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यूं तो यह तीसरी बार था कि 26 जनवरी को प्रतिभा पाटिल ने राजपथ पर गणतंत्र दिवस परेड बतौर राष्ट्रपति देखी। लेकिन मैनें उन्हें सलामी लेते पहली बार इसी गणतंत्र दिवस पर देखा। इससे पहले की दोनों परेड मैं नहीं देख पाया था। हमेशा की तरह परेड भव्य थी और अपने देश की शान दिखाने वाली थी। बहस-मुबाहिसे के शौकीन लोग तपाक से कहेंगे कि कैसी शान? जिधर देखिये गरीबी और भुखमरी का आलम है! फिर आप किस शान की बात कर रहे हैं? मेरा इन लोगो से कहना यही है कि "आप सही हैं"। हमारे देश में भुखमरी, गरीबी, भ्रष्टाचार, अव्यवस्था -सभी कुछ है और बड़े पैमाने पर है। लेकिन हर तरह की बहस का एक समय होता है। क्या हमारे पास एक भी कारण मौजूद नहीं है कि गणतंत्र दिवस जैसे मौके पर हम खुश हो सके? गणतंत्र दिवस खुशी और गर्व का पर्व है। इस दिन अमीर-गरीब सभी को उन अच्छी चीज़ो के बारे में सोचना चाहिये जो हमारे देश ने हमें दी हैं। हमारे देश में जो चीज़े अच्छी नहीं हैं -उनके बारे में बहस और कुछ कर ग़ुज़रने के लिये 364 दिन साल में और होते हैं। हमारा गणतंत्र होना हमारी शान है और हमें इस पर गर्व होना चाहिये।

बहरहाल, मैं प्रतिभा पाटिल की बात कर रहा था। इस वर्ष की परेड (कोहरे में ढकी होने के बावज़ूद) बहुत भव्य थी। मुझे व्यक्तिगत-रूप से यह परेड और भी अधिक गौरवान्वित करने वाली लगी क्योंकि मैनें पहली बार भारत की विशाल सेना को एक महिला के आगे सलामी देते, चटक सैल्यूट लगाते और अपनी तोपों की नाल नीचे करते देखा था। मैं यहाँ पटिल के राष्ट्रपति के रूप में चुनाव और अभी तक उनके प्रदर्शन के बारे में बहस नहीं करना चाहता (हर बहस का एक समय और संदर्भ होता है)। हम सभी जानते हैं कि भारतीय राष्ट्रपति केवल सांकेतिक राष्ट्राध्यक्ष होते हैं। अक्सर वे सत्ताधारी राजनीतिक दलों के हाथों की कठपुतलियाँ भी साबित होते हैं। यह सब अपनी जगह ठीक है। लेकिन एक महिला का विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्राध्यक्ष होना अपने-आप में प्रगति की ओर जाता हुआ एक क़दम है।

मैं नहीं मानता कि भारतीय फ़ौज के सभी जवान और अफ़सर "जैन्टलमैन" की श्रेणी में आते होंगे। ये सभी उच्च कोटी के देशभक्त होते हैं, हम सब इनकी सुरक्षा के साये में अभय जीते हैं -इसमें कोई शक नहीं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि एक व्यक्ति के तौर पर हमारे सभी जवान स्त्रियों के प्रति मन में बराबरी का भाव रखते होंगे। ऐसे में यदि एक महिला उनकी सुप्रीम कमांडर हो सकती है और सारी सेना उनके आगे झुकती है तो यह अपने-आप में हमारे बेहतर होते परिवेश का एक उदाहरण है। गांव-क़स्बों आदि तक इन बदलावों को पहुँचने में समय लगेगा लेकिन शुरुआत तो होती दिख रही है। हमें इस शुरुआत पर गर्व होना चाहिये और इस शुरुआत को आगे बढ़ाने के लिये दृढ़संकल्प होना चाहिये।

उसकी उम्र कोई 45 या 50 साल के आस-पास होगी लेकिन देखने में वह व्यक्ति कहीं अधिक उम्र-दराज लगता था। उसे याद करने वाले किसी भी व्यक्ति के ज़हन में शायद सबसे पहले उसका गहरा रंग, गोल बड़ा-सा चेहरा और मोटी-सी नाक ही आती होगी। चौड़े पांयचो का पायजामा और एक कमीज़; बस सुन्दर ने उसे हमेशा यही कपड़े पहने देखा था। कमीज़ अक्सर धारीदार होती थी और उसके ऊपर के दो बटन खुले होते थे जिससे उसकी गहरे रंग की छाती पर उगे सफ़ेद हो चले बाल झांका करते थे। पैरों में रिलेक्सो की घिसी हुई चप्पलें पहने वह सड़क पर झाड़ू लगाया करता था। डाकखाने से लेकर सरकारी अस्पताल के बीच की सकड़ के किनारे वह कभी-कभार सुन्दर को मिल जाता था। या यूं कहिये कि उसे सुन्दर मिल जाता था।

नगर निगम का वह वृद्ध दिखने वाला कर्मचारी रोज़ाना सुबह-सवेरे सड़क साफ़ किया करता था। वह शायद कोशिश करता था कि जितना सुबह अपना काम निपटा ले उतना ही अच्छा क्योंकि फिर जैसे-जैसे सूरज निकलता था; वैसे-वैसे सकड़ पर कदमों और पहियों की आवाजाही बढ़ती जाती थी और कूड़ा समेटने का उसका काम मुश्किल होता जाता था। स्कूल जाने के लिये सुन्दर घर से सुबह सवा-छह बजे निकला करता था और तब तक वह व्यक्ति सड़क साफ़ करने का काम पूरा करके चला जाया करता था। यही कारण था कि दोनों बस कभी-कभार ही मिलते थे।

जब भी उस व्यक्ति को सुन्दर दिखायी देता तो वह झाड़ू लगाना भूल कर स्कूल की ओर जाते सुन्दर के पास आ जाता। बैसाखियों पर झूलते हुए चलने वाले 10 या 11 साल के सुन्दर को सड़क पर चलते हुए इस तरह लोगो के ध्यान में आना बड़ा अटपटा लगता था। वह बस चाहता था कि कोई उसे देख ना सके। लेकिन उस व्यक्ति के यूं सुन्दर को देखते ही उसके पास चले आने से सुन्दर को बड़ी शर्मिन्दगी-सी होती थी। अपनी जिस विकलांगता को वह भुला देना चाहता था; उसे लगता था कि वही विकलांगता लोगो के दया-भाव को जगा कर उनकी निगाहों को उसकी ओर खींचती है।

अपनी लम्बी-सी झाड़ू को सड़क पर घसीटते हुए वह पास आता। पास आते ही वह व्यक्ति सुन्दर से बस एक ही सवाल किया करता था:

"कौन-सी क्लास में हो गये हो बेटा?"

सुन्दर को कई बार यह याद होता था कि इस व्यक्ति ने यही सवाल अभी कुछ ही महीने पहले पूछा था। शर्मिन्दगी और झेंप तो होती ही थी और इसके चलते सुन्दर के मन में आता था कि कह दे:

"अभी कुछ दिन पहले बताया तो था"

लेकिन जाने क्यों सुन्दर अपनी झेंप को गुस्से में परिवर्तित नहीं होने देता था और समुचित जवाब देता था:

"छठी क्लास में"

जवाब सुनते ही उस व्यक्ति का चेहरा खिल उठता और वह हाथ में पकड़ी झाडू के लम्बे-से डंडे को अपने छाती पर टिका लेता और दोनों हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा कर कहता:

"खूब जियो बेटा, खूब पढो़ लिखो, खूब पढ़ो लिखो"

यह कहते हुए उसके चेहरे पर बड़े गहरे संतोष के भाव होते थे। कुछ ऐसी शांति और ठंडक उसके मन में होती थी जो उसके चेहरे पर दिखती तो थी लेकिन उसे बयान करना बहुत मुश्किल होता था। बस इतना कह कर वह वापस जाता और धूल और कूड़े को सड़क से इकठ्ठा करने लगता। इसी तरह साल-दर-साल बीतते गये। इस प्रकरण में कुछ भी नहीं बदला; सिवाय सुन्दर के जवाब के:

"सातवीं क्लास में"

"आठवीं क्लास में"

"नवीं क्लास में"

"दसवीं क्लास में"

"ग्यारहवीं क्लास में"

उस व्यक्ति को शायद पता भी नहीं होता था कि सुन्दर पिछली बार बात होने के समय जिस कक्षा में था -वह इस बार आगे बढ़ा है या उसी कक्षा में है। लेकिन हर बार सुन्दर का जवाब उसके चेहरे पर गहरे संतोष की झलक ले आता था। पहले तो सुन्दर बस चाहता था कि यह व्यक्ति उसके पास ना आये और आ ही जाये तो जितना जल्दी हो वापस चला जाये। लेकिन जैसे-जैसे सुन्दर बड़ा हुआ उसे उस व्यक्ति से एक अपनापन-सा महसूस होने लगा। सुन्दर समझने लगा था कि उस व्यक्ति के मुंह से निकले आशीर्वचन दिल की गहराईयों से निकले शब्द होते थे।

उनकी दो मुलाकातों के बीच कई-कई महीने बीत जाते थे; आज सुन्दर को याद भी नहीं है कि वह आखिरी बार कब उस व्यक्ति से मिला। लेकिन इतना ज़रूर है कि मिले हुए बहुत वर्ष हो गये हैं। अब शायद वह व्यक्ति जीवित भी ना हो लेकिन आज सुन्दर के ज़हन में जब भी वह गहरे रंग का गोल चेहरा आता है तो उसके साथ ही याद आते हैं उस व्यक्ति के द्वारा कहे गये केवल दो वाक्य:

"कौन-सी क्लास में हो गये हो बेटा?"
"खूब जियो बेटा, खूब पढो़ लिखो, खूब पढ़ो लिखो"

इन्हीं दो वाक्यों को वह व्यक्ति साल-दर-साल दोहराता रहा और सुन्दर के द्वारा प्रकृति के अन्याय का सामना किये जाने को सराहता रहा। सुन्दर को आशीर्वाद देता रहा।

सुन्दर ने कभी उसका नाम नहीं पूछा। और उस व्यक्ति को भी सुन्दर का नाम नहीं पता था।

जीवन में कई संबंध ऐसे होते हैं जिनमें ना तो नाम की ज़रूरत होती है और ना ही कुछ कहे जाने की। ऐसे संबंध के लिये ही कहा जाता है कि "मन से मन को राह होती है"

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नोट:
सुन्दर मेरा निकट मित्र है। उसी के लिये मैनें अपनी पिछली पोस्ट वाली कविता लिखी थी। सुन्दर को बचपन से ही पोलियो है और उसने मुझे अपने संघर्ष और दुख-सुख के तमाम प्रकरण सुनाए हैं। सुन्दर की अनुमति से उन्हीं में से कुछ प्रकरणो को मैं यहाँ धीरे-धीरे प्रकाशित करूंगा। भाषा मेरी होगी और जीवन सुन्दर का।

पिछले कुछ समय से एक परेशान कर देने वाली निरन्तरता के साथ नज़रो के सामने ऐसी (नई, पुरानी) पोस्ट्स और टिप्पणियाँ आ रही हैं जिनके लेखक निश्चित रूप से बेहतर और सभ्य  भाषा कर सकते थे। लेकिन ऐसा उन्होनें किया नहीं। अब ब्लॉग को लेखक भी हल्के ढंग से ही लेते जान पड़ते हैं। कहा जाता है कि तलवार का एक वार एक व्यक्ति को घायल करता है लेकिन कलम के लिखे हुए बुरे शब्द  असंख्य लोगो को आहत कर सकते हैं।

