विदेश में एक शाम झील किनारे बैठे हुए जो मैनें अनुभव किया उसे इस रचना में लिख दिया।
लेखक: ध्रुवभारत
3 मार्च 2007 को लिखित
3 मार्च 2007 को लिखित
हे झील मुझे क्षमा करना आज तुम्हारे पानी को मैनें जो पत्थर मारा था वह मेरा क्रोध नहीं बल्कि मेरी हताशा थी तुम्हारे किनारे बैठा मैं बोलता रहा मन की सब गांठे आगे तुम्हारे खोलता रहा पर उन वृक्षों की तरह और उस गगन की तरह तुम भी कुछ नहीं बोली सुनती रहीं तुम पता नहीं तुमने सुना भी या नहीं क्या मेरा साथ देना मुझसे कुछ कहना तुम्हारा कर्तव्य नहीं था? तुम्हें मित्र जान कर ही तो मैनें सब कहा था पर तुम कुछ नहीं बोली तुमने भी मुझे अकेला छोड़ दिया और ना जाने कब वो पत्थर मेरे हाथ से छूटा तुम पर से विश्वास टूटा मन मेरा हताश हुआ पत्थर ने तुम्हें छुआ तुम्हें चोट तो लगी होगी दर्द तो तुम्हें हुआ होगा मेरी तो तुम मित्र हो दर्द दिया तुम्हें मैनें जबकि चाहिये था मुझे दुख तुम्हारा हरना हे झील मुझे क्षमा करना |
Labels: कविता जैसा कुछ
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment