आज अर्से के बाद एक नई रचना लिखी है। मन बहुत उद्वेलित है। पता नहीं क्यों। हज़ारों कारण नज़र आते हैं। कभी-कभी लगता है कि मैं इस युग के लिये बना ही नहीं। यहाँ मुझे अपने जैसा कुछ नहीं दिखता। प्यार, विश्वास, एक दूसरे के प्रति सम्मान, समपर्ण -यह सब संसार से मिट गया सा लगता है। अब लोग स्वार्थी हो गये हैं और एक ऐसी अंधी दौड़ में भाग ले रहे हैं जिसका उद्देश्य क्या है उन्हें खुद ही नहीं पता। खै़र, यही सब भाव इस नज़्म-रूपी रचना में प्रकट हुए हैं।
01 फ़रवरी 2010
दिल की आरज़ू है मिले कोई जिसकी कैफ़ियत रंगो-सी हो! कि मिल जायें एक-दूजे में तो फिर कभी जुदा ना हों फिर ना अपनी कोई शख़्सियत रहे ना अपने सपने "मेरा" तो कुछ भी ना रहे जो हो बस, "हमारा" हो ना मैं उस से अलग होऊं ना वो ही मुझसे न्यारा हो! दो जिस्म एक जाँ बनें दो मन पर एक ख़्वाब हो ज़िन्दगी के सभी सवालों का "हम" मिलकर एक जवाब हों लेकिन मिलते कहाँ हैं ऐसे लोग कोई किसी का हो जाना नहीं चाहता ख़ुद को मिटा कर कोई दूजे में खो जाना नहीं चाहता आज "मैं" का दौर है "हम" का अब ज़माना नहीं रहा पैसा, शोहरत ही सब कुछ है प्यार ख़ुशी का पैमाना नहीं रहा! साथ चलने वाले हमराही भी अब अलग-अलग राहों को अपनाते हैं! लेकिन रंग जब मिलते हैं तो आपस में बंध जाते हैं पर अब लोग हमसफ़र हों तो भी सबका अलग रस्ता है अब बंधन तो बस एक लफ़्ज़े-गाली सा लगता है अब लोग रंगों की तरह नहीं रहते मिलते हैं तो तेल-पानी की तरह जन्मों का मेल क्या होता है? अब रिश्ते तो हैं नक़्शे-फ़ानी की तरह काश! कोई एक मुझे रंगों-सा मिल जाता! |
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यह रचना "ओ पेड़" श्रृंखला की दूसरी कड़ी है। इस श्रृंखला में मैनें एक कमज़ोर हो चले सूखे पेड़ की विभिन्न मनोस्थितियों का वर्णन करने की कोशिश की है। इस श्रृंखला की पहली रचना यहाँ उपलब्ध है।
ओ पेड़ तुम्हारे हौसले को कोई सराहेगा नहीं आस्मां में चमकती इन बिजलियों का दिल तंग है और फिर जला देने की आदत रहती इनके संग है ये पहले जलाती हैं फिर खिलखिलाती हैं तुम खुले आकाश तले बंजर पर खड़े अकेले बादल बूंद ना एक बरसाते हैं बस साथ बिजलियां लाते हैं ये अपना दिल बहलाती हैं और तुम्हारा दिल दहलाती हैं पर फिर भी तुम तने हुए साहस की मूरत बने हुए बस यूं ही खड़े रहते हो लेकिन कहो तो वहाँ दूर से जो सड़क निकलती है जिस पर दुनिया चलती है क्या उनमें कोई हमदर्द है? क्या कभी किसी ने पूछा कैसा तुम्हारा दुख-दर्द है प्यार की धूप खिली रहे चाहे सारे जहाँ में तुम्हारे लिये तो मौसम सदा सर्वदा सर्द है जानता हूँ तुम मन ही मन अपने दर्द से गीत बुनते हो पर इन गीतों को साथ तुम्हारे कोई गाएगा नहीं ओ पेड़ तुम्हारे हौंसले को कोई सराहेगा नहीं |
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अपने एक मित्र को समर्पित मेरी यह रचना बहुत छोटी-सी और साधारण-सी है लेकिन इसकी हर पंक्ति किसी के जीवन का कोई पहलू उजागर करती है। हर पंक्ति एक पूरी कहानी कहती है। केवल समझ सकने वाला एक संवेदनशील हृदय चाहिये। यहाँ जिन बैसाखियों की बात हो रही है वे सांकेतिक बैसाखियाँ (metaphore) नहीं हैं बल्कि मेरे मित्र की असली बैसाखियाँ हैं जो उसके जीवन का हिस्सा हैं।
बैसाखियों पे सधी ज़िन्दगी बैसाखियों से बंधी ज़िन्दगी बैसाखियों पे चली ज़िन्दगी बैसाखियों से बनी ज़िन्दगी बैसाखियों पे खड़ी ज़िन्दगी बैसाखियों से लड़ी ज़िन्दगी बैसाखियों से बड़ी ज़िन्दगी! |
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आवाज़: ध्रुवभारत |
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार
स्मृति समान संदेश तुम्हारे, निरंतर आते रहते हैं
शब्दो में ही देख तुम्हे हम, प्रेम से निज लोचन भर लेते हैं
पढ़ते पढ़ते ही अधरों पर, एक हंसी जो खेल गई
