अभी ३-४ दिन पहले ही मैं एक विदेशी शहर में २ महीने रह कर लौटा हूँ। एयरपोर्ट पर उतरने से लेकर घर पँहुचने और उसके बाद से अब तक बहुत-से अच्छे बुरे अनुभव हुए जो शायद भारत में ही हो सकते हैं। इनमें अच्छे अनुभव ज़्यादा थे लेकिन शुरुआत ऐसी बातों से जहाँ हम भारतीयों में सुधार की गुंजाइश है।

फ़्लाइट के उतरने के बाद जो लोग व्हीलचेयर सहायता चाहते हैं वे बाकि सभी यात्रियों के उतरने के बाद उतरते हैं। जहाँ तक मेरा अनुभव है मैनें किसी फ़्लाइट में १० से अधिक ऐसे लोगो को नहीं देखा था जिन्होनें ऐसी सहायता की मांग की हो। लेकिन इस बार यह देख कर आश्चर्य हुआ कि तकरीबन ३० लोग अपनी सीटों पर बैठे रहे और सहायता के आने की प्रतीक्षा करते रहे। इतने लोगो के लिये व्हीलचेयर एयरपोर्ट पर एक-साथ उपलब्ध नहीं थीं (बाद में मालूम पड़ा कि एक दूसरी फ़्लाइट से १२ लकवाग्रस्त महिला खिलाड़ी भी लगभग उसी समय एयरपोर्ट पर पँहुची थीं और उनके लिये भी व्हीलचेयर्स चाहियें थीं)। मेरे विचार में केबिन क्रयू और एयरपोर्ट के व्हीलचेयर सहायकों ने मेरी फ़्लाइट के ३० लोगो की जल्द से जल्द सहायता करने की भरपूर कोशिश की लेकिन इन ३० लोगो में से अधिकांश का व्यहवार कहीं बेहतर हो सकता था। पहली बात तो यह कि इन ३० लोगो में से केवल १४ ने पहले से व्हीलचेयर बुक करायी थी। बाकि ने इस सुविधा को प्रयोग करने का मन फ़्लाइट के दौरान ही बना लिया। ये सभी वयोवृद्ध पुरुष व महिलायें थी। जिस देश से यह फ़्लाइट आई थी उसे जानते हुए यह कोई आश्चर्य नहीं कि इतने सारे वृद्ध व दुर्बल भारतीय यात्री अकेले सफ़र कर रहे थे।

एक और यह देख कर अच्छा लगा कि इतने सारे वृद्ध भारतीय अकेले इतना लम्बा सफ़र करने में नहीं झिझके थे। वहीं दूसरी ओर इनमें से अधिकांश की ओर से भारतीय जनता के व्यहवार की कुछ "टिपिकल" झलकियां भी देखने को मिलीं। नियम के अनुसार आपको यदि व्हीलचेयर की ज़रूरत है तो आपको उसे टिकट बुक करते समय ही बुक कराना होता है। लेकिन भारतीयों में नियमों का अनुसरण करने की प्रवृत्ति अभी भी ज़रा कम ही है इसीलिये ३० में से केवल १४ ने इस सुविधा की पहले से मांग की थी। व्हीलचेयर्स की कमी के कारण २-२ या ३-३ के समूहों में ही लोगों को हवाई जहाज से ले जाया जा रहा था। इससे जो यात्री पीछे रह रहे थे उनसे ५ मिनट का भी सब्र नहीं रखा गया। कोई केबिन क्रयू के कर्मचारियों को कोसने लगा तो कोई नागरिक उड्डयन मंत्रालय में अपने रिश्तेदारों के नाम गिना कर धमकियां देने लगा। पंक्ति बनाना या किसी और की बड़ी ज़रूरत के लिये अपनी बारी का त्याग कर देना हमारी आदत में शामिल नहीं है। कुछ लोगों ने बैठकर आपस में भारत की कमियों और विदेश की महानता का गुणगान आरम्भ कर दिया। वे भारत की हर बात को उस धरती की बातों से तौलने लगे जहाँ से वे भारत पँहुचे थे। ऐसे लोग इस तरह की बातें करते हुए स्वयं को बड़ा समझदार अनुभव करते हैं लेकिन उन्हें धेले भर की समझ नहीं है कि भारत जैसे विशाल और विभिन्न्ताओं से भरे देश की किसी भी और देश से कोई तुलना नहीं हो सकती।