हो सकता है कि इस बारे में पहले भी किसी ने सोचा और लिखा हो; लेकिन मैनें कहीं भी इस बारे में चर्चा नहीं देखी। लेखन में शिष्ट भाषा के प्रयोग पर चर्चा होनी चाहिये। मेरा मानना है हिन्दी ब्लॉगिंग (या किसी भी अन्य भाषा की ब्लॉगिंग) में वैब शिष्टाचार के कुछ मूल नियमों का पालन होना चाहिये। ऑनलाइन कम्यूनिटी भी तो एक समाज है; जब हम अपने वास्तविक समाज में शिष्टाचार के नियमों का पालन करते हैं तो इस ऑनलाइन समाज में क्यों नहीं? हो सकता है कि वास्तविक समाज में बहुत से लोग सज़ा के डर से शिष्ट व्यवहार करते हों। जो लोग शिष्टता नहीं दिखाते उन्हें एक किस्म से समाज से काट दिया जाता है। उनसे मिलने-जुलने वाले बात करने वाले लोगों की संख्या कम होने लगती है। तो ऐसा ही ऑनलाइन समाज में क्यों नहीं होता? कुछ दिन पहले विनीत के ताना-बाना नामक ब्लॉग पर सराय में हुई मीटिंग की चर्चा पढ़ी तो पाया कि वहां भी लोग इस बात पर ज़ोर दे रहे थे कि अब पाठक का राज होना चाहिये। पाठकों को अशिष्ट सामग्री को बढ़ावा देने की बजाय उससे कन्नी काटनी चाहिये।

मेरे विचार से कम से कम इन तीन शिष्टाचार नियमों का पालन होना चाहिये:
  1. अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखने के बाद आप अपनी एड्रेस बुक में जितने लोग हैं उन सबको ईमेल ना भेजें कि आइये और मेरी पोस्ट पढ़िये। मेरे मेल बॉक्स में रोज़ इस तरह कि दो-तीन ईमेल्स तो आती ही हैं। ब्लॉगर्स को समझना चाहिये कि Google Friend Connect और Feedburner जैसे विकल्प पाठक के पास हैं और इनकी मदद से वह जिन ब्लॉग्स के बारे में जानना चाहता है उनके बारे में जान सकता है। अपने लिखे को थोपिये मत!

  2. टिप्पणियों को विज्ञापन का साधन ना बनाया जाये। टिप्पणी के अंत में अपने निजी ब्लॉग या अन्य वैबसाइट का लिंक तभी दें जब वाकई पोस्ट के संदर्भ में उसकी ज़रूरत हो।

  3. अशिष्ट भाषा या कटुव्ययंगों से बचना चाहिये। आप किसी के बारे में बुरा कह कर या उसका मज़ाक उड़ा कर कुछ हांसिल नहीं करते हैं। जीवन का चक्र इन बुरे वचनों से प्रभावित नहीं होता और चलता रहता है। ब्लॉग्स पर कितना कुछ असभ्य लिखा जा चुका है लेकिन क्या किसी के बारे में ऐसा लिख देने से दुनिया रुक गयी या बदल गयी? संयमित भाषा में रचनात्मक टिप्पणी आपके महत्व को बढाती है; कम नहीं करती। असभ्य भाषा कुछ पलों के लिये कहने वाले को सुकून दे सकती है लेकिन उसका प्रभाव कहने वाले व्यक्ति और उसके संबंधो पर बुरा ही पड़ता है।
इसी संदर्भ में यह भी कहा जाना चाहिये कि ब्लॉगर्स भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है। नई शब्द-रचना और वाक्य-रचना के लिये यह माध्यम पोषक वातावरण उपलब्ध कराता है। लेकिन यही माध्यम हिन्दी भाषा को बिगाड़ भी सकता है। असंयमित और असभ्य वाक्यों का प्रयोग इस माध्यम के महत्व को हल्का कर देगा और एक सामान्य पाठक को यही लगेगा कि हिन्दी ब्लॉग तो टाइम-पास करने और लेखक द्वारा अपनी कुंठाओं के मनोरंजन का माध्यम मात्र है। शब्दों का चयन करते समय हमें यह सोचना चाहिये कि आज नहीं तो कल हमारे माता-पिता, बच्चे, भाई-बहन, मित्र या अन्य रिश्तेदार हमारे लिखे शब्दों को पढ़ेंगे। लिखने से पहले सोचे कि हम उन्हें क्या पढ़ाना चाहते हैं और हम उनकी दृष्टि में कैसा दिखाना चाहते हैं।

भला कितना मुश्किल है एक-दूसरे के विचारों को सम्मान देना? और कितना मुश्किल है अपनी असहमति को सभ्य भाषा में ज़ाहिर करना? कम ही सही लेकिन कई हिन्दी ब्लॉगर्स इस माध्यम का बहुत अच्छा उपयोग करते दिखते हैं। हमें चाहिये कि हम एक-दूसरे के लेखन से और सौम्य व्यहवार से सीखें और इसे अपने को बेहतर बनाने में प्रयोग करें।

बीते कुछ दिन से मैं स्वयं के बारे अच्छा अनुभव नहीं कर पा रहा हूँ। एक बेचैनी-सी है मन में; स्वयं का अस्तित्व कुछ गंदा-सा अनुभव हो रहा है। इसके पीछे कारण है कि मैनें कुछ दिन पहले एक निकट मित्र से एक झूठ बोला। यूं तो हर किसी की तरह मैं भी दिन में पाँच-सात झूठ बातें बोल ही देता हूँ लेकिन इस तरह के झूठ हमारे जीवन के सुचारू-रूप से चलने के लिये शायद आवश्यक होते हैं। यहाँ मुझे जिम कैरी की फ़िल्म "लायर लायर" की याद आ रही है। इस फ़िल्म में जिम ने एक सफ़ल वकील का क़िरदार अदा किया है। लेकिन सफ़लता अक्सर व्यक्ति को अपनो से दूर कर देती है और जिम के साथ भी फ़िल्म में ऐसा ही कुछ हुआ। पत्नी से तलाक़ हो जाता है और उसका 7-8 वर्ष का बेटा अपनी माँ के साथ रहने लगता है। एक बार जिम अपने बेटे के जन्मदिन पर भी नहीं पँहुच पाता और कोई झूठा बहाना बना देता है। इस पर बेटा मन ही मन एक दुआ मांगता है कि उसके पिता एक दिन के लिये ना तो झूठ बोल पायें और ना ही अपने मन में आ रही बातों को छुपा पायें। बेटे की दुआ रंग लाती है और एक दिन के लिये जिम के जीवन में क्या-क्या घटता है यह तो फ़िल्म देख कर ही समझा जा सकता है। यह एक अच्छी कॉमेडी फ़िल्म है।

बहरहाल, झूठ तो हम सभी बोलते हैं। झूठ जो किसी को किसी भी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष नुकसान ना पँहुचाए; ऐसे झूठ मान्य भी होते हैं। हालांकि कई बार ऐसा होता है कि झूठ बोलने वाले व्यक्ति के तर्कानुसार कोई नुकसान नहीं हो रहा होता पर अन्य व्यक्ति को शायद और कुछ नहीं तो मानसिक नुकसान हो रहा हो; यह संभव है। मैनें भी ऐसा ही कुछ सोचा था। मैं अमूमन झूठ नहीं बोलता और जो लोग मेरे निकट हैं उनसे तो कतई नहीं। लेकिन इस बार मैनें सोचा कि मेरा सत्य शायद सामने वाले को दुख पँहुचाएगा और मैनें इस बात का ख़्याल करते हुए झूठ कह दिया। लेकिन उस व्यक्ति को मुझ पर शायद विश्वास नहीं हुआ और उसने मुझसे अपनी झूठ बात दोहराने को कहा तो मैं दूसरी बार झूठ नहीं कह पाया। शायद इसी को मित्रता और प्रेम कहा जाता है। किसी निकट मित्र ने आपसे इस विश्वास के साथ कुछ पूछा कि आप सच कहेंगे; तो आप झूठ कैसे कह सकते हैं?

दूसरी बार में मैनें सच कह दिया। लेकिन इस बात का दुख है कि मैनें पहली बार में झूठ कहा। सच और झूठ के दर्शन की कोई भी बात इस सुभाषितानी के बिना अधूरी रहती है:

सत्यं वदं, प्रियं वदं
न वदं सत्यमप्रियात

यह बात बिल्कुल सही है। पर मेरे विचार कुछ संबंध ऐसे होते हैं जिनमें सत्य चाहे कितना भी कटु क्यों ना हो लेकिन उसे कहना चाहिये। ऐसे रिश्तों में बंधे लोग एक-दूसरे पर इतना अधिक विश्वास करते हैं कि सत्य की कड़वाहट को वे पी जाते हैं और कभी साथ नहीं छोड़ते; रिश्ता नहीं तोड़ते। ऐसे रिश्ते दुर्लभ हैं लेकिन ऐसे रिश्ते हमारे जीवन का हांसिल होते हैं।

मैं कुछ दिन में इस दुख से उबर जाऊंगा लेकिन इस निश्चय के साथ कि मैं अपने निकट के लोगों से झूठ नहीं कहूंगा। ऐसे लोगो से पहले मेरे झूठ कहने की संभावना यदि दस लाख में एक बार थी; तो अब इसे दस करोड़ में एक बार हो जाना चाहिये। सत्य को कहा जाना चाहिये; आपकी ग़लती है तो अपनी ग़लती मानते हुए कहना चाहिये; लेकिन कहना चाहिये क्योंकि सत्य कहना संबंध का सम्मान होता है।

यह पोस्ट मैं अपने कुछ पुराने सहकर्मियों को ध्यान में रखते हुए लिख रहा हूँ। आज किसी कारणवश उनकी याद आ गयी। अब ऐसा भी नहीं है कि अब से पहले उनकी याद नहीं आई। सहकर्मी तो जीवन का हिस्सा हो जाते हैं; कुछ यादें सुखद होती हैं तो कुछ मन में रोष व क्रोध उत्पन्न करती हैं; लेकिन जो भी हो उनकी याद तो गाहे-बगाहे आती ही रहती है। ख़ैर, आज उनकी याद आने का कारण उनका व्यहवार-विशेष है। जब मैं उनके साथ काम करता था तो मैनें मन-ही-मन उनके लिये एक शब्द गढ़ा था "pseudo-intellectuals"। मैनें यह शब्द "गढ़ा" था, ऐसा कह कर मैं इस शब्द के सृजक होने का दावा नहीं कर रहा हूँ, लेकिन जब यह शब्द मेरे मन में आया था तो उससे पहले मैनें कभी भी इसे कहीं ना तो सुना था और ना पढ़ा था। परंतु मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि यह शब्द बहुत समय पहले से प्रयोग में रहा है। अर्थात इस शब्द की आवश्यकता भी बहुत समय से रही है।

