Showing posts with label मेरी कहानियाँ. Show all posts
Showing posts with label मेरी कहानियाँ. Show all posts

धनाढ्य पिता की इकलौती संतान होने से जो गुण-दोष किसी में उत्पन्न होते हैं वे सभी सर्वेश में दिखाई देते हैं। पैसे की कोई कमी नहीं है सो उसने पैसा बहाना भी खूब सीखा है। यार-दोस्तों के साथ अक्सर घूमने जाना, अपने खर्चे पर उन्हें सैवन-स्टार होटलों में ठहराना, महंगे से महंगे यातायात के साधनों का प्रयोग, पार्टियों में शराब इत्यादि पर खुल कर खर्चा... शराब... हाँ... इसी शराब के कारण आज वैशाली उससे इतनी नाराज़ है। सर्वेश का मन चाहता है कि किसी तरह सारा दोष शराब पर मढ़ दे। लेकिन मन का भी एक मन होता है और मन का यह मन जानता है कि दोष शराब का नहीं बल्कि ख़ुद सर्वेश का है।
सर्वेश में चाहे जितनी भी बुराईयाँ हों लेकिन दिल से वह एक अच्छा इंसान है। उसकी बुराईयाँ भी कुछ अनोखी नहीं हैं... पिता के पैसे ने उसे संसार को एक बिल्कुल अलग ढंग से देखने और मनमानी करने की छूट बचपन से ही दी हुई है। वह कठोर जीवन से दूर और उसकी वास्तविकताओं से अनजान रहा है। उसके लिये दुनिया में कोई डर नहीं, मर्यादा नहीं, बंधन नहीं, कोई ज़िम्मेदारी नहीं... धन की ताकत ने यह सब उसके जीवन से बहुत दूर कर दिया है। लेकिन फिर भी वह मूल-रूप से एक अच्छा व्यक्ति है -जो सोच सकता है और महसूस कर सकता है। उसकी उम्र 25 के करीब होने को आई है। एक बड़े विश्वविद्यालय से एम.बी.ए. करने के बाद उसने पिता के व्यापार में हाथ बंटाना शुरु तो कर दिया लेकिन बस नाम भर के लिये। पिता ने बार-बार कहा कि वह बिज़नेस के प्रति गंभीर बने लेकिन सर्वेश का मानना था कि अभी उसकी उम्र यह सब करने की नहीं हुई है। शुरु से ही पैसे की अत्यधिक उपलब्धता व्यक्ति को इसी तरह ढाल देती है। जीवन को दिशाहीन और संवेदनहीन बना देती है।
फिर वैशाली ने उसकी ज़िन्दगी में क़दम रखा। किसी फ़िल्म की कहानी की तरह वैशाली एक साधारण, पारम्परिक, भारतीय परिवेश में पली-बढ़ी लड़की थी। उसके परिवार ने जैसे-तैसे करके उसे अच्छी शिक्षा दी और उसी के सुफल से वैशाली एक चार्टेड अकाउंटेंट बन गयी। आज वह एक मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करती है और अपने परिवार के लिये अच्छी आजीविका कमाती है। जब वह सर्वेश से मिली से उसे सर्वेश कोई बहुत अच्छा व्यक्ति नहीं लगा लेकिन सर्वेश को वैशाली की "ऊंची सोच और साधारण जीवन" की बात भा गयी। वह वैशाली के करीब आने लगा। समय के साथ-साथ वैशाली को भी सर्वेश को और भली-भांति जानने का मौका मिला और उसने पाया कि तमाम ऊपरी बुराईयों को बावज़ूद सर्वेश एक अच्छा लड़का था।
सर्वेश को शराब पसंद थी। वह तकरीबन हर रात दोस्तों के साथ पब में जाकर शराब पीता था। वैशाली को सर्वेश की यह आदत बहुत बुरी लगती थी और उसे सर्वेश के स्वास्थ्य की चिंता भी थी। जब वैशाली और सर्वेश की मित्रता उस सीमा को पार कर गयी जब कि दोनो एक दूसरे पर कुछ अधिकार अनुभव करने लगे -तब एक दिन वैशाली ने सर्वेश से वचन लिया कि वह शराब पीना छोड़ देगा। सर्वेश वैशाली का बहुत सम्मान करता था और मन-ही-मन उससे प्रेम भी करने लगा था। इसलिये सर्वेश ने यह वचन देने में ज़रा भी देरी नहीं की और वैशाली का हाथ थाम कर कह दिया कि आज से वह शराब को कभी नहीं छुएगा। वैशाली ख़ुश थी कि उसके कारण सर्वेश कम-से-कम एक बुराई से तो दूर हटा। सर्वेश का इस तरह एक बेहतर इंसान बनना और इस परिवर्तन के होने में वैशाली की भागीदारी; ये दोनो ही बातें वैशाली को बहुत अच्छी लगने लगी थीं और वह भी धीरे-धीरे सर्वेश को प्रेम करने लगी।