यह नई दशा है मेरी, और अनुभूती भी यह नई
अब जब तुमने खींच लिया है, मत छोड़ना बीच मझधार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार
तुम आओगी विश्वास इसी पर, मैनें जीवन आधार किया
परे तुम्हारे अपने जगत का, नहीं मैंने विस्तार किया
नयन प्रतीक्षारत हैं मेरे, प्राणो में आशा की ज्योती
आभार तुम्हारी प्रतीक्षा का, क्या करता जो यह भी ना होती
निशि वासर में भेद नहीं है, बिना तुम्हारे सूना संसार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार
फूलों ने रंग त्याग दिए हैं, कलियाँ मुरझा कर टूट रहीं
बुलबुल गुमसुम सी बैठी है, कोयल देती अब कूक नहीं
बेल बिटप पल्लव उदास हैं, रूका हुआ अलि कली का रास
इन सबको जीवन दे सकता, तुम्हारे मुखमंडल का हास
मेरे मन उपवन से दखो, रूठ गई है बसंत बहार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार
खो दी शोभा और ऋतुराज, पतझड़ में बदल गए
समय की खा कर चोट, पाषाण भी हो जर्जर गए
निसर्ग का नियम यही है, जब भी है यौवन आया
उसी क्षण से मंडराने लगता, ढल जाने का साया
पल पल जगत है ढलता रहता, पर अजर रहा है मेरा प्यार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार
सृष्टि तो है चल रही, पर मेरा जीवन ठहर गया
सुबह समय पर होती है, पर जाने कहाँ तमहर गया
समय रूका हुआ है मानो, कि बढे तभी जब तुम आओ
मेरे जीवन की घडियाँ ही कितनी, जो हैं आओ, संग बिताओ
हम दोनो ही तो हैं, इक दूजे के जीवन का सार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार
बिना तुम्हारे सौन्दर्य के, कहो कैसे बहे काव्य सरिता?
बिना तुम्हारे प्रेम के कहो, कैसे करूँ पूर्ण कविता?
मैं पूर्णता पाऊँ तभी, जब तुमसे मिट जाए मेरी दूरी
बिना तुम्हारे हे प्रियतमा, मैं अधूरा, मेरी हर रचना अधूरी
दरस मेरे नयनों को दे दो, यही मैं चाहूँ बारम्बार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार
हृदय चाहता तुमको पाना, तुम बैठी सागर उस पार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार
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14 फ़रवरी 2007
बैठा अकेला क्षितिज की ओर
शून्य में निहार रहा होंऊ
किसी गहरी उदासी में गुम
तब कोई बैठे पास आकर
और पूछे प्यार से
अपनेपन और अधिकार से
"क्या बात है?"
मैं चाहूँ कुछ कहना
किन्तु यदि वाणी न दे साथ
तब कोई मेरे मन को
मेरे चेहरे से पढ़ ले
और थाम ले मेरा हाथ
मुझे बताने को कि मैं
अकेला नहीं हूँ
ज़िन्दगी क्या तुम ऐसा करोगी?
आकर पास बैठोगी?
उदास अकेला होंऊगा
किसी खामोश शाम को जब मैं
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14 जनवरी 2010, मंगलवार, 4:00 सांय
दोस्ती मोहब्बत के
कुछ धागे
लोग मुझसे भी बांधते हैं
ये धागे बहुत अधिक नहीं
और कमज़ोर भी होते हैं
ज़्यादा वक़्त नहीं चलते
जब किसी को कोई धागा
नहीं सुहाता
तो वो उसे खींच देता है
रिश्ता टूट जाता है
और मैं तन्हाई की गहराई में
कुछ और
डूब जाता हूँ
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12 जनवरी 2010, मंगलवार, 5:30 सांय
मुझे बिखर जाने दो
इतनी दरारें पड़ चुकी हैं
मुझे एक बार तो टूट कर
बिखरना ही होगा
तुम ज़िद ना करो
कि मुझे संवार लोगी
प्यार भरा तुम्हारा
एक लफ़्ज़ भी
अकेलेपन से बंधे
टूटे हुए मन से
सहा ना जाएगा
मारे खुशी के
साज़े-धड़कन ही
थम जाएगा
नहीं, तुम यूं ना
मुझे सहारा देने की बातें करो
मत कहो कि दुख मेरे
तुम्हारे हैं
मुझसे कुछ मत कहो
बस, ज़रा छू दो मुझे
कि मैं टूट जाऊं
तुम्हारी छुअन
अकेलेपन के बंधन को तोड़ देगी
और मैं आंसू की लड़ियों-सा
बिखर जाऊंगा
फिर अगर चाहो तो
समेट लेना
मेरे बिखरे हुए टुकड़ों को
और अपने प्यार से
इन्हें फिर जोड़ना
मुझे यकीं है
तुम्हारा प्यार
मुझे एक नई ज़िन्दगी देगा
और देगा एक मन
जो टूटा हुआ नहीं होगा
लेकिन, अभी
तुम ज़िद ना करो...