बहरहाल, मेरे कुछ सहकर्मी ऐसे थे जिन्हें मैं "pseudo-intellectuals" की श्रेणी में रखता था। आप पहली मुलाकात में उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते थे। वे भाषा और ज्ञान के भंडार जान पड़ते थे। आप किसी भी विषय पर बात करें तो उस पर उनकी एक नपी-तुली राय होती थी (और बहुत संभव है आप पाएं कि अक्सर यह राय उसी विषय पर आपकी व्यक्तिगत राय से मुख्तलिफ़ है!) अपनी राय के पक्ष में वे बहुत-से तथ्य आपके सामने रखेंगे और दस-पाँच किताबों, लेखकों, फ़िल्मों, निर्देशको, अख़बारों और पत्रिकाओं के नाम बता कर उन तथ्यों को समर्थित भी कर देंगे। आप बुद्धु की तरह उनका मुँह देखने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएंगे। आपको लगेगा कि आपने तो अपने जीवन को व्यर्थ कर दिया; ज़रा-सा भी ज्ञान और बुद्धि अर्जित नहीं की। सामने बैठे व्यक्ति को देखिये कितनी ज्ञानपूर्ण बातें करता है। कैसा बढ़िया और परिष्कृत व्यक्ति है।

मुझे यह सब पता है क्योंकि मैनें यह सब अनुभव किया है। ऐसे कितने ही व्यक्तियों से मैं मिला हूँ, बातें की हैं और उनके साथ काम किया है। आरम्भ में मैं ऐसे व्यक्तियों से बेहद प्रभावित भी हुआ हूँ। प्रभावित तो कुछ इस हद तक हुआ कि कई बार तो खु़द को उन जैसा बना लेने के योजनाबद्ध प्रयास भी आरम्भ कर दिये। परंतु बीतते समय के साथ जैसे पहाड़ों पर गिरी बर्फ़ पिघलती है और पथरीले पहाड़ उजागर होने लगते हैं; ठीक उसी तरह समय के साथ इन "बुद्धिजीवियों" का सत्य भी सामने आने लगता है। पहली कुछ मुलाकातें गहरा प्रभाव छोड़ती हैं; लेकिन अगर आपको इनसे और मुलाकातें/बातें करने का अवसर मिले तो यह प्रभाव काफ़ूर होने लगता है। ऐसा क्यो भला?

इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिये सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि आखिर बुद्धिजीविता क्या है? (कृपया मुझे बताइयेगा कि क्या "बुद्धिजीविता" हिन्दी का एक सही शब्द है? मुझे नहीं पता; मैनें तो बस अंग्रेज़ी के शब्द intellectualism का अनुवाद करने की कोशिश की है)... ख़ैर, मेरे विचार में बुद्धिजीवी होने की परिभाषा सीधी-सादी है -बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जिसके विचार समाज को प्रभावित करते हों। इन विचारों का प्रकटन वह व्यक्ति लेखन, भाषण, फ़िल्मों, चित्रकला, नर्तन इत्यादि किसी भी विधा के ज़रिये कर सकता है। ये ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें विश्लेषण, चिंतन और रचनात्मक आलोचना करने की क्षमता होती है। ये व्यक्ति बौद्धिक ज्ञान का सृजन करते हैं और पहले से उपलब्ध ज्ञान को अपने चिंतन की कसौटी पर परख कर उसे संवारते भी हैं।

एक समय का ज्ञान और सच यह था कि सूर्य धरती के चारों ओर घूमता है। यह बात उस समय के स्कूलों में पढ़ाई जाती रही होगी
एक ज़रूरी बात यह भी है कि वास्तविक बुद्धिजीवी वह लोग होते हैं जो स्वयं को बुद्धिजीवी नहीं मानते। क्योंकि बुद्धिजीविता को जिस तरह हमारे समाज में एक मजदूर की कमर-तोड़ मेहनत के बनिस्बत अधिक सम्मान हांसिल है -उससे स्वयं के बुद्धिजीवी होने का अहसास व्यक्ति को अंहकार की ओर ले कर जा सकता है। कोई भी वास्तविक बुद्धिजीवी इस बात को जानता है कि अहंकार विनाश का मार्ग होता है। वह यह भी जानता है कि किसी भी बात का अंहकार कितनी निर्मूल और खोखली भावना है। जो बुद्धिजीवी है वह जानता है कि वह, उसका ज्ञान और उसका समय प्रकृति के अति-विशाल चक्र में एक बेहद नगण्य कड़ी के अलावा और कुछ भी नहीं है। वह अपने ज्ञान का अहंकार इसलिये भी नहीं करता क्योंकि उसने इसी ज्ञानार्जन प्रक्रिया में यह सीखा हुआ होता है कि कोई भी ज्ञान हमेशा के लिये सच नहीं रहता। आने वाला समय और पीढ़ियाँ जब उस ज्ञान को अपनी नई समझ और बेहतर संसाधनों के ज़रिये परखती हैं तो बहुत बार ऐसा होता है कि पहले से स्थापित बहुत से तथ्य ग़लत साबित हो जाते हैं। एक समय का ज्ञान और सच यह था कि सूर्य धरती के चारों ओर घूमता है। यह बात उस समय के स्कूलों में पढ़ाई जाती रही होगी और बड़े-बड़े विद्वान इस बात को अपने तर्कों के ज़रिये साबित करके उस समय के बुद्धिजीवी होने का ख़िताब हांसिल करते रहे होंगे। लेकिन बाद में यह बात ग़लत साबित हो गयी और आज का सच यह है कि धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है।

दुर्भाग्य से हमारे वर्तमान में दिखावे का बड़ा महत्व है। कुछ किताबें, पत्रिकाएँ, फ़िल्में देख/पढ़ कर अधिकांश लोग खु़द को मन-ही-मन बुद्धिजीवी होने के ख़िताब से नवाज़ देते हैं और फिर स्वयं के इस आधे अधूरे ज्ञान को दूसरों पर बड़े चाव और गंभीरता से लादते हैं। मुझे परेशानी उन लोगों से है जो केवल दूसरे की लिखी किताबों में पढ़ी बातों को दोहरा कर स्वयं को हावी करने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगो की कोई मौलिक सोच नहीं होती। और इसी कारण ऐसे लोग अपने मत की आलोचना सहन नहीं कर पाते। वे पढ़ी-पढ़ाई एक राय से बंध जाते हैं और अपने मन में चिंतन के लिये कोई जगह छोड़े बिना अपनी सोच के दरवाज़े बंद कर लेते हैं। यदि कोई उनकी इस उधार ली हुई राय से इत्तेफ़ाक नहीं रखता तो उनके पास कहने को अधिक कुछ नहीं बचता।

मेरे विचार में एक वास्तविक बुद्धिजीवी अपनी राय को बदलने के लिये हमेशा तैयार रहता है। वह हमेशा अन्य लोगो की बात सुनता है और उस पर गंभीरता से मनन करता है। वह संसार को केवल अपने ही नहीं वरन अन्य लोगो के दृष्टिकोण से भी देखने की काबलियत रखता है। यदि उसे दूसरे का मत बेहतर लगे तो वह ना केवल उस मत को स्वीकारता है बल्कि उस दूसरे व्यक्ति के प्रति आभार व्यक्त करता है कि उसने उसके ज्ञान को परिष्कृत करने में सहायता की।

वास्तविक ज्ञान और बुद्धि मानव को सहनशील और सम्मिलनशील बनाती है।

आरम्भ में मैं बात कर रहा था अपने सहकर्मियों की जो दिखावे के शिकार थे। मुझे नहीं लगता कि ऐसे व्यक्ति जान-बूझ कर ज्ञानी होने का दिखावा करते हैं। इसके उलट सच यह है कि अपने बुद्धिजीवी होने की धारणा उनके मन में इस तरह बैठ जाती है कि वे इस pseudo-intellectualism के आधार पर स्वयं को दूसरों से बेहतर मानने लगते हैं। अहंकार की भावना को तो बस ऐसी ही स्थिति की तलाश होती है। मैनें इस तरह की भावना में बंधे बहुत-से लोगों को देखा है जिनमें कवि, लेखक, चित्रकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक इत्यादि भी शामिल हैं।

ज्ञान होना, जानकारी होना बहुत अच्छी बात है लेकिन अपने ज्ञान का दिखावा और अहंकार हमारे ज्ञान के परिष्करण में एक बड़ी रुकावट बन कर खड़े हो जाते हैं। चाहे हमारा कुंआ कितना भी बड़ा क्यों ना हो; अंतत: हम कूएं के मेंढक ही रह जाते हैं।

उपकार

उपकार मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्मों में से एक है। क्यों भला?... इसके मैं कोई 25-30 कारण तो गिना ही सकता हूँ लेकिन यहाँ सबका बयान नहीं करूंगा। इस फ़िल्म के पसंद आने का सबसे पहला कारण तो शायद यह है कि इसमें मनोज कुमार मुख्य पात्र की भूमिका में हैं। मनोज कुमार द्वारा निभाये गये चरित्रों से मैं कहीं ना कहीं जुड़ाव महसूस करता हूँ। और उन चरित्रों के मुकाबिले जो मैं नहीं हूँ वह मैं हमेशा से ही बनना चाहता हूँ। सो यह कहा जा सकता है कि मनोज कुमार द्वारा अभिनीत चरित्र मेरे बचपन से ही मेरे "हीरो" रहें हैं। उपकार मुझे पसंद है क्योंकि:

1) जैसा कि मैनें कहा, मनोज कुमार द्वारा मुख्य पात्र की भूमिका का निभाया जाना व्यक्तिगत-रूप से मेरे कारण नम्बर एक है। इस पात्र का नाम "भारत" है। क्या अब आपको पता चला कि ध्रुवभारत में "भारत" कहाँ से आया है? :-) भारत एक आदर्शवान, मेहनती, ईमानदार, पढ़ा-लिखा, नौजवान किसान है जो अपने जीवन के कर्तव्य को समझता है। वह पैसे के लालच में खेती-बाड़ी छोड़कर शहर नहीं जाता क्योंकि उसे इस बात का अहसास है कि यदि हर किसान शहर चला जाएगा तो फिर अनाज की पैदावार नहीं हो सकेगी। भारत के चरित्र में मानवता है, भावनाएँ हैं और प्यार है... और शायद एक अच्छा इंसान होने के लिये इतना काफ़ी है।

2) यह एक मसाला फ़िल्म नहीं है बल्कि काफ़ी अर्थपूर्ण फ़िल्म है। साधारण भाषा में सरल और रोचक संवादों के ज़रिये बहुत से सामाजिक संदेश उस जनता तक पँहुचाने की कोशिश की गयी है जो इस फ़िल्म को देखने सिनेमा तक गई। परिवार-नियोजन का महत्व, "जय जवान जय किसान" के नारे का महत्व, किसानों को कालाबाज़ारी से बचने की सलाह इत्यादि कितने ही संदेश यह फ़िल्म जनता तक पहुँचाती है। आजकल अर्थपूर्ण और संदेशवाहक फ़िल्में तो लगता है बननी ही बंद हो गयी हैं।

3) यह एक सीधी-सादी सरल फ़िल्म है। एक साधारण-से गांव के साधारण-से जीवन पर बनी एक कहानी। मुझे ऐसी फ़िल्मे अच्छी लगती हैं जिनमें शहरी चमक-दमक की जगह हमारे गांवों की मिट्टी की खुशबू और सरलता हो। यदि कोई इस फ़िल्म के हल्के-फुल्केपन में छुपी गहरी दार्शनिकता को समझ सके तो बढ़िया लेकिन अधिकतर लोग इसे melodramatic और intellectually-shallow फ़िल्म ही कहेंगे।

4) लोगों ने आजकल आदर्श रखना और निभाना दोनो ही छोड़ दिये हैं। लेकिन यह कहानी दर्शाती है कि चाहे खरगोश तेज़ी से प्रगति करता दिखाई दे लेकिन कछुए की निरन्तरता का आदर्श अंतत: उसे विजय दिला ही देता है। Nice guys don't finish last.