इस तरह कई महीने बीत गये। सर्वेश और वैशाली एक दूसरे के बहुत करीब आ गये थे और दोनों बहुत ख़ुश थे।
लेकिन आज वैशाली सर्वेश से बहुत नाराज़ है।
सर्वेश ने वैशाली को वचन दे तो दिया था लेकिन उसने वचन के महत्व को नहीं समझा। उसने जीवन में कोई बंधन या मर्यादा कभी मानी ही नहीं थी। जब तक आसानी से हो सका उसने वचन को निभा दिया लेकिन कल रात जब दोस्तों ने बहुत अधिक ज़िद की तो उसने शराब पी लेने में कोई हर्ज़ नहीं समझा। उसने अधिक नहीं पी और आज सुबह वैशाली से मिलने पर उसे बता भी दिया कि कल रात उसने शराब पी थी। यह सुन कर वैशाली का मन टूट गया। वह रो पड़ी। सर्वेश ने बहुत कहा कि उसने केवल थोड़ी-सी ही शराब पी थी और उसे नहीं लगा था कि वैशाली इस बात का भी बुरा मानेगी। कल रात शराब का गिलास उठाते समय ऐसा नहीं कि सर्वेश अपने दिये वचन को भूल गया था। लेकिन उसके दिमाग़ ने ऐसे-वैसे कई तर्क गढ़ दिये और सर्वेश को विश्वास हो गया कि वह कुछ ग़लत नहीं कर रहा है। यूं तो सामन्यत: उसने पीना छोड़ ही दिया था -लेकिन कभी-कभार पी लेने में क्या हर्ज़ है... यह सोच कर उसने शराब अपने गले के नीचे उतार ली थी।
परेशान और नाराज़ वैशाली को उसके घर छोड़ कर सर्वेश अभी-अभी अपने घर पँहुचा है। अपने बड़े-से ड्राइंग रूम में एक कीमती सोफ़े पर बैठा वह सोच रहा है कि उससे आखिर कहाँ ग़लती हुई है। ड्राइंग रूम में एक बार है। सर्वेश बार-कैबिनेट में रखी शराब की बोतलों को देखे जा रखा है और बोतलें सर्वेश को देख रही हैं।
Character, not brain, will count at the crucial moment
-Rabindranath Tagore
विश्वास एक बहुत नाज़ुक डोर होती है। इसे कभी नहीं तोड़ना चाहिये। अपनी कमज़ोरियों को छुपाने के लिये हमारा दिमाग़ अपने पक्ष में कोई ना कोई तर्क बुन ही लेता है। तर्क करना और स्वयं को सही ठहराना -दिमाग़ इसी काम के लिये बना है -लेकिन भावनाएँ दिमाग़ में नहीं बल्कि मन में रहती हैं। इसी मन में रहता है हमारा चरित्र और हमारी अंतरात्मा। अंतरात्मा का कार्य हमें कचोटना और दिमाग़ के सभी तर्कों के बावज़ूद हमें सही-गलत का अहसास कराना होता है। विश्वास प्रेम की आधारशिला है -इसमें कभी कोई दरार नहीं आने देनी चाहिये। और इस कार्य में सहायता हमारा दिमाग नहीं बल्कि चरित्र करता है।
Labels: मेरी कहानियाँ
परीक्षित ने कार को अपने ऑफ़िस की पार्किंग में धीरे-धीरे मोड़ा और उसे निर्धारित जगह पर पार्क कर दिया। कुछ मिनट तक वह यूं ही कार में बैठा शून्य में ताकता रहा और फिर अनमना-सा कार से उतर कर ऑफ़िस की मल्टी-स्टोरी बिल्डिंग की ओर बढ़ गया। ऑफ़िस में अपने कमरे तक पँहुचते-पँहुचते वह करीब आधा घंटा लेट हो चुका था। उसका मन कुछ उदास है और वह काम में किसी भी तरह मन नहीं लगा पा रहा है। सहकर्मियों को आधा-अधूरा-सा "गुड मॉर्निंग" कहते हुए उसने अपने कमरे में प्रवेश किया। कोट उतार कर कुर्सी के पीछे लटकाने के बाद वह थका हुआ सा अपनी कुर्सी में धंस गया। सामने फ़ाइलों का बड़ा-सा ढेर पड़ा उसके ध्यान का इंतज़ार कर रहा था लेकिन परीक्षित का ध्यान जाने कहाँ था।