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मेरी कल्पना का एक और रूप। लेकिन मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या ऐसी कल्पना सत्य सिद्ध हो सकती है?
आवाज़: ध्रुवभारत |
तुम बैठी ऐसी लगती हो इस घने आम की छाँव में जैसे कोई पावन मंदिर हो इक छोटे से गाँव में बड़ी मनभावन लगती हैं ये सुंदर प्यारी हथेलियाँ जैसे प्रेम से सजी हुई हों दो पूजा की थालियाँ काजल लगे नयन खिले हैं ज्यों आने से वसंत नवल के हैं ज्यों श्याम के चरणों पर रखे हुए दो फूल कमल के आरती की घंटियाँ बजें लगती जब पायल बजती पाँव में तुम बैठी ऐसी लगती हो इस घने आम की छाँव में जैसे कोई पावन मंदिर हो इक छोटे से गाँव में उजाला करती मन के अंदर माथे पर बिंदिया दमकती नाक का मोती है जैसे कि दीपों की हो ज्योति चमकती सुगंध है साँसो में जैसे पुष्पों ने दिया खजाना खोल पंखुरी से होंठो से आती वाणी है ज्यों वीणा के बोल और मन ऐसा निर्मल है कि जीते सब कुछ एक दाँव में तुम बैठी ऐसी लगती हो इस घने आम की छाँव में जैसे कोई पावन मंदिर हो इक छोटे से गाँव में |
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विदेश में एक शाम झील किनारे बैठे हुए जो मैनें अनुभव किया उसे इस रचना में लिख दिया।
3 मार्च 2007 को लिखित
हे झील मुझे क्षमा करना आज तुम्हारे पानी को मैनें जो पत्थर मारा था वह मेरा क्रोध नहीं बल्कि मेरी हताशा थी तुम्हारे किनारे बैठा मैं बोलता रहा मन की सब गांठे आगे तुम्हारे खोलता रहा पर उन वृक्षों की तरह और उस गगन की तरह तुम भी कुछ नहीं बोली सुनती रहीं तुम पता नहीं तुमने सुना भी या नहीं क्या मेरा साथ देना मुझसे कुछ कहना तुम्हारा कर्तव्य नहीं था? तुम्हें मित्र जान कर ही तो मैनें सब कहा था पर तुम कुछ नहीं बोली तुमने भी मुझे अकेला छोड़ दिया और ना जाने कब वो पत्थर मेरे हाथ से छूटा तुम पर से विश्वास टूटा मन मेरा हताश हुआ पत्थर ने तुम्हें छुआ तुम्हें चोट तो लगी होगी दर्द तो तुम्हें हुआ होगा मेरी तो तुम मित्र हो दर्द दिया तुम्हें मैनें जबकि चाहिये था मुझे दुख तुम्हारा हरना हे झील मुझे क्षमा करना |
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हालांकि अधिक समय नहीं हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि इस रचना को लिखे हुए एक अरसा बीत गया है।
28 फ़रवरी 2008 को लिखित
तुम कल्पना साकार लगती हो नभ का धरा को प्यार लगती हो फ़सल भरे खेतों के पार हो उड़ती चिड़ियों की चहकार ग्रीष्म उषा की ठंडी बयार सावन बूंदो की बौछार हो खिली सर्दी की धूप सुहानी मधु-ऋतु का सिंगार लगती हो नभ का धरा को प्यार लगती हो कर्म, वाणी और मन में सुमन हो शूलों के इस वन में आस्था प्रेम की तुम आशा हो पूर्ण सौन्दर्य की परिभाषा हो जीवन के सूने मंदिर में तुम ईश का सत्कार लगती हो नभ का धरा को प्यार लगती हो जीवन का शुभ शगुन हो मीठी-सी कोई धुन हो हर पल की तुम हो मनमीता करती जीवन-वीणा संगीता मुझ-सा कहाँ तुम्हे पाएगा तुम खुशियों का संसार लगती हो नभ का धरा को प्यार लगती हो किनारे संग नदिया है रहती कली मधुप से यही है कहती जीवन रंगो से भर जाता जब साथ कोई है साथी आता किन्तु हमेशा जो रही अनुत्तरित तुम मेरे मन की पुकार लगती हो तुम कल्पना साकार लगती हो नभ का धरा को प्यार लगती हो |
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2003 में लिखित
तुम्हारे हाथ में क्या है?
देख सकोगी छलकते आंसू
उसकी निर्दोष, प्यारी-सी आंखों में
उसकी मुठ्ठी बड़े ज़ोर से होगी बंद
खोलोगी तो कुछ नन्हे कंचे मिलेंगें
मुठ्ठी में बंद उन्ही कंचो की तरह
हम तुम्हे अपने दिल में रखेंगें
जहाँ रेत होगी कुछ साफ़-साफ़
किनारे समन्दर के चलते-चलते तुम
पाओगी, एक सीप आधी दबी-सी रेत में
जैसे वो कुछ छुपाना चाहती हो जग से
तोड़ोगी उस सीप को, तो एक चीख के साथ
कुछ सुन्दर सफ़ेद मोती बिखरेंगे
सीप में छुपे उन मोतियों की तरह
हम तुम्हे अपने दिल में रखेंगे
किसी बहुत दिल-अज़ीज़ को एक शाम
अगर तुम पाओगी बैठे हुए उदास
जब पूछोगी तुम कि क्या ग़म है?
तब भर आएंगी जो आंखे उसकी
तुम थाम लोगी हथेली पर वो आंसू
और तुम्हारे हाथ उन्हें सहेज कर रखेगें
हथेली पर थमे उन आंसुओं की तरह
हम तुम्हे अपने दिल में रखेंगें
सींचा है जिस पेड़ को बरसों से
इस बसंत में खिलेगा उस पर पहला फूल
तुम देख सकोगी उस मुस्कान को
जो माली के चेहरे पर खेल जाएगी
महसूस कर सकोगी तुम उस खुशी को
जिसे माली ने पाया है बरसों के बाद
उसी फूल, उसी मुस्कान, उसी खुशी की तरह
हम तुम्हे अपने दिल में रखेंगें
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02 नवम्बर 2007 को प्रात: 10:00 बजे लिखित
आंधी ललचाई-सी आँखें लिये
तुम्हारा शिकार करना चाहती है
धूप, जो कभी दोस्त थी
आज चाहती है तुम्हें देना जला
तुम्हारा तन, ये तना
अब तो खोखला हो चला
क्या तुम उन पंछियों की सोचते हो?
जिन्होनें बसाये थे तुम पर
अपने घर और सपनें नये
आंधी ने ज़रा तुम्हें हिलाया
वे साथ तुम्हारा छोड़ गये
कहीं सोचते तो नहीं तुम
उसके बारे में
वो गिलहरी थी जो
इक इस संसार सारे में
बहुत खुश होते थे तुम
देख उसकी अठखेलियाँ
सोचते थे कि यही जीवन है
सुंदर सा, प्यारा सा
पर तुम भूल गये थे कि
तुम तो केवल एक पेड़ हो
चल नहीं सकते
देखो दुनिया, पंछी और गिलहरी
सब आगे दौड़ गये हैं
बोलो अब वे कहाँ हैं?
है कौन इस वीराने में
तुम्हारे साथ?
अकेले जीवन अब लगता तुमको
काली एक अंधियारी रात
हाँ-हाँ मालूम है
एक सूखी, जली, मुरझाई हुई पत्ती
जिसे तुम उम्मीद कहते हो
अब भी तुमसे जुड़ी हुई है
पर क्या एक मुरझाई हुई
उम्मीद के सहारे
इतना दर्द सहना ठीक है?
क्या पा लोगे कुछ और पल
यूँ ही इस ज़मीं पर खडे़ हुए?
ना तुम में छाया है
फल फूल तो छोडो़
ईंधन भी ना बन सके
ऐसी तुम्हारी काया है
सुनो ओ पेड़, तुम गिर जाओ
खुश हो लेने दो आंधी को
अपनी थकी हुई जड़ों को आराम दो
तुम्हे जला संतोष मिलेगा
धूप को भी कुछ काम दो
गिर कर तुम जो खाली करोगे
उस जगह उगेंगे नये पौधे
कड़वे फलों और पैने काँटों का भी
है इस जग में महत्व बड़ा
तुम पूरी तरह उपयोगहीन
क्यूँ चाहते हो रहना खड़ा?
यूँ खड़े-खड़े भला
तुम किसके हो काम आते?
ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?
ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?
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