कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ बातें हज़ारों पन्नें लिख कर भी नहीं कही जा सकती। और कभी-कभी वही बातें कविता की चंद लकीरों पर इस तरह उभर कर आती हैं कि उससे बेहतर-बयानी की कोशिश बेवजह ही साबित हो। मैं ना तो शायर हूँ और ना ही कवि होने का दावा कर सकता हूँ। कविता के नाम पर कूड़ा लिखता हूँ। इस बात का पुरज़ोर अहसास मुझे है। लेकिन जब कभी कविता की लकीरे मन का आईना बन सकती हैं तो मैं कूड़ा लिखने के इस जुर्म को कर ही लेता हूँ। आज भी ऐसा ही है। ज़िन्दगी एक बेहद मुश्किल मोड़ से गुज़र रही है।

लेखक: ध्रुवभारत
04 फ़रवरी 2010

ज़िन्दगी
आंसुओं की क़तारों से
ग़ुज़रती हुई
सिसकी-सी है

हुआ अगर वो
तो होगा इन्हीं
खारे अश्क़ों के
समंदर पार
पर ज़िन्दगी
इसी नमक़ में
गल जाएगी
रफ़्ता-रफ़्ता

गल कर ही सही
मर कर ही सही
जैसे भी हो
ग़ुज़र भी जाएगी
रफ़्ता-रफ़्ता
कहिए ज़रा
ज़िद कहीं देखी
इसकी-सी है?

ज़िन्दगी
आंसुओं की क़तारों से
ग़ुज़रती हुई
सिसकी-सी है

मन

मानसिक डिप्रेशन एक बहुत बुरी अवस्था होती है। जहाँ बाकि रोग शरीर को नुकसान पहुँचाते हैं; वहीं डिप्रेशन एक स्वस्थ शरीर के मन से जीने की इच्छा को समाप्त कर देती है। व्यक्ति लड़ना नहीं चाहता। वह भाग जाना चाहता है। घोर अकेलापन महसूस होता है और इस अकेलेपन कोई भी संगी-साथी नहीं दिखाई देता। यह अकेलापन मानो जीवंत होता है; यह साँस लेता है, बढ़ता है और मन में अपनी जड़े जमाता चला जाता है। अपने पंजो से मन को लहू-लुहान कर देता है।

व्यक्ति अगर डेविड है तो डिप्रेशन गोलिआथ की तरह होता है। फ़र्क यह होता है कि इस कहानी में डेविड के अन्दर जीतने का जज़्बा ही नहीं होता। वह हार जाना चाहता है। मर जाना चाहता है और गोलिआथ के लिये ऐसे डेविड को मारना कौन सा मु्श्किल काम होता है।

मानसिक डिप्रेशन एक बेहद बुरी अवस्था है।

यूं तो यह तीसरी बार था कि 26 जनवरी को प्रतिभा पाटिल ने राजपथ पर गणतंत्र दिवस परेड बतौर राष्ट्रपति देखी। लेकिन मैनें उन्हें सलामी लेते पहली बार इसी गणतंत्र दिवस पर देखा। इससे पहले की दोनों परेड मैं नहीं देख पाया था। हमेशा की तरह परेड भव्य थी और अपने देश की शान दिखाने वाली थी। बहस-मुबाहिसे के शौकीन लोग तपाक से कहेंगे कि कैसी शान? जिधर देखिये गरीबी और भुखमरी का आलम है! फिर आप किस शान की बात कर रहे हैं? मेरा इन लोगो से कहना यही है कि "आप सही हैं"। हमारे देश में भुखमरी, गरीबी, भ्रष्टाचार, अव्यवस्था -सभी कुछ है और बड़े पैमाने पर है। लेकिन हर तरह की बहस का एक समय होता है। क्या हमारे पास एक भी कारण मौजूद नहीं है कि गणतंत्र दिवस जैसे मौके पर हम खुश हो सके? गणतंत्र दिवस खुशी और गर्व का पर्व है। इस दिन अमीर-गरीब सभी को उन अच्छी चीज़ो के बारे में सोचना चाहिये जो हमारे देश ने हमें दी हैं। हमारे देश में जो चीज़े अच्छी नहीं हैं -उनके बारे में बहस और कुछ कर ग़ुज़रने के लिये 364 दिन साल में और होते हैं। हमारा गणतंत्र होना हमारी शान है और हमें इस पर गर्व होना चाहिये।

