कई लोग कहते हैं कि यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसी जगहों पर रह कर आओ तो भारत में एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही आपको "कल्चरल शॉक" लगता है। जब आप लोगो की आड़ी-टेढ़ी ड्राइविंग देखते हैं, ट्रैफ़िक के नियमों का उल्लंघन होते देखते हैं या टूटे फ़ुटपाथों पर लगी केले की रहड़ी जैसी चीज़ों को देखते हैं और इन सबकी तुलना विदेश से करते हैं तब आपको यह शॉक लगता है। विदेशी शहर कितने साफ़ सुथरे हैं; विदेशी लोग कितने संस्कारी हैं; विदेश में सब कुछ कितना व्यवस्थित तरीके से चलता है। यह सब बातें आपके मन में स्वयं ही आने लगती हैं।


पता नहीं क्यों लेकिन मुझे ऐसा शॉक कभी नहीं लगा। मैं जब भी विदेश से लौटा और एयरपोर्ट से बाहर निकला तो हमेशा ही अपने शहर से मुझे एक अपनापन महसूस हुआ। हमेशा ही मुझे चीज़े बेहतरी की ओर जाती हुई दिखाई दीं। नये फ़्लाईओवर्स, अभी भी टूटे हुए लेकिन पहले से बेहतर रोड्स, नई-नई बेहतर इमारतें, कई और पड़सियों के पास नई कारें... हर बार कुछ न कुछ बेहतर ही दिखाई देता है। एयरपोर्ट से घर की ओर आते समय टूटे फ़ुटपाथों पर काले हो चले केले बेचते लोग मुझे भी दिखाई देतें हैं। लेकिन मैं उनकी उपस्थिति पर नाक-भौं सिकोड़ विदेश में देखे बढ़िया, साफ़, चौड़े-चौड़े, सजे हुए फ़ुटपाथों के बारे में नहीं सोचता। बहुत से लोगो का बस चले तो इन फ़ुटपाथों पर केले बेच रहे रामखिलावनों को बेरोज़गार करके इन फ़ुटपाथों को विदेशी शहरों के फ़ुटपाथों की तरह ही सुंदर बना दें। लेकिन ऐसे लोगो को सोचना चाहिये कि फिर रामखिलावन के घर में चूल्हा कैसे जलेगा? और कब तक वह अपने पेट की आग को दूसरों के घर जलाने से रोक सकेगा?

मैं कुछ समय एडिनबर्ग शहर में रहा। यह बहुत खूबसूरत शहर है। स्कॉटलैंड की राजधानी है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पूरे स्कॉटलैंड की जनसंख्या 60 लाख से अधिक नहीं है; और इसकी दुगुनी से भी अधिक आबादी तो केवल दिल्ली में ही बसती है। अब ऐसे में स्कॉटलैंड जहाँ अपने पार्कों और फ़ुटपाथों को संवारने में अपना समय और संसाधन लगा सकता है वहीं भारत को अपने रामखिलावनों की चिंता भी करनी होती है। भारत एक अद्वितीय देश है। हमारी बहुत सी समस्याएँ ऐसी हैं जिनका सामना बहुत से अपेक्षाकृत अधिक उन्नत देशों को नहीं करना पड़ता। केवल चीन की ही आबादी भारत से अधिक है परन्तु चीन में लोकतंत्र नहीं है। वहाँ "विकास" की राह में आने वाले रामखिलावनों को रास्ते से हटा दिया जाना आम और आसान बात है। हमारे यहाँ भी प्रशासन मनमानी करता है लेकिन हर 100 में से कुछ मामलो में तो आवाज़ उठती ही है और पीड़ित को न्याय भी मिलता है।

मेरी जितने भी विदेशी लोगो से बात होती है वे सभी इस बात को मानते हैं कि यदि उनके यहाँ भारत जितनी आबादी और विभिन्न्ता होती तो उनकी धरती का नज़ारा भी कुछ-कुछ भारत जैसा ही होता। हालांकि खुद भारतीय लोग ही इस बात को समझ नहीं पाते। भारत के लोगो को बहुत श्रम करने की और अपने व्यहवार में कुछ और अच्छे गुणों को उतारने की ज़रूरत है। हमें एक अच्छा राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचा खड़ा करना है। यह काम हमें ही करना होगा; कोई बाहरी व्यक्ति हमारे लिये ऐसा करने नहीं आएगा। इसलिये हमें चाहिये कि हम विदेश के गुणों का गान करने की बजाये उन गुणो को धारण करने का प्रयत्न करें ताकि हम अपनी आने वाली पीढियों को एक बेहतर भारत दे सकें।

लोग अक्सर कहते हैं कि "इतने बड़े और भ्रष्ट सिस्टम के सामने मैं अकेला क्या कर सकता हूँ? मैं तो इस सिस्टम को नहीं बदल सकता।" देखा जाये तो यह सच भी है। अब हर व्यक्ति कोई महात्मा गांधी तो नहीं है कि उसकी एक आवाज़ पर लाखों-करोड़ो लोग अपने जीवन की राहें बदलने को तैयार हो जायें। लेकिन यहाँ पर महत्वपूर्ण बिंदू यह है कि आपको सिस्टम को बदलने की ज़रूरत है ही नहीं! आप केवल खुद को बदल लीजिये... सिस्टम धीरे-धीरे अपने आप बदल जाएगा।

हमें शिकायत करने की बजाये कुछ बेहतर करने का प्रयास स्वयं करना होगा। निराशा को त्याग कर मन में आशा रखनी होगी कि भविष्य बेहतर होगा।

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