5) इस फ़िल्म का गीत-संगीत बहुत ही मधुर और आत्मा को छू लेने वाला है। जहाँ एक ओर "क़स्में वादे प्यार वफ़ा सब" जैसा दर्द-भरा और दार्शनिक गीत है तो वहीं "आई झूम के बसंत" जैसा गीत भी है जिस पर मन थिरकने लगता है। "मेरे देश की धरती" तो देशभक्ति के गीतों में हमेशा अग्रणी रहा है। "दीवानों से ये मत पूछो" और "हर ख़ुशी हो वहाँ" दुख और असहाय होने के भावों को बड़ी ही शिद्दत से प्रस्तुत करते हैं।

6) गांव के जीवन की सरलता में जो हास-परिहास और अपनापन घुला होता है उसको भी यह फ़िल्म बखूबी उभारती है। सोम-मंगल, उनके बापू, प्यारी, लखपती और टुनटुन द्वारा निभाये गये किरदार पूरी फ़िल्म को जीवंत बनाये रखते हैं और उसे कहीं भी उबाऊ नहीं होने देते।

7) इस फ़िल्म का अंत भी मुझे बहुत पसंद है। इसका अंत ख़ुशनुमा है। अधिकांश ख़ुशनुमा अंत वाली फ़िल्मों में अगर किसी कारण से हीरो अपाहिज हो जाता है तो फ़िल्म के ख़त्म होते-होते हीरो पूरी तरह ठीक हो जाता है। और फ़िल्म ज़िन्दगी को परफ़ेक्ट दिखाते हुए समाप्त होती है। इस फ़िल्म में भारत के दोनो हाथ हमेशा के लिये कट जाते हैं लेकिन फ़िल्म यह दिखाते हुए समाप्त होती है कि कविता (फ़िल्म की नायिका: आशा पारेख) ने इसके बावज़ूद भारत का साथ नहीं छोड़ा। भारत को अपने भाई पूरण (प्रेम चोपड़ा) के रूप में अपने दोनों हाथ मिल गये थे। पूरण ने अपनी सभी बुराईयों से तौबा करते हुए गांव वापस आना और अपने खेतों में हल चलाने का निर्णय कर लिया था। भारत को कविता का मिल जाना बहुत दिलचस्प है क्योंकि वास्तविक ज़िन्दगी में इससे मुख़्तलिफ़ बातें अधिक होती हैं। विकलांगता वास्तविक संसार में (कमोबेश) अभिशाप की तरह है और विकलांग व्यक्ति को व्यहवारिक तौर पर समाज से बाहर ही रखा जाता है। ऐसा होता है लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिये। फ़िल्म के ख़त्म होने पर सिनेमा-हॉल से बाहर जाने की जल्दी के चलते शायद अधिकतर लोग इस संदेश को ना तो देखते होंगे और ना ही इसे तरजीह देते होंगे। हालांकि मेरे विचार में यह भी इस फ़िल्म द्वारा दिया जाने वाला एक महत्वपूर्ण संदेश है।

कल अखबार में पढ़ा कि Slumdog Millionaire में लतिका का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री फ़्रीडा पिंटो को "नन्ही कली फ़ाउंडेशन" ने विश्व की 101 सबसे अधिक Impressive and Accomplished Women की सूची में शामिल किया है। यह संस्था बालिकाओं के उत्थान के लिये कार्य करती है। इस सूची में फ़्रीडा के अलावा चैरी ब्लेयर, शबाना आज़मी, सानिया मिर्ज़ा, इंदिरा नूयी, नैना लाल किदवई, नीता अम्बानी, सुष्मिता सेन, विद्या बलान, प्रियंका चोपड़ा और नंदिता दास के नाम भी शामिल हैं।

शोहरत की नज़र से देखा जाये तो शायद फ़्रीडा का इस सूची में होना ठीक माना जा सकता है। लेकिन फ़्रीडा ने आज तक केवल एक फ़िल्म में काम किया है। इस फ़िल्म ने संसार भर में धूम मचा दी तो इसके पीछे बहुत से कारक थे -और मेरे विचार में फ़्रीडा उनमें से एक नहीं थी। लेकिन फिर भी भाग्य देखिये कि आज फ़्रीडा की शोहरत कहाँ से कहाँ आ पँहुची है। एक अभिनेत्री के तौर पर अभी फ़्रीडा को अपने को साबित करना बाकी है।

चाहे फ़्रीडा कितनी भी मशहूर क्यों ना हो जायें लेकिन इस सूची में उनका शामिल होना बहुत अखरता है। आप उन्हें विश्व की सबसे खूबसूरत महिलाओं की सूची में शामिल कीजिये तो यह उचित ही होगा। लेकिन बालिकाओं के उत्थान के लिये काम करने वाली एक संस्था द्वारा फ़्रीडा को सबसे अधिक Impressive and Accomplished Women की सूची में शामिल किया जाना कुछ जमा नहीं। ये वही फ़्रीडा हैं जिन्होनें पैसा और शोहरत मिलते ही अपने मंगेतर, रोहन, से सगाई तोड़ कर उसे छोड़ दिया था। तब इन्होनें रोहन से, जो कि इनके साथ आठ वर्षों से था, कहा था कि अब इनके सामने एक सुनहरा अवसर है और वे इसका लाभ नहीं उठा सकेंगी अगर वे रोहन के साथ "बंधी" रहेंगी। अवसरवाद के समक्ष नैतिकता और प्रेम का कुछ भी मोल फ़्रीडा ने नहीं लगाया था। बाद में वे अपनी तरह मशहूर और कामयाब अभिनेता देव पटेल के साथ दिखाई देने लगीं। नये ज़माने की कामयाब लड़कियों के लिये ऐसी बातें शायद असाधारण ना हों लेकिन जिस व्यक्ति में इतनी भी नैतिकता हो तो ऐसा व्यक्ति और चाहे जो हो जाये लेकिन एक अच्छा इंसान नहीं हो सकता। मेरे ख़्याल में बालिकाओं के उत्थान की बात करने वाली संस्था को इस प्रसंग पर विचार कर लेना चाहिये था।

लकड़ी की एक छोटी-सी खूंटी सड़क की बीचो-बीच गड़ी है और एक नेवला करीब एक मीटर लम्बी, पतली-सी, पुरानी रस्सी से इस खूंटी के साथ बंधा। किसी बेचैनी में नेवला खूंटी के चारों ओर गोल-गोल घूम रहा है मानो अपने लिये कोई काम दिये जाने की खातिर उतावला हो। बड़ी-सी गिलहरी जैसा लगने वाले भूरे रंग के इस जीव की चाल तेज़ और फुर्तीली होती है। वहीं नेवले के पास ही आदमी नाम का एक और जीव खड़ा है। उसने टखनों तक आती तहमद के ऊपर एक मैला गेरुए रंग का कुर्ता पहना है। सर पर एक अजीब-से ढंग से बंधी पगड़ी है। उसके हाथ में एक गोल पिटारी है और वह अपने आस-पास कुछ मीटर की दूरी पर खड़े 8-10 नौजवानों और बच्चों से कह रहा है:

"बाबू साहब, इस पिटारी में एक नाग है। नेवले और नाग का बैर जनम-जनम का बैर है। ये एक दूसरे को देखते ही मारने को दौड़ते हैं। आज आप एक ऐसी लड़ाई देखेंगे जैसी आपने कभी न देखी होगी। एक तरफ़ ये फुर्तीला नेवला है और दूसरी तरफ़ ये भयंकर नाग"

सांप की पिटारी अपनी हथेली पर टिकाये बोलने वाला यह आदमी एक संपेरा है। पिटारी अभी भी बंद है और इसके अंदर किनारे-किनारे एक सांप कुंडली मारे बैठा है। संपेरे ने पिटारी वाला हाथ अपने शरीर से दूर करके पिटारी का ढक्कन धीरे-धीरे ऐसे उठाया जैसे कि सांप बस अभी निकल कर उसे डस लेगा। संपेरे ने ढक्कन हटा कर एक ओर रखी अपनी पोटली पर उछाल दिया। पिटारी खुल गयी है लेकिन कोई सांप बाहर नहीं निकला। संपेरे ने अपने दाहिने हाथ को पिटारी में डाला और "भयंकर नाग" के नाम पर एक छोटा-सा पतला-सा सांप पूंछ से पकड़ कर धीरे-धीरे पिटारी से बाहर निकाला और उसे पूंछ से पकड़ कर हवा में लटका लिया। बल खाता हुआ सांप ऊपर की ओर उठता है और फिर अपने ही वज़न के कारण थक कर फिर नीचे की ओर चला जाता है। सांप को देखकर आस-पास खड़े नवयुवकों में सरसराहट दौड़ जाती है। अब संपेरा फिर से कुछ कह रहा है:

"साहेबान, ये नाग बड़ा खतरनाक है। इसका काटा पानी नहीं मांगता। लेकिन आप लोग डरिये मत और आराम से अपनी-अपनी जगह खड़े रहिये। ये आप लोगो को कुछ नहीं कहेगा। मैनें इसका ज़हर निकाल दिया है और दांत भी तोड़ दिये हैं"

संपेरे की बात सुन कर भी नवयुवक काफ़ी असहज हैं और वे सब दो-तीन फ़ुट और दूर हट जाते हैं। संपेरा अब सांप को ज़मीन पर थोड़ा-सा टिकाता है और रस्सी से बंधा नेवला तुरंत सांप के पास आ धमकता है। सांप नेवले से दूर हटने की कोशिश करता है। संपेरा उसकी पूंछ देता है और उसे पूरा ज़मीन पर गिरा कर स्वयं दूर हट जाता है। सांप की सारी उम्मीदें स्वाहा हो जाती हैं। वह बड़ा शिथिल-सा ज़मीन पर पड़ा हुआ है। अपने "जन्मजात दुश्मन" नेवले को देखकर भी उसके अंदर कोई हरकत नहीं है। उसने अपने को भाग्य के सहारे छोड़ दिया है। नेवला सांप के चारों तरफ़ घूमता है और फिर अचानक उसने बड़ी फुर्ती के साथ सांप के मुंह को अपने पैने दांतो में दबोच लिया। सांप दर्द से बिलबिला गया और उसने नेवले के चारों ओर खुद को लपेट कर कुंडली बना ली। लेकिन नेवले को इस कमज़ोर-सी कुंडली के दबाव से कोई असर नहीं पड़ा। उसने सांप के मुंह को काटना शुरु कर दिया। तभी संपेरा आगे बढ़ा। उसने नेवले को दूर हटा कर सांप को पूंछ से पकड़ कर फिर हवा में उठा लिया और सबको उसे दिखा-दिखा कर उसके ज़ख़्म की नुमाइश करने लगा। नेवला नीचे से कूद-कूद कर हवा में उठे हुए सांप तक पँहुचने की कोशिश में लगा है। नुमाइश के बाद संपेरे ने सांप को फिर से ज़मीन पर रख दिया। ज़मीन पर आते ही सांप ने जितना हो सकता था उतनी तेज़ी से भागना शुरु किया। नेवला उसके पीछे दौड़ा लेकिन इससे पहले कि वह सांप को पकड़ पाता उसके गले में बंधी रस्सी तन गयी और वह आगे ना बढ़ सका। सांप बस एक सेकेंड के रहते हुए नेवले की पंहुच से बाहर निकल गया। नेवले ने ज़ोर लगाया लेकिन रस्सी से ना छूट सका। सांप बच गया था और तेज़ी से दूर भाग रहा था। पर तभी संपेरा आगे बढ़ा और उसने दूर जाते सांप को फिर से पूंछ पकड़ कर उठा लिया और उसे वापस नेवले के दायरे में लाकर ज़मीन पर रख दिया। नेवले ने तुरंत ही सांप का मुंह फिर से दबोच लिया और उसे काटने लगा। असहाय सांप तड़पने और बल खाने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा था। आस-पास घेरा बना कर खड़े युवक इस "लड़ाई" का आनंद ले रहे थे।