जो भारतीय भारत की निंदा करता है उसे मैं कृतघ्न मानता हूँ। हमारा देश जैसा भी है हमारा अपना है। जो लोग अपने देश की निंदा करते हैं वे आगे बढ़ कर उसके लिये कभी कुछ नहीं करते। और मैनें यह भी देखा है कि जो लोग वाकई में देश के बारे में सोचते हैं और उसके लिये आगे बढ़ कर कुछ करते हैं वे देश की निंदा नहीं करते। ऐसे लोग निंदा की बजाये आशा और कर्म में विश्वास रखते हैं। मेरे निजी अनुभव के अनुसार हर समय बिजली कटौती को कोसने वाले वे लोग अधिक होते हैं जो अपने बिजली के मीटर से छेड़छाड़ करके बिल-कटौती करते हैं। टूटी सड़कों का रोना रोने वाले कितने लोग अपना आयकर अदा करते हैं -यह जानना ज़रूरी है।

यह सही है कि भारत में बहुत समस्याएँ हैं। यहाँ भ्रष्टाचार है, गंदी राजनीति होती है, सरकारी मशीनरी ढीली है; ये तमाम बातें सच हैं। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि लोगो को वैसी ही सरकार और वैसा ही सिस्टम मिलता है जिसके लायक वे हैं; यह बात बिल्कुल सच है। अपने देश को कोसना तो वैसे भी शिष्टाचार के खिलाफ़ है लेकिन बेहतर ये हो कि लोग कोसने की बजाये कुछ करें। पहले अपने गिरेबां में झांके और फिर देश की बात करें।

ऐसे भी लोग हैं जो या तो कुछ कर नहीं सकते या कुछ करना नहीं चाहते। ऐसे लोगों से कम-से-कम इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है कि वे जो बोलें अच्छा, सकारात्मक और आशापूर्ण बोलें। कुछ लोग तो इतने निर्लज्ज और अहमक़ होते हैं कि विदेशियों के सामने भी अपने देश की बुराई इस शान से करते हैं जैसे कि ऐसा करने से विदेशी उन्हें बड़ा बुद्धिजीवी मान रहे होंगे।

खैर, इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन शायद स्वामी रामतीर्थ के साथ जापान के एक रेल स्टेशन पर हुई घटना के बारे में बता देने से सारी बात का सार अपने आप ही समझ में आ जाता है। यह छोटी-सी कहानी मैनें सबसे पहले अपने स्कूल की किसी किताब में पढ़ी थी और तब से ही यह मेरे जीवन का अंग बन गयी। आशा है कि हम सभी भारतीय इस कहानी से कुछ तो सबक लेंगे।

एक बार स्वामी रामतीर्थ जापान गए। एक लंबी रेल यात्रा के बीच उनका फल खाने का मन हुआ। गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी पर उन्हें वहां फल नहीं मिले। उनके मुंह से निकल गया, "जापान में शायद अच्छे फल नहीं मिलते।"

एक सहयात्री जापानी युवक ने उनके यह शब्द सुन लिए। अगले स्टेशन पर वह तेजी से उतरा और कहीं से एक टोकरी में ताजे मीठे फल ले आया और उसे स्वामी रामतीर्थ की सेवा में प्रस्तुत करते हुए बोला, "लीजिए आपको इसकी ज़रूरत थी"

स्वामी जी ने उसे फलवाला समझकर पैसे देने चाहे लेकिन उसने पैसे नहीं लिए।

स्वामी जी के बहुत आग्रह करने पर उस जापानी युवक ने कहा, "स्वामी जी, इसकी कीमत यही है कि आप अपने देश में किसी से यह न कहें कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।"

स्वामी रामतीर्थ युवक का यह उत्तर सुनकर मुग्ध हो गए।

अभी के लिये इतना ही। आगे के अनुभव अगली पोस्ट में।

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