वह रमोना से कुछ ही महीने पहले मिला था। उस दिन पहली बार जब एक दोस्त के घर पार्टी में उसने रमोना को देखा था तो देखता ही रह गया था। वह खूबसूरत तो थी ही -साथ ही साथ एक सुलझे हुए व्यक्तित्व की स्वामिनी भी थी। प्रोफ़ेशनल फ़ैशन डिज़ाइनर के तौर पर एक जानेमाने ब्रैंड के लिये काम करने वाली रमोना खुले विचारों वाली लड़की थी। उसकी जीवनशैली को हर तरह से आधुनिक कहा जा सकता था। महानगर में एक शानदार फ़्लैट, काले रंग की एक बड़ी चमचमाती कार, डिज़ाइनर कपड़े, अक्सर पार्टीयों में शिरकत, शराब और सिगरेट -ये सब रमोना के जीवन का हिस्सा थे। लेकिन ऐसा नहीं था कि रमोना केवल बाहरी चमक-दमक से भरी एक आधुनिक लड़की थी। वह कुशाग्र और बुद्धिमान थी; कला और पढ़ने-लिखने में भी गहरी रुचि रखती थी। उसे संबंधों पर विश्वास भी था। रमोना के साथ घंटो बाताचीत की जा सकती थी और व्यक्ति बोर नहीं होता था। पार्टी में मुलाकात के बाद से रमोना और परीक्षित अक्सर मिलने लगे थे। जल्द ही वे दोनो अच्छे दोस्त बन गये और फिर उससे भी जल्दी उन्होनें पाया कि वे एक दूसरे से प्रेम करने लगे थे।
परीक्षित पिछले कुछ महीनों से बहुत खुश था। उसकी ज़िन्दगी में जो एक भयानक खालीपन था वह रमोना के आने से भर गया था। जो दिनचर्या उसे पहले बोझल लगती थी अब उसी दिनचर्या में कुछ चीज़ें ऐसी थी जिनका उसे इंतज़ार उसे बेसब्री से रहता था; जैसे कि सुबह उठते ही रमोना के गुड मॉर्निंग वाले एस.एम.एस. का आना, दिन में दो-तीन बार रमोना से फ़ोन पर बातचीत और रात को सोने से पहले भी एक बार ज़रूर बात होना... परीक्षित को लगने लगा था कि अब वह अकेला नहीं है। वह और रमोना एक दूसरे को पसंद करने लगे और और उन्होनें विवाह-सूत्र में बंधने का निर्णय कर लिया था।
परन्तु शीघ्र ही परीक्षित को कभी-कभी लगने लगा कि रमोना शायद उसके उतने निकट नहीं है जितना वह समझता है या चाहता है कि रमोना उसके उतना निकट हो। परीक्षित के मन में यह कोई स्थायी भावना नहीं है; बस कभी-कभार ही उसे ऐसा लगता है। उसे लगता है कि रमोना के लिये ज़िन्दगी में उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बहुत-सी चीज़े हैं और उन चीज़ों के कारण रमोना कभी-कभी परीक्षित की उपेक्षा कर देती है।
ऑफ़िस की अपनी कुर्सी पर बैठा आज भी वह उन्हीं चीज़ों के बारे में सोच रहा है। वह जानता है कि रमोना के लिये कैरियर महत्वपूर्ण है... परीक्षित स्वयं भी रमोना के कैरियर में बहुत दिलचस्पी लेता है और उसे आगे बढ़ने में हर संभव सहायता करता है। कैरियर के कारण तो शायद रमोना उसकी उपेक्षा नहीं करेगी। तो फिर क्या ऐसा उसकी जीवनशैली के कारण है?... या फिर अब संसार में संबंध वाकई उतने गहरे नहीं रह गये हैं जितना गहरा परीक्षित उन्हें समझता है और चाहता है कि वे उतने गहरे हों?... या फिर शायद रमोना से उसकी अपेक्षाएँ बहुत अधिक हैं।
"आप किसी को कितना प्यार, सम्मान और देख-रेख देते हैं यह तो आप निश्चित कर सकते हैं; लेकिन कोई आपको यह सब कितना देगा यह सुनिश्चित कर पाना आपके हाथ में नहीं होता", लम्बे सोच-विचार के बाद निष्कर्ष-प्राप्ति पर ली जाने वाली गहरी सांस लेते हुए परीक्षित ने सोचा और फ़ाइलों के ढेर पर सबसे ऊपर रखी फ़ाइल को उठा लिया।
"प्रेम तो देने का नाम है अपेक्षा करने का नहीं", यह सोचते हुए उसने फ़ाइल को पढ़ना शुरु कर दिया। उसके मन में रमोना के लिये प्यार का एक विशाल सागर छलक रहा था।