सांप अब बुरी तरह घायल हो चुका है और उसने विरोध करना बिल्कुल छोड़ दिया है। नेवला अपनी मर्ज़ी से उसे जहाँ-तहाँ काट रहा है। लेकिन अचानक सांप को फिर से मौका मिला और उसने खुद को नेवले की ज़द के बाहर पाया। इस उम्मीद में कि अब शायद बच जाए घायल सांप में जितनी शक्ति बची थी उसका प्रयोग करते हुए उसने नेवले से दूर रेंगना शुरु किया। इस पर संपेरे ने नेवले की रस्सी खोल दी। बस फिर क्या था नेवला आगे बढा़ और उसने रेंगते हुए सांप को दबोच कर मार डाला। मरा हुआ सांप अब ज़मीन पर उल्टा पड़ा था और उसके शरीर के नीचे का सफ़ेद हिस्सा ऊपर की ओर हो गया था। संपेरा फिर कुछ कह रहा है:

"देखा आपने साहब, कैसी भयंकर लड़ाई हुई! यह नाग बड़ा ही भयंकर था लेकिन इस नेवले ने लम्बी लड़ाई के बाद आखिर जीत हांसिल कर ही ली। नाग हार गया और मारा गया"

आस-पास खड़े युवकों के चेहरे खिले हुए थे। उन्हें ऐसा लग रहा था की "भयंकरता" हार गयी थी। संपेरे ने सभी युवकों से पैसे इकठ्ठे करने शुरु किये, "अरे साहब मैनें एक सांप खोया है। कुछ तो ख्याल कीजिये"। संपेरे ने जितने हो सकते थे उतने पैसे इकठ्ठे किये और अपनी पोटली समेटने लगा। तमाशबीन भी अपनी-अपनी राह चल दिये। संपेरे ने पोटली को कंधे पर टांगा और नेवले की रस्सी एक हाथ में पकड़ ली। दूसरे हाथ से मरे सांप को उठाया और संपेरा चल दिया। मैं कह नहीं सकता कि क्या संपेरा उस मरे सांप को रास्ते में आने वाले किसी कूड़े के ढेर पर फ़ेक देगा या फिर सांप का यह मृत शरीर आज रात नेवले का भोजन बनेगा।

विश्व में कितनी क्रूरता है। जंगलों में यदि ऐसी लड़ाईयाँ हों तो उसे प्रकृति का खेल मानकर रहा जा सकता है। जंगल में भी नेवला ही जीतेगा क्योंकि उसके शरीर पर सांप के ज़हर का अधिक असर नहीं होता। लेकिन कम-से-कम जंगल में अपने जीवन के लिये लड़ने वाले सांप के दांत तो टूटे नहीं होंगे। उसका ज़हर चाहे असर ना करे लेकिन उसके पास तो होगा। और अगर उसे भागने का अवसर मिले तो कोई संपेरा पूंछ पकड़ कर उसे वापस मौत के मुंह में नहीं डालेगा। ज़हर ना सही लेकिन हो सकता है कि अपनी लपेट के बल पर ही सांप नेवले से जीत जाये।

लेकिन यहाँ आदमियों की बस्ती में पहले उसके शरीर को कमज़ोर किया जाता है, उसका ज़हर निकाल लिया जाता है, उसके दांत तोड़ दिये जाते हैं और लड़ाई के दौरान भागने पर उसे वापस नेवले के मुंह में डाल दिया जाता है। फिर इस लड़ाई को "भयंकर" होने का नाम दिया जाता है। अनपढ़ संपेरा तो अपनी आजीविका कमा रहा है -लेकिन ये पढ़े-लिखे युवक इस लड़ाई को किस तरह "भयंकर" मान लेते हैं और किस तरह सांप की बेचारगी पर हँस लेते हैं -मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

मानव समाज अमानवीय और क्रूर होने के साथ-साथ बेवकूफ़ भी है।

प्रेम की पराकाष्ठा तभी पाई जा सकती है जब "बराबरी" और "मैं" जैसी चीज़ों से ऊपर उठ कर "समर्पण" और "तुम और केवल तुम" को अपनाया जाये। प्रेम करने वाला यदि अपने बारे में पहले सोचता है तो वह शायद प्रेम तो कर सकता है लेकिन प्रेम की उस चरम सीमा को नहीं पा सकता। इस संदर्भ में मुझे उद्धव और गोकुल की गोपियों का प्रसंग बहुत उचित लगता है। उद्धव जैसे ब्रह्म-ज्ञानी ने भी गोपियों से सीखा की प्रेम की पराकाष्ठा क्या होती है। जब तक उद्धव को केवल "मैं" से लगाव था और अपने ज्ञान का अभिमान था -तब तक वह ब्रह्म-ज्ञानी बनने की सीमा तक तो जा सकते थे लेकिन उस ब्रह्म को पा नहीं सकते थे। ब्रह्म यहाँ पर लक्ष्य है... ब्रह्म यहाँ पर वो प्रेमी है जिसे हम पाना चाहते हैं। उद्धव ने देखा कि गोकुल की गंवार गोपियों ने अपने प्रेमी कृष्ण को इस तरह पा लिया था कि वे कृष्ण के साथ एकाकार हो गयी थीं। इसके लिये उन गोपियों को समझदार या विद्वान बनने की ज़रूरत नहीं थी। उन्होनें केवल अपने-आप को पूर्ण-रूपेण कृष्ण को समर्पित कर दिया था। एक प्रेमी ने यह नहीं देखा कि कौन ऊँचा है और कौन नीचा... ना ही उसने अपनी बराबरी तौलने की कोशिश की। उसने केवल यह किया कि अपने आप को भुला कर अपना अस्तित्व अपने प्रेमी को समर्पित कर दिया।

खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार


अमीर खुसरो ने यहाँ केवल दो पंक्तियों में सारी बात कह दी है। प्रेम की पराकाष्ठा का पार वही पा सकता है जो इसमें डूब जाये। अपने अस्तित्व को विलीन कर दे। जो प्रेमी प्रेम के दरिया के पार उतरने की गणना में उलझा रहता है वो कभी पार नहीं उतरता। इस दरिया को पार करने के लिये इसमें डू़ब जाना पड़ता है। खुसरो की दो और पंक्तियाँ देखिये:

अपनी छब बनाय के, जो मैं पी के पास गयी
जब छब देखी पिया की, तो मैं अपनी भूल गयी


जिस समर्पण की हम बात कर रहे हैं -सूफ़ी संत शायद उसके सबसे नज़दीक पँहुचने वालो में से हैं। उस "एक" के इश्क़ में इन संतो ने अपना सब कुछ भुला दिया और जब अपनी भावनाओं को बयां किया तो वो भी इस शिद्दत के साथ कि सुनने/पढ़ने वाले हर व्यक्ति को वह अपनी ही बात लगने लगती है। प्रेम में पूर्ण समर्पण ज़रूरी है। प्रेम है ही पूर्ण समर्पण। बाद में मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी यही बात अपने ही अंदाज़ में कही।

ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है


सच्चा इश्क़ बहुत कठिन काम है -एक आग के दरिया को पार करने के समान है। ऊपर से ये कि इस दरिया को पार नहीं करना है बल्कि इसमें डूबना ही लक्ष्य होता है।

सबसे पहले तो मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं यहाँ भौतिक जगत की प्रतियोगिताओं में किसी के बराबर होने या किसी से आगे होने की बात नहीं कर रहा। यहाँ बात भावनाओं और भावनाओं की अभिव्यक्ति की हो रही है। प्रश्न यह है कि प्रेम और मित्रता जैसे संबंधो में क्या बराबर होने की भावना का महत्व होता है? और आगे स्पष्ट करना चाहूँगा कि यहाँ बराबर होने की नहीं वरन अपने को बराबर या ऊँचा मानने या मनवाने की बात हो रही है।



विपत्ति पड़े पै द्वार मित्र के ना जाइये

एक समय था जब इस उक्ति को मानते हुए ही सुदामा अपने मित्र द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के पास सहायता मांगने जाने में हिचकिचा रहे थे। उनका मानना था कि इस तरह मित्र के आगे हाथ फैलाने से उनके स्वाभिमान को ठेस लगती है। यह बात शायद ठीक भी हो लेकिन फिर आखिर मित्र होते किस लिये हैं? संसार में कोई भी मनुष्य पूर्णत: आत्मनिर्भर नहीं होता। जन्म लेने के तुरंत बाद वह जीने के लिये माँ पर निर्भर होता है। और फिर उसके बाद भी माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, सगे-संबंधी और मित्र उसके जीवन के पल्लवित, पुष्पित और फलित होने में किसी ना किसी रूप में सहायता करते हैं। तो फिर यह अहम कैसा कि विपत्ति पड़ने पर मित्र के द्वार नहीं जाना चाहिये? यदि मित्र से सहायता नहीं लेंगे तो क्या शत्रुओं से सहायता मांगी जाये? और क्या उनसे सहायता मांगने में हिचक नहीं होगी?

मित्र केवल हँस-बोल कर अपना खाली समय समय बिताने के प्रयोजन से नहीं बनाये जाते। मित्र की सहायता करना ही मित्रधर्म है। अंतत: सुदामा को यह बात समझ में आ गयी थी। वे द्वारिका गये और कृष्ण ने भी उनकी मित्रता का मान रखा। उन्हें अपने बराबर के सिंहासन पर नहीं बल्कि स्वयं अपने सिंहासन पर बिठाया। इसे एक मित्र के प्रेम की अभिव्यक्ति माना जा सकता है -लेकिन अपने स्वयं के सिंहासन पर बिठाने वाली यह बात इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इससे कृष्ण ने यह दर्शाया कि वे सुदामा को स्वयं से अलग नहीं मानते थे। अब चूंकि कृष्ण की निगाह में कृष्ण और सुदामा एक ही थे -सो सुदामा को बराबर का स्थान देने का कोई प्रश्न ही नहीं था।

प्रेम और मित्रता जैसे पवित्र संबंधों में बराबरी होने या ना होने जैसी बातों के आने से इन संबंधों की गरिमा और पवित्रता को क्षति पँहुचती है। बहुत समय से मैं नारीवाद के चलते बराबरी की यह बातें सुनता आया हूँ। मेरी दृष्टि से देखें तो स्त्री और पुरुष एक ही शय के आधे-आधे घटक हैं। और यही बराबरी है। यह सच है कि प्रकृति ने इन दोनो घटकों को अलग-अलग तरह का शरीर, कुछ अलग-अलग भावनाएँ और व्यहवार दिये हैं। पुरुष नाम के घटक की देह सामान्यत: अधिक शक्तिशाली होती है और इसी के चलते मानव ने विकास के क्रम में (मानवता छोड़ते हुए) स्त्री नामक घटक का दमन किया है। इसमें कोई शक नहीं है। प्रकृति ने जो बराबरी स्त्री-पुरुष को दी थी उसका उलंघन पुरुषों ने किया -यह सच है।

समय कभी रुकता नहीं और हमेशा चलता बदलता रहता है। आज स्त्री अपनी खोयी हुई बराबरी को पाने के लिये प्रयत्नशील है। यह देख कर मन बहुत प्रसन्न होता है। हालांकि मैं स्त्री को मनसा, वाचा, कर्मणा बराबर मानता हूँ -लेकिन पुरुष होने के नाते मुझे लज्जा का अनुभव भी होता है कि जो बराबरी प्राकृतिक-रूप से स्त्री की है -उसे आज स्त्री को पुरुषों लगभग छीनना पड़ रहा है।

जो नारीवाद स्त्री को सम्मान दिलाये उसे शत-शत नमन...