बहरहाल, मैं प्रतिभा पाटिल की बात कर रहा था। इस वर्ष की परेड (कोहरे में ढकी होने के बावज़ूद) बहुत भव्य थी। मुझे व्यक्तिगत-रूप से यह परेड और भी अधिक गौरवान्वित करने वाली लगी क्योंकि मैनें पहली बार भारत की विशाल सेना को एक महिला के आगे सलामी देते, चटक सैल्यूट लगाते और अपनी तोपों की नाल नीचे करते देखा था। मैं यहाँ पटिल के राष्ट्रपति के रूप में चुनाव और अभी तक उनके प्रदर्शन के बारे में बहस नहीं करना चाहता (हर बहस का एक समय और संदर्भ होता है)। हम सभी जानते हैं कि भारतीय राष्ट्रपति केवल सांकेतिक राष्ट्राध्यक्ष होते हैं। अक्सर वे सत्ताधारी राजनीतिक दलों के हाथों की कठपुतलियाँ भी साबित होते हैं। यह सब अपनी जगह ठीक है। लेकिन एक महिला का विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्राध्यक्ष होना अपने-आप में प्रगति की ओर जाता हुआ एक क़दम है।

मैं नहीं मानता कि भारतीय फ़ौज के सभी जवान और अफ़सर "जैन्टलमैन" की श्रेणी में आते होंगे। ये सभी उच्च कोटी के देशभक्त होते हैं, हम सब इनकी सुरक्षा के साये में अभय जीते हैं -इसमें कोई शक नहीं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि एक व्यक्ति के तौर पर हमारे सभी जवान स्त्रियों के प्रति मन में बराबरी का भाव रखते होंगे। ऐसे में यदि एक महिला उनकी सुप्रीम कमांडर हो सकती है और सारी सेना उनके आगे झुकती है तो यह अपने-आप में हमारे बेहतर होते परिवेश का एक उदाहरण है। गांव-क़स्बों आदि तक इन बदलावों को पहुँचने में समय लगेगा लेकिन शुरुआत तो होती दिख रही है। हमें इस शुरुआत पर गर्व होना चाहिये और इस शुरुआत को आगे बढ़ाने के लिये दृढ़संकल्प होना चाहिये।

आज अर्से के बाद एक नई रचना लिखी है। मन बहुत उद्वेलित है। पता नहीं क्यों। हज़ारों कारण नज़र आते हैं। कभी-कभी लगता है कि मैं इस युग के लिये बना ही नहीं। यहाँ मुझे अपने जैसा कुछ नहीं दिखता। प्यार, विश्वास, एक दूसरे के प्रति सम्मान, समपर्ण -यह सब संसार से मिट गया सा लगता है। अब लोग स्वार्थी हो गये हैं और एक ऐसी अंधी दौड़ में भाग ले रहे हैं जिसका उद्देश्य क्या है उन्हें खुद ही नहीं पता। खै़र, यही सब भाव इस नज़्म-रूपी रचना में प्रकट हुए हैं।

लेखक: ध्रुवभारत
01 फ़रवरी 2010

दिल की आरज़ू है मिले कोई
जिसकी कैफ़ियत रंगो-सी हो!
कि मिल जायें एक-दूजे में
तो फिर कभी जुदा ना हों

फिर ना अपनी कोई शख़्सियत रहे
ना अपने सपने
"मेरा" तो कुछ भी ना रहे
जो हो बस, "हमारा" हो
ना मैं उस से अलग होऊं
ना वो ही मुझसे न्यारा हो!
दो जिस्म एक जाँ बनें
दो मन पर एक ख़्वाब हो
ज़िन्दगी के सभी सवालों का
"हम" मिलकर एक जवाब हों

लेकिन मिलते कहाँ हैं ऐसे लोग
कोई किसी का हो जाना नहीं चाहता
ख़ुद को मिटा कर कोई
दूजे में खो जाना नहीं चाहता
आज "मैं" का दौर है
"हम" का अब ज़माना नहीं रहा
पैसा, शोहरत ही सब कुछ है
प्यार ख़ुशी का पैमाना नहीं रहा!

साथ चलने वाले हमराही भी अब
अलग-अलग राहों को अपनाते हैं!
लेकिन रंग जब मिलते हैं
तो आपस में बंध जाते हैं
पर अब लोग हमसफ़र हों
तो भी सबका अलग रस्ता है
अब बंधन तो बस एक
लफ़्ज़े-गाली सा लगता है

अब लोग रंगों की तरह नहीं रहते
मिलते हैं तो तेल-पानी की तरह
जन्मों का मेल क्या होता है?
अब रिश्ते तो हैं नक़्शे-फ़ानी की तरह

काश!
कोई एक मुझे
रंगों-सा मिल जाता!

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