मेरी कल्पना का एक और रूप। लेकिन मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या ऐसी कल्पना सत्य सिद्ध हो सकती है?
लेखक: ध्रुवभारत (01 फ़रवरी 2007, बृहस्पतिवार, 1:45 सांय)
आवाज़: ध्रुवभारत |
तुम बैठी ऐसी लगती हो इस घने आम की छाँव में जैसे कोई पावन मंदिर हो इक छोटे से गाँव में बड़ी मनभावन लगती हैं ये सुंदर प्यारी हथेलियाँ जैसे प्रेम से सजी हुई हों दो पूजा की थालियाँ काजल लगे नयन खिले हैं ज्यों आने से वसंत नवल के हैं ज्यों श्याम के चरणों पर रखे हुए दो फूल कमल के आरती की घंटियाँ बजें लगती जब पायल बजती पाँव में तुम बैठी ऐसी लगती हो इस घने आम की छाँव में जैसे कोई पावन मंदिर हो इक छोटे से गाँव में उजाला करती मन के अंदर माथे पर बिंदिया दमकती नाक का मोती है जैसे कि दीपों की हो ज्योति चमकती सुगंध है साँसो में जैसे पुष्पों ने दिया खजाना खोल पंखुरी से होंठो से आती वाणी है ज्यों वीणा के बोल और मन ऐसा निर्मल है कि जीते सब कुछ एक दाँव में तुम बैठी ऐसी लगती हो इस घने आम की छाँव में जैसे कोई पावन मंदिर हो इक छोटे से गाँव में |
Labels: कविता जैसा कुछ
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