लेकिन मेरे मन में इसी कड़ी में अगला प्रश्न यह उठता है कि कहीं कुछ सौ वर्षों के बाद पुरुषवाद की ज़रूरत तो नहीं आ पड़ेगी? पुरुष देह अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली होती है। पुरुषों ने इसका अनुचित लाभ उठाया और स्त्री-पुरुषों से बने इस समाज में जितना मान, सम्मान और सुविधाएँ अधिकारपूर्वक उनकी थीं -उससे कहीं अधिक पर उन्होनें (बलपूर्वक) अधिकार कर लिया। नारी पिछड़ गयी।

वर्तमान संसार पहले से कहीं अधिक लोकतांत्रिक है। आज भी विश्व में हिंसा बहुत है लेकिन फिर भी इतिहास के किसी भी और दौर की तुलना में कम है। विरोध की आवाज़े आज भी दबायी जाती हैं लेकिन अब यह उतना आसान नहीं रहा जितना किसी ज़माने में हुआ करता था। इन सब परिवर्तनों के चलते आज नारी को अपनी आवाज़ उठाने का अवसर और साधन दोनों उपलब्ध हुए हैं। आज नारी (यानि विश्वभर की स्त्रियाँ) एक विकासशील देश की तरह है -धरती के कुछ हिस्सों में स्त्री पुरुषों के बिल्कुल बराबर है -और दूसरे कुछ हिस्सों में अभी विकास की काफ़ी गुंजाइश है। यह देख कर बहुत अच्छा लगता है कि स्त्रियों के दमन के दिन धीरे-धीरे ही सही लेकिन समाप्त हो रहे हैं।

जो प्रश्न मैनें पहले उठाया अब उस पर फिर से निगाह डाली जाये। क्या इतिहास अपने को दोहरा सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं होगा की अपनी इस शक्ति के मद में नारी वही करे जो पुरुषों ने किया था -दूसरे घटक का दमन? मुझे इस बात की कुछ हद तक आशंका है लेकिन यह आशंका बहुत गंभीर नहीं है। इस आशंका से कहीं अधिक चिंतित करने वाला प्रश्न यह है कि क्या नारीवाद से तप कर निकली नारी नारी रह जाएगी?

हालहि में मैनें एक सवाल किया था कि क्या प्रेम में पूर्ण समर्पण संभव है? मेरी नज़र में इसका उत्तर "हाँ" है। लेकिन जब भी मैं नारीवादी स्त्रियों के ख़्यालात से रू-ब-रू होता हूँ -तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि यह नारीवाद केवल बराबरी पाने की एक मुहिम नहीं है। कहीं ना कहीं इसकी नींव में पुरुषों के प्रति घृणा का भाव भी छुपा होता है। इस भावना के चलते एक ही शय के ये आधे-आधे घटक, स्त्री और पुरुष, कभी भी एक दूसरे के प्रति ऐसा समर्पण नहीं कर पाएंगे कि ये आधे-आधे ना रह कर एक हो जायें।

पुरुषों द्वारा स्त्री के दमन ने सामान्यत: पुरुषों को कोमल-भावनाओं से पूर्ण नहीं रहने दिया। तो क्या एक दिशाहीन नारीवाद भी स्त्रियों को कोमल-भावनाओं से रिक्त कर सकता है?

क्रमश:...

मैं मन का पंछी, इस सूने आकाश में अकेला बिना किसी संगी-साथी के उड़ रहा हूँ। अकेलापन -यही मेरा भाग्य है। मेरा आकाश एक वीराने से भी कहीं सूना है। मेरे कान जैसे किसी आवाज़ का सहारा ढूंढते रहते हैं; पर कोई आवाज़ नहीं आती। चहूँ ओर केवल एक गूंजता हुआ सन्नाटा है। किसी की खोज में आंखे दूर क्षितिज को चीरती चली जाती हैं; पर कुछ दिखाई नहीं देता। कुछ दिखता है तो वही निर्दयी समानता से फैला आकाश का नीला रंग। कितनी ही दूर तक देखिये यही नीला रंग फैला है -यहाँ -वहाँ -हर तरफ़ वही आकाश का नीला रंग। मैं जानता हूँ कि कुछ और देख पाने की मेरी इच्छा की पूर्ति संभव नहीं -इसीलिये मैनें इस नीले रंग में ही कुछ बदलाव ढूंढने की कोशिश की थी। लेकिन सिर्फ़ हताशा ही हाथ लगी। इस नीले रंग में कहीं भी लेश-मात्र भी बदलाव नहीं है -इसका कोई किनारा नहीं है। यह मेरे हर तरफ़ इतने समान भाव से फैला है कि अब मुझे दिशा का ज्ञान भी नहीं रहा। मैं नहीं जानता कि मैं किस ओर जा रहा हूँ। सब दिशाएँ एक जैसी ही लगती हैं।

बस उड़ते रहना मेरी नियती है। इस विरहित सूने आकाश में किसी गंतव्य को पाने के बारे में सोचना भी अपने-आप को सांतव्ना देने जैसा होगा। जलता हुआ सूरज ठीक मेरे ऊपर चमक रहा है। आंखों को चुंधिया देने वाली चमक सब तरफ़ बिखरी हुई है और आग की लपट के समान गर्म हवाओं के थपेड़ों से मेरा शरीर जल रहा है। सूरज ऊपर है और ऐसा लगता है कि जैसे नीचे धरती पर भी कोई दावानल धधक रहा है। गर्म हवाएँ सब ओर से आकर जैसे मेरे शरीर से पानी की आखिरी बूंद भी सुखा देना चाहती हैं। इन गर्म हवाओं के पास भी तो ठंडक पाने का और कोई रास्ता नहीं है। संभवत: इसी लिये यह हवाएँ मुझ पर दया नहीं करती। ये मुझे जला कर ही संतुष्टि प्राप्त करती हैं।

मेरा गला प्यास के मारे सूखकर चिपक चुका है और अब कंठ से कोई आवाज़ भी नहीं निकलती। पहले मैं कभी-कभी घोर हताशा में खु़द पर ही चिल्ला लिया करता था पर अब वो भी नहीं कर सकता। मेरे पंख थक कर मेरे शरीर से टूट अलग होना चाहते हैं। मेरे लिये अपने पंखों को दिलासा देना मुश्किल हो रहा है। लेकिन अंतिम सांस तक उड़ना तो है -इसलिये मेरे पंखों -बस कुछ देर और अपने को संभाले रहो। हिलते रहो ताकि शरीर आगे बढ़ सके -उसी नीले क्षितिज की तरफ़। हाँ वही नीला क्षितिज -देखो! पास ही है ना! वहाँ शरीर आराम पाएगा। वहाँ अमृत के झरने होंगे जहाँ मैं अपनी प्यास बुझा सकूंगा। वहाँ किसी वृक्ष की ठंडी छांव में आराम की नींद सो सकूंगा। वहाँ मेरी सारी थकान दूर हो जाएगी। सारी मांसपेशियों को आराम आएगा। आत्मा भी स्वतंत्रता का अनुभव करेगी। मुझे नींद आएगी और मैं सो जाऊंगा।

इन विचारों के आते ही मुझमें कुछ स्फ़ूर्ती आयी है। पर शरीर अब भी साथ नहीं देना चाहता। मुझ मन की यही तो विडम्बना है -ये मेरा ही कार्य है कि मैं शरीर को आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करूं। ऐसा करने के लिये मैं शरीर को अलग-अलग प्रकार से प्रोत्साहित करता हूँ। पर मैं तो मन हूँ -जानता हूँ कि प्रोत्साहन केवल कुछ देर के लिये है। शरीर को थोड़ी ही देर में फिर से ऐसे ही सुंदर सपनें दिखाने होंगे -सपनें जो कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। मुझे तो शरीर पर दया आती है। इतना थक कर भी उड़ते रहना -यही इसकी नियती है।

मैं तो जानता हूँ कि क्षितिज के पार कुछ भी नहीं है। वास्तव में क्षितिज मृगतृष्णा का ही एक रूप है। कोई कभी क्षितिज तक नहीं पँहुच सकता क्योंकि क्षितिज का कोई अस्तित्व है ही नहीं। फिर भी मन होने के नाते मुझे शरीर को इस मृगतृष्णा में डालना पड़ता है -अन्यथा शरीर आगे नहीं बढ़ेगा। प्रकृति कितनी निर्दयी है।

मैनें सुना है कि प्रकृति ने मुझ जैसे हर एक मन को एक साथी दिया है। दो मन जब एक साथ उड़ते होंगे तो कितना अच्छा लगता होगा ना! वे एक-दूसरे का सहारा बन सकते होंगे। एक मन के पंखों से आती हवा -दूसरे के परों को सहलाती होगी -ठंडक देती होगी। उन्हें दिशा-ज्ञान ना भी हो तो क्या? मैं अकेला मन का पंछी, दिशा-ज्ञान इसीलिये तो चाहता हूँ कि सही दिशा में आगे बढ़ सकूं -कि शायद कहीं कोई साथ उड़ने वाला एक साथी मन मिल जाये। पर जाने क्यों प्रकृति ने मुझे एक साथी मन नहीं दिया। एक साथी -जिसके बारे में सोचकर मैं अपने दुखों और अपनी इस थकान को भुला सकूं। एक साथी -जो मेरे बारे में सोच सके। दोनो एक दूसरे पर अपने पंखों की छाया कर सकें -एक दूसरे को जलते सूरज की तपन से बचा सके। जाने क्यूं प्रकृति ने मुझे एक साथी नहीं दिया?

ख़ैर, अब अधिक देर नहीं। मैं जानता हूँ कि शरीर के साथ में स्वयं मैं भी हार चला हूँ। जी में आता है कि अपने पंखों से कह दूं कि वे रुक जाएं और शरीर को गिर जाने दें। आज तक उड़ते-उड़ते मैं कोई किनारा नहीं पा सका तो शायद गिरते हुए ही किसी किनारे को पा जाऊं।

मेरी आंखें बंद होने को हैं। मेरे पंख वीरों की भांति अब भी पूरी ताकत से शरीर को आगे बढ़ा रहे हैं। ये अंतिम क्षण तक शरीर को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन अब इनका हिलना ही इनके जल्द ही रुक जाने का सूचक बन गया है। मेरी आंखे बंद होते-होते भी हमेशा की तरह शरीर के लिये दिशा तलाश रही हैं। परंतु हमेशा की तरह आंखों को अगर कुछ दिखाई देता है तो वही -एक सूना आकाश...

आज मन विचलित है। मन विचलित है यानि यह अपने स्थिर भाव से डिगा हुआ है और एक बात के बारे में बार-बार विचार कर रहा है। क्या यह बात वाकई में सच है कि इंसान किसी के लिये भी पूर्ण समर्पित नहीं हो सकता? क्या वाकई में जब लोग किसी से प्यार करते हैं तो उसमें कोई ना कोई स्वार्थ छुपा होता है?

