दुनिया में कोई डर नहीं, मर्यादा नहीं, बंधन नहीं, कोई ज़िम्मेदारी नहीं... धन की ताकत ने यह सब उसके जीवन से बहुत दूर कर दिया है। लेकिन फिर भी वह मूल-रूप से एक अच्छा व्यक्ति है -जो सोच सकता है और महसूस कर सकता है। उसकी उम्र 25 के करीब होने को आई है। एक बड़े विश्वविद्यालय से एम.बी.ए. करने के बाद उसने पिता के व्यापार में हाथ बंटाना शुरु तो कर दिया लेकिन बस नाम भर के लिये। पिता ने बार-बार कहा कि वह बिज़नेस के प्रति गंभीर बने लेकिन सर्वेश का मानना था कि अभी उसकी उम्र यह सब करने की नहीं हुई है। शुरु से ही पैसे की अत्यधिक उपलब्धता व्यक्ति को इसी तरह ढाल देती है। जीवन को दिशाहीन और संवेदनहीन बना देती है।

फिर वैशाली ने उसकी ज़िन्दगी में क़दम रखा। किसी फ़िल्म की कहानी की तरह वैशाली एक साधारण, पारम्परिक, भारतीय परिवेश में पली-बढ़ी लड़की थी। उसके परिवार ने जैसे-तैसे करके उसे अच्छी शिक्षा दी और उसी के सुफल से वैशाली एक चार्टेड अकाउंटेंट बन गयी। आज वह एक मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करती है और अपने परिवार के लिये अच्छी आजीविका कमाती है। जब वह सर्वेश से मिली से उसे सर्वेश कोई बहुत अच्छा व्यक्ति नहीं लगा लेकिन सर्वेश को वैशाली की "ऊंची सोच और साधारण जीवन" की बात भा गयी। वह वैशाली के करीब आने लगा। समय के साथ-साथ वैशाली को भी सर्वेश को और भली-भांति जानने का मौका मिला और उसने पाया कि तमाम ऊपरी बुराईयों को बावज़ूद सर्वेश एक अच्छा लड़का था।

सर्वेश को शराब पसंद थी। वह तकरीबन हर रात दोस्तों के साथ पब में जाकर शराब पीता था। वैशाली को सर्वेश की यह आदत बहुत बुरी लगती थी और उसे सर्वेश के स्वास्थ्य की चिंता भी थी। जब वैशाली और सर्वेश की मित्रता उस सीमा को पार कर गयी जब कि दोनो एक दूसरे पर कुछ अधिकार अनुभव करने लगे -तब एक दिन वैशाली ने सर्वेश से वचन लिया कि वह शराब पीना छोड़ देगा। सर्वेश वैशाली का बहुत सम्मान करता था और मन-ही-मन उससे प्रेम भी करने लगा था। इसलिये सर्वेश ने यह वचन देने में ज़रा भी देरी नहीं की और वैशाली का हाथ थाम कर कह दिया कि आज से वह शराब को कभी नहीं छुएगा। वैशाली ख़ुश थी कि उसके कारण सर्वेश कम-से-कम एक बुराई से तो दूर हटा। सर्वेश का इस तरह एक बेहतर इंसान बनना और इस परिवर्तन के होने में वैशाली की भागीदारी; ये दोनो ही बातें वैशाली को बहुत अच्छी लगने लगी थीं और वह भी धीरे-धीरे सर्वेश को प्रेम करने लगी।

इस तरह कई महीने बीत गये। सर्वेश और वैशाली एक दूसरे के बहुत करीब आ गये थे और दोनों बहुत ख़ुश थे।

लेकिन आज वैशाली सर्वेश से बहुत नाराज़ है।

सर्वेश ने वैशाली को वचन दे तो दिया था लेकिन उसने वचन के महत्व को नहीं समझा। उसने जीवन में कोई बंधन या मर्यादा कभी मानी ही नहीं थी। जब तक आसानी से हो सका उसने वचन को निभा दिया लेकिन कल रात जब दोस्तों ने बहुत अधिक ज़िद की तो उसने शराब पी लेने में कोई हर्ज़ नहीं समझा। उसने अधिक नहीं पी और आज सुबह वैशाली से मिलने पर उसे बता भी दिया कि कल रात उसने शराब पी थी। यह सुन कर वैशाली का मन टूट गया। वह रो पड़ी। सर्वेश ने बहुत कहा कि उसने केवल थोड़ी-सी ही शराब पी थी और उसे नहीं लगा था कि वैशाली इस बात का भी बुरा मानेगी। कल रात शराब का गिलास उठाते समय ऐसा नहीं कि सर्वेश अपने दिये वचन को भूल गया था। लेकिन उसके दिमाग़ ने ऐसे-वैसे कई तर्क गढ़ दिये और सर्वेश को विश्वास हो गया कि वह कुछ ग़लत नहीं कर रहा है। यूं तो सामन्यत: उसने पीना छोड़ ही दिया था -लेकिन कभी-कभार पी लेने में क्या हर्ज़ है... यह सोच कर उसने शराब अपने गले के नीचे उतार ली थी।

परेशान और नाराज़ वैशाली को उसके घर छोड़ कर सर्वेश अभी-अभी अपने घर पँहुचा है। अपने बड़े-से ड्राइंग रूम में एक कीमती सोफ़े पर बैठा वह सोच रहा है कि उससे आखिर कहाँ ग़लती हुई है। ड्राइंग रूम में एक बार है। सर्वेश बार-कैबिनेट में रखी शराब की बोतलों को देखे जा रखा है और बोतलें सर्वेश को देख रही हैं।

Character, not brain, will count at the crucial moment
-Rabindranath Tagore

विश्वास एक बहुत नाज़ुक डोर होती है। इसे कभी नहीं तोड़ना चाहिये। अपनी कमज़ोरियों को छुपाने के लिये हमारा दिमाग़ अपने पक्ष में कोई ना कोई तर्क बुन ही लेता है। तर्क करना और स्वयं को सही ठहराना -दिमाग़ इसी काम के लिये बना है -लेकिन भावनाएँ दिमाग़ में नहीं बल्कि मन में रहती हैं। इसी मन में रहता है हमारा चरित्र और हमारी अंतरात्मा। अंतरात्मा का कार्य हमें कचोटना और दिमाग़ के सभी तर्कों के बावज़ूद हमें सही-गलत का अहसास कराना होता है। विश्वास प्रेम की आधारशिला है -इसमें कभी कोई दरार नहीं आने देनी चाहिये। और इस कार्य में सहायता हमारा दिमाग नहीं बल्कि चरित्र करता है।

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