अपने चारों ओर का संसार देख कर लगता तो यहीं है कि आज किसी में भी पूर्ण समर्पण कर देने की क्षमता नहीं बची है। आज की दुनिया में लोग प्यार अपने व्यक्तिगत आराम, कैरियर, यश और पैसे इत्यादि को ध्यान में रखते हुए करते हैं। त्याग की भावना, जो की सच्चे प्रेम का अटूट हिस्सा होती है, आज ढूंढे से भी नहीं मिलती। जिससे हम प्यार करते हैं उसके सुख के लिये अपने सुख का त्याग कर देना; ये अब किताबी बातें लगती हैं। कोई किसी को प्यार नहीं करता, जो भी है केवल कैल्कुलेशन है क्योंकि भावनाएँ अब "मैं" प्रधान हो गयी हैं। पति को वनवास जाना है तो अपना सब-कुछ छोड़ कर उसके पीछे-पीछे जाने वाली सीता अब नहीं हैं। पत्नी वनवास में कठोर धरती पर सोती होगी यह सोच नर्म बिस्तर छोड़ धरती पर सोने वाले राम भी अब नहीं रहे।

जो मैनें ऊपर कहा वह सामान्यत: सच है लेकिन अपवाद हमेशा होते हैं। सो मेरा विश्वास है कि धरती के किसी कोने में कम से कम कोई एक इंसान तो होगा ही जिसमें ऐसा कर सकने की क्षमता होगी। कोई तो ऐसा होगा जो ख़ुद को इसलिये मिट्टी कर देना चाहेगा ताकि वो किसी पौधे को सहारा दे सके। ऐसे इंसान कम ही होंगे लेकिन उससे भी कम ऐसे लोग होंगे जो इस तरह के समर्पण और प्रेम के मूल्य को पहचान सकें।

यदि मैं जीवन में एक भी ऐसे व्यक्ति से मिल सकूं जिसमें सच्चा प्रेम और पूर्ण समर्पण कर सकने की क्षमता हो तो मुझे लगेगा कि ज़िन्दगी सफल हुई।

लेकिन शायद यह संभव नहीं होगा।

30 अक्तूबर को विदेश-प्रवास से घर वापस लौटते ही बड़ा सुकून महसूस हुआ। शरीर को हवा में घुली हल्की-सी ठंड की सिहरन का अनुभव हुआ। दीपावली का त्यौहार कुछ दिन पहले जा चुका है लेकिन दीपावली के निशान अभी भी आस-पास देखे जा सकते हैं। अधिकतर घरों को नए रंग-रोगन से सजाया गया है। शाम ढले अभी भी इक्की-दुक्की अतिशबाज़ी आसमान को रौशन कर देती है। घरों में बिजली के बल्बों की लड़ियाँ, कंदीलें और वंदनवार इत्यादि से की गयी सजावट अभी भी बाकी है।


दिल्ली शहर की सर्दियाँ बहुत सुखकर होती हैं। तापमान ना बहुत कम होता है और ना बहुत ज़्यादा। अधिकांश दिनों में सूर्य अपनी सुहावनी धूप बिखेरता है। धूप में बैठ कर कोई किताब पढ़्ते हुए गाजर, मूंगफ़ली और अमरूद खाने का आनंद किसी समुद्र किनारे धूप सेकने से कम नहीं है (ये और बात है कि समुद्री किनारे पर धूप सेकने को अच्छी छुट्टियों का एक फ़ैशनेबल प्रतीक मान लिया गया है)। ब्रिटेन में मैनें शायद ही कभी उगता सूरज देखा हो। वहाँ ज़िन्दगी प्रकृति से काफ़ी कटी-कटी रहती है। देर रात तक पार्टी या काम करना और फिर देर से सो कर उठना। कुछ हद तक प्रकृति भी खुद को मनुष्य से काटती हुई प्रतीत होती है। ठंड ज़्यादा होती है, बारिश और बर्फ़ सर्दियों के मौसम में तो रुकते ही नहीं, सूरज देर से निकलता है और जल्दी छुप जाता है। ठंड से बचने के लिये घर ऐसे बनाये गये हैं कि हवा के आवागमन का कोई मार्ग नहीं होता। यह घर सर्दी में काफ़ी आरामदेह तो होते हैं लेकिन वो जो सर्दी के मौसम की एक मीठी-सी सिहरन होती है उसका अहसास इन घरों में नहीं होता। चारों तरफ़ एक सन्नाटा-सा छाया रहता है।

यहाँ दिल्ली में, या कम-से-कम दिल्ली के नॉन-पॉश इलाकों में, तो सुबह 4-5 बजे से ही ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार पकड़ने लगती है। बहुत से घरों में बत्तियाँ सूरज के निकलने से पहले ही जल जाती हैं। कोई रिक्शा-वाला अपनी रिक्शा को ले काम की खोज में निकल पड़ता है। लोग मुंह अंधेरे ही नहा-धो कर अपनी किराने की दुकानें खोल लेते हैं और ग्राहक भी जल्दी ही दूध, ब्रैड और अखबार खरीदने आने लगते हैं। सूरज के निकलने से पहले ही मंदिरों से आरती और मस्जिदों से अज़ान की आवाज़े वातावरण को जीवंत कर देती हैं (ऐसा लगने लगता है कि दुनिया में हम अकेले नहीं हैं)... सूरज निकलते ही ऐसा अक्सर होता है कि कोई साधु द्वार पर आकर अलख जगाता है। हमारे यहाँ एक वृद्ध ब्राहम्ण हर द्वादशी के दिन भिक्षा मांगने के लिये आते रहे हैं। वे गेरुए रंग के साधु वेशधारी नहीं हैं। गंगा-घाट के पंडो की तरह हमेशा सफ़ेद धोती-कुर्ता पहनते हैं और कंधे पर एक लाल अंगोछा डाले रखते हैं। उन्हें देख कर बहुत अच्छा लगता है। उनकी आवाज़ बड़ी गहरी और मधुर है। जब से मैनें होश संभाला है मैनें उन्हें हर द्वादशी को भिक्षा मांगने आते देखा है। वे केवल द्वादशी को ही भिक्षा मांगते हैं और बाकि के दिन उसी भिक्षा से अपना और अपने परिवार का पोषण करते हैं। उन्होनें कभी आवश्यकता से अधिक ना तो मांगा और ना ही संग्रह किया। यही कारण है कि भिक्षा देने वाले लोगों ने उन्हें हमेशा बड़ी प्रसन्न्ता से भिक्षा दी है। मुझे याद है जब उनकी बेटी सयानी हो गयी और उसके विवाह का समय आया तो उसके लिये सभी लोगों ने बहुत खुशी से उपहार भेंट किये। यह ब्राहम्ण व्यक्ति मुझे बहुत पसंद हैं। ऐसा इसलिये नहीं कि वे जाति या कार्य से ब्राहम्ण हैं बल्कि इसलिये कि वे एक मर्यादित और संतोषी जीवन जीने का उदाहरण बन कर सामने आते हैं।

सूरज थोड़ा और चढ़ता है तो कोई गुब्बारे-वाला अपना बाजा लेकर सड़क पर निकल पड़ता है। स्कूल जाने वाले बच्चे तैयार हो, वर्दी पहने, बस्ता कमर पर लट्काये स्कूलों की ओर चल पड़ते हैं। साइकिल सवार अपने कार्य-स्थल की ओर जाने लगते हैं (कारों से सफ़र करने वाले थोड़ा देर से घर से निकलते हैं)। मजदूर भी जल्दी-जल्दी चल पड़ते हैं। हमारे यहाँ मज़दूर थोड़ी-से पैसे लेकर बहुत काम करते हैं। जब कभी हमारे घर में चिनाई का काम लगा तो मैनें देखा है कि किस तरह मज़दूर का दिन सुबह सूरज निकलने से पहले ही शुरु हो जाता है और सूरज के छिप जाने के बाद तक उसका कार्य जारी रहता है। दिन-भर वे काम करते हैं और ठेकेदारों की गालियां खाते हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनकी नींद बिना बैड-टी के नहीं खुलती, जो अगर किसी पब में जाकर हर रात "ड्रिंक्स" ना ले ले तो उन्हें जीवन अर्थहीन लगने लगता है, जिन्हें कार के बिना अगर 100 कदम भी चलना पड़ जाये तो वे "व्हाट द हैल" कह कर सारी कायनात को कोसने लगते हैं। इन लोगों को जब मैं इन मज़दूरों के बराबर रख कर देखता हूँ तो लगता है कि अत्यधिक संसाधनों की उपलब्धता हमें कहीं ना कहीं कमज़ोर भी बनाती है।

मैं अब सुबह 5 बजे ही सो कर उठ जाता हूँ। वातावरण में थोडी़ सी ठंड, सड़कों पर लोगो का आना-जाना शुरु हो जाना, आंगन में चिड़ियों चहचहाहट; इन सबके चलते नींद अपने-आप ही 5 बजे बिना किसी अलार्म की मदद के खुल जाती है। ऐसा भी नहीं लगता कि नींद पूरी नहीं हुई। उठ कर ताज़गी का अनुभव होता है। मुझे लगता है कि ब्रिटेन में जो मैं सप्ताहांत में 8-9 बजे तक सोता था सुबह 7 बजे उठ कर ऑफ़िस जाने के लिये तैयार होते हुए भी ऊंघता रहता था; वो सब कितना बेमानी था। सच यह है कि वहाँ मैं ज़रूरत से ज़्यादा सोता था। यहाँ दिल्ली में सुबह 5 बजे उठ कर मेरे दिन को 2-3 घंटे नींद से अधिक अर्थपूर्ण कुछ करने के लिये और मिल जाते हैं।

कई लोग कहते हैं कि यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसी जगहों पर रह कर आओ तो भारत में एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही आपको "कल्चरल शॉक" लगता है। जब आप लोगो की आड़ी-टेढ़ी ड्राइविंग देखते हैं, ट्रैफ़िक के नियमों का उल्लंघन होते देखते हैं या टूटे फ़ुटपाथों पर लगी केले की रहड़ी जैसी चीज़ों को देखते हैं और इन सबकी तुलना विदेश से करते हैं तब आपको यह शॉक लगता है। विदेशी शहर कितने साफ़ सुथरे हैं; विदेशी लोग कितने संस्कारी हैं; विदेश में सब कुछ कितना व्यवस्थित तरीके से चलता है। यह सब बातें आपके मन में स्वयं ही आने लगती हैं।


पता नहीं क्यों लेकिन मुझे ऐसा शॉक कभी नहीं लगा। मैं जब भी विदेश से लौटा और एयरपोर्ट से बाहर निकला तो हमेशा ही अपने शहर से मुझे एक अपनापन महसूस हुआ। हमेशा ही मुझे चीज़े बेहतरी की ओर जाती हुई दिखाई दीं। नये फ़्लाईओवर्स, अभी भी टूटे हुए लेकिन पहले से बेहतर रोड्स, नई-नई बेहतर इमारतें, कई और पड़सियों के पास नई कारें... हर बार कुछ न कुछ बेहतर ही दिखाई देता है। एयरपोर्ट से घर की ओर आते समय टूटे फ़ुटपाथों पर काले हो चले केले बेचते लोग मुझे भी दिखाई देतें हैं। लेकिन मैं उनकी उपस्थिति पर नाक-भौं सिकोड़ विदेश में देखे बढ़िया, साफ़, चौड़े-चौड़े, सजे हुए फ़ुटपाथों के बारे में नहीं सोचता। बहुत से लोगो का बस चले तो इन फ़ुटपाथों पर केले बेच रहे रामखिलावनों को बेरोज़गार करके इन फ़ुटपाथों को विदेशी शहरों के फ़ुटपाथों की तरह ही सुंदर बना दें। लेकिन ऐसे लोगो को सोचना चाहिये कि फिर रामखिलावन के घर में चूल्हा कैसे जलेगा? और कब तक वह अपने पेट की आग को दूसरों के घर जलाने से रोक सकेगा?

मैं कुछ समय एडिनबर्ग शहर में रहा। यह बहुत खूबसूरत शहर है। स्कॉटलैंड की राजधानी है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पूरे स्कॉटलैंड की जनसंख्या 60 लाख से अधिक नहीं है; और इसकी दुगुनी से भी अधिक आबादी तो केवल दिल्ली में ही बसती है। अब ऐसे में स्कॉटलैंड जहाँ अपने पार्कों और फ़ुटपाथों को संवारने में अपना समय और संसाधन लगा सकता है वहीं भारत को अपने रामखिलावनों की चिंता भी करनी होती है। भारत एक अद्वितीय देश है। हमारी बहुत सी समस्याएँ ऐसी हैं जिनका सामना बहुत से अपेक्षाकृत अधिक उन्नत देशों को नहीं करना पड़ता। केवल चीन की ही आबादी भारत से अधिक है परन्तु चीन में लोकतंत्र नहीं है। वहाँ "विकास" की राह में आने वाले रामखिलावनों को रास्ते से हटा दिया जाना आम और आसान बात है। हमारे यहाँ भी प्रशासन मनमानी करता है लेकिन हर 100 में से कुछ मामलो में तो आवाज़ उठती ही है और पीड़ित को न्याय भी मिलता है।

मेरी जितने भी विदेशी लोगो से बात होती है वे सभी इस बात को मानते हैं कि यदि उनके यहाँ भारत जितनी आबादी और विभिन्न्ता होती तो उनकी धरती का नज़ारा भी कुछ-कुछ भारत जैसा ही होता। हालांकि खुद भारतीय लोग ही इस बात को समझ नहीं पाते। भारत के लोगो को बहुत श्रम करने की और अपने व्यहवार में कुछ और अच्छे गुणों को उतारने की ज़रूरत है। हमें एक अच्छा राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचा खड़ा करना है। यह काम हमें ही करना होगा; कोई बाहरी व्यक्ति हमारे लिये ऐसा करने नहीं आएगा। इसलिये हमें चाहिये कि हम विदेश के गुणों का गान करने की बजाये उन गुणो को धारण करने का प्रयत्न करें ताकि हम अपनी आने वाली पीढियों को एक बेहतर भारत दे सकें।

लोग अक्सर कहते हैं कि "इतने बड़े और भ्रष्ट सिस्टम के सामने मैं अकेला क्या कर सकता हूँ? मैं तो इस सिस्टम को नहीं बदल सकता।" देखा जाये तो यह सच भी है। अब हर व्यक्ति कोई महात्मा गांधी तो नहीं है कि उसकी एक आवाज़ पर लाखों-करोड़ो लोग अपने जीवन की राहें बदलने को तैयार हो जायें। लेकिन यहाँ पर महत्वपूर्ण बिंदू यह है कि आपको सिस्टम को बदलने की ज़रूरत है ही नहीं! आप केवल खुद को बदल लीजिये... सिस्टम धीरे-धीरे अपने आप बदल जाएगा।

हमें शिकायत करने की बजाये कुछ बेहतर करने का प्रयास स्वयं करना होगा। निराशा को त्याग कर मन में आशा रखनी होगी कि भविष्य बेहतर होगा।

अभी ३-४ दिन पहले ही मैं एक विदेशी शहर में २ महीने रह कर लौटा हूँ। एयरपोर्ट पर उतरने से लेकर घर पँहुचने और उसके बाद से अब तक बहुत-से अच्छे बुरे अनुभव हुए जो शायद भारत में ही हो सकते हैं। इनमें अच्छे अनुभव ज़्यादा थे लेकिन शुरुआत ऐसी बातों से जहाँ हम भारतीयों में सुधार की गुंजाइश है।

फ़्लाइट के उतरने के बाद जो लोग व्हीलचेयर सहायता चाहते हैं वे बाकि सभी यात्रियों के उतरने के बाद उतरते हैं। जहाँ तक मेरा अनुभव है मैनें किसी फ़्लाइट में १० से अधिक ऐसे लोगो को नहीं देखा था जिन्होनें ऐसी सहायता की मांग की हो। लेकिन इस बार यह देख कर आश्चर्य हुआ कि तकरीबन ३० लोग अपनी सीटों पर बैठे रहे और सहायता के आने की प्रतीक्षा करते रहे। इतने लोगो के लिये व्हीलचेयर एयरपोर्ट पर एक-साथ उपलब्ध नहीं थीं (बाद में मालूम पड़ा कि एक दूसरी फ़्लाइट से १२ लकवाग्रस्त महिला खिलाड़ी भी लगभग उसी समय एयरपोर्ट पर पँहुची थीं और उनके लिये भी व्हीलचेयर्स चाहियें थीं)। मेरे विचार में केबिन क्रयू और एयरपोर्ट के व्हीलचेयर सहायकों ने मेरी फ़्लाइट के ३० लोगो की जल्द से जल्द सहायता करने की भरपूर कोशिश की लेकिन इन ३० लोगो में से अधिकांश का व्यहवार कहीं बेहतर हो सकता था। पहली बात तो यह कि इन ३० लोगो में से केवल १४ ने पहले से व्हीलचेयर बुक करायी थी। बाकि ने इस सुविधा को प्रयोग करने का मन फ़्लाइट के दौरान ही बना लिया। ये सभी वयोवृद्ध पुरुष व महिलायें थी। जिस देश से यह फ़्लाइट आई थी उसे जानते हुए यह कोई आश्चर्य नहीं कि इतने सारे वृद्ध व दुर्बल भारतीय यात्री अकेले सफ़र कर रहे थे।

एक और यह देख कर अच्छा लगा कि इतने सारे वृद्ध भारतीय अकेले इतना लम्बा सफ़र करने में नहीं झिझके थे। वहीं दूसरी ओर इनमें से अधिकांश की ओर से भारतीय जनता के व्यहवार की कुछ "टिपिकल" झलकियां भी देखने को मिलीं। नियम के अनुसार आपको यदि व्हीलचेयर की ज़रूरत है तो आपको उसे टिकट बुक करते समय ही बुक कराना होता है। लेकिन भारतीयों में नियमों का अनुसरण करने की प्रवृत्ति अभी भी ज़रा कम ही है इसीलिये ३० में से केवल १४ ने इस सुविधा की पहले से मांग की थी। व्हीलचेयर्स की कमी के कारण २-२ या ३-३ के समूहों में ही लोगों को हवाई जहाज से ले जाया जा रहा था। इससे जो यात्री पीछे रह रहे थे उनसे ५ मिनट का भी सब्र नहीं रखा गया। कोई केबिन क्रयू के कर्मचारियों को कोसने लगा तो कोई नागरिक उड्डयन मंत्रालय में अपने रिश्तेदारों के नाम गिना कर धमकियां देने लगा। पंक्ति बनाना या किसी और की बड़ी ज़रूरत के लिये अपनी बारी का त्याग कर देना हमारी आदत में शामिल नहीं है। कुछ लोगों ने बैठकर आपस में भारत की कमियों और विदेश की महानता का गुणगान आरम्भ कर दिया। वे भारत की हर बात को उस धरती की बातों से तौलने लगे जहाँ से वे भारत पँहुचे थे। ऐसे लोग इस तरह की बातें करते हुए स्वयं को बड़ा समझदार अनुभव करते हैं लेकिन उन्हें धेले भर की समझ नहीं है कि भारत जैसे विशाल और विभिन्न्ताओं से भरे देश की किसी भी और देश से कोई तुलना नहीं हो सकती।

जो भारतीय भारत की निंदा करता है उसे मैं कृतघ्न मानता हूँ। हमारा देश जैसा भी है हमारा अपना है। जो लोग अपने देश की निंदा करते हैं वे आगे बढ़ कर उसके लिये कभी कुछ नहीं करते। और मैनें यह भी देखा है कि जो लोग वाकई में देश के बारे में सोचते हैं और उसके लिये आगे बढ़ कर कुछ करते हैं वे देश की निंदा नहीं करते। ऐसे लोग निंदा की बजाये आशा और कर्म में विश्वास रखते हैं। मेरे निजी अनुभव के अनुसार हर समय बिजली कटौती को कोसने वाले वे लोग अधिक होते हैं जो अपने बिजली के मीटर से छेड़छाड़ करके बिल-कटौती करते हैं। टूटी सड़कों का रोना रोने वाले कितने लोग अपना आयकर अदा करते हैं -यह जानना ज़रूरी है।

यह सही है कि भारत में बहुत समस्याएँ हैं। यहाँ भ्रष्टाचार है, गंदी राजनीति होती है, सरकारी मशीनरी ढीली है; ये तमाम बातें सच हैं। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि लोगो को वैसी ही सरकार और वैसा ही सिस्टम मिलता है जिसके लायक वे हैं; यह बात बिल्कुल सच है। अपने देश को कोसना तो वैसे भी शिष्टाचार के खिलाफ़ है लेकिन बेहतर ये हो कि लोग कोसने की बजाये कुछ करें। पहले अपने गिरेबां में झांके और फिर देश की बात करें।

ऐसे भी लोग हैं जो या तो कुछ कर नहीं सकते या कुछ करना नहीं चाहते। ऐसे लोगों से कम-से-कम इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है कि वे जो बोलें अच्छा, सकारात्मक और आशापूर्ण बोलें। कुछ लोग तो इतने निर्लज्ज और अहमक़ होते हैं कि विदेशियों के सामने भी अपने देश की बुराई इस शान से करते हैं जैसे कि ऐसा करने से विदेशी उन्हें बड़ा बुद्धिजीवी मान रहे होंगे।

खैर, इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन शायद स्वामी रामतीर्थ के साथ जापान के एक रेल स्टेशन पर हुई घटना के बारे में बता देने से सारी बात का सार अपने आप ही समझ में आ जाता है। यह छोटी-सी कहानी मैनें सबसे पहले अपने स्कूल की किसी किताब में पढ़ी थी और तब से ही यह मेरे जीवन का अंग बन गयी। आशा है कि हम सभी भारतीय इस कहानी से कुछ तो सबक लेंगे।

एक बार स्वामी रामतीर्थ जापान गए। एक लंबी रेल यात्रा के बीच उनका फल खाने का मन हुआ। गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी पर उन्हें वहां फल नहीं मिले। उनके मुंह से निकल गया, "जापान में शायद अच्छे फल नहीं मिलते।"

एक सहयात्री जापानी युवक ने उनके यह शब्द सुन लिए। अगले स्टेशन पर वह तेजी से उतरा और कहीं से एक टोकरी में ताजे मीठे फल ले आया और उसे स्वामी रामतीर्थ की सेवा में प्रस्तुत करते हुए बोला, "लीजिए आपको इसकी ज़रूरत थी"

स्वामी जी ने उसे फलवाला समझकर पैसे देने चाहे लेकिन उसने पैसे नहीं लिए।

स्वामी जी के बहुत आग्रह करने पर उस जापानी युवक ने कहा, "स्वामी जी, इसकी कीमत यही है कि आप अपने देश में किसी से यह न कहें कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।"

स्वामी रामतीर्थ युवक का यह उत्तर सुनकर मुग्ध हो गए।

अभी के लिये इतना ही। आगे के अनुभव अगली पोस्ट में।

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