वह रमोना से कुछ ही महीने पहले मिला था। उस दिन पहली बार जब एक दोस्त के घर पार्टी में उसने रमोना को देखा था तो देखता ही रह गया था। वह खूबसूरत तो थी ही -साथ ही साथ एक सुलझे हुए व्यक्तित्व की स्वामिनी भी थी। प्रोफ़ेशनल फ़ैशन डिज़ाइनर के तौर पर एक जानेमाने ब्रैंड के लिये काम करने वाली रमोना खुले विचारों वाली लड़की थी। उसकी जीवनशैली को हर तरह से आधुनिक कहा जा सकता था। महानगर में एक शानदार फ़्लैट, काले रंग की एक बड़ी चमचमाती कार, डिज़ाइनर कपड़े, अक्सर पार्टीयों में शिरकत, शराब और सिगरेट -ये सब रमोना के जीवन का हिस्सा थे। लेकिन ऐसा नहीं था कि रमोना केवल बाहरी चमक-दमक से भरी एक आधुनिक लड़की थी। वह कुशाग्र और बुद्धिमान थी; कला और पढ़ने-लिखने में भी गहरी रुचि रखती थी। उसे संबंधों पर विश्वास भी था। रमोना के साथ घंटो बाताचीत की जा सकती थी और व्यक्ति बोर नहीं होता था। पार्टी में मुलाकात के बाद से रमोना और परीक्षित अक्सर मिलने लगे थे। जल्द ही वे दोनो अच्छे दोस्त बन गये और फिर उससे भी जल्दी उन्होनें पाया कि वे एक दूसरे से प्रेम करने लगे थे।
परीक्षित पिछले कुछ महीनों से बहुत खुश था। उसकी ज़िन्दगी में जो एक भयानक खालीपन था वह रमोना के आने से भर गया था। जो दिनचर्या उसे पहले बोझल लगती थी अब उसी दिनचर्या में कुछ चीज़ें ऐसी थी जिनका उसे इंतज़ार उसे बेसब्री से रहता था; जैसे कि सुबह उठते ही रमोना के गुड मॉर्निंग वाले एस.एम.एस. का आना, दिन में दो-तीन बार रमोना से फ़ोन पर बातचीत और रात को सोने से पहले भी एक बार ज़रूर बात होना... परीक्षित को लगने लगा था कि अब वह अकेला नहीं है। वह और रमोना एक दूसरे को पसंद करने लगे और और उन्होनें विवाह-सूत्र में बंधने का निर्णय कर लिया था।
परन्तु शीघ्र ही परीक्षित को कभी-कभी लगने लगा कि रमोना शायद उसके उतने निकट नहीं है जितना वह समझता है या चाहता है कि रमोना उसके उतना निकट हो। परीक्षित के मन में यह कोई स्थायी भावना नहीं है; बस कभी-कभार ही उसे ऐसा लगता है। उसे लगता है कि रमोना के लिये ज़िन्दगी में उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बहुत-सी चीज़े हैं और उन चीज़ों के कारण रमोना कभी-कभी परीक्षित की उपेक्षा कर देती है।
ऑफ़िस की अपनी कुर्सी पर बैठा आज भी वह उन्हीं चीज़ों के बारे में सोच रहा है। वह जानता है कि रमोना के लिये कैरियर महत्वपूर्ण है... परीक्षित स्वयं भी रमोना के कैरियर में बहुत दिलचस्पी लेता है और उसे आगे बढ़ने में हर संभव सहायता करता है। कैरियर के कारण तो शायद रमोना उसकी उपेक्षा नहीं करेगी। तो फिर क्या ऐसा उसकी जीवनशैली के कारण है?... या फिर अब संसार में संबंध वाकई उतने गहरे नहीं रह गये हैं जितना गहरा परीक्षित उन्हें समझता है और चाहता है कि वे उतने गहरे हों?... या फिर शायद रमोना से उसकी अपेक्षाएँ बहुत अधिक हैं।
"आप किसी को कितना प्यार, सम्मान और देख-रेख देते हैं यह तो आप निश्चित कर सकते हैं; लेकिन कोई आपको यह सब कितना देगा यह सुनिश्चित कर पाना आपके हाथ में नहीं होता", लम्बे सोच-विचार के बाद निष्कर्ष-प्राप्ति पर ली जाने वाली गहरी सांस लेते हुए परीक्षित ने सोचा और फ़ाइलों के ढेर पर सबसे ऊपर रखी फ़ाइल को उठा लिया।
"प्रेम तो देने का नाम है अपेक्षा करने का नहीं", यह सोचते हुए उसने फ़ाइल को पढ़ना शुरु कर दिया। उसके मन में रमोना के लिये प्यार का एक विशाल सागर छलक रहा था।
प्यार किसी को करना लेकिन, कह कर उसे बताना क्या
अपने को अर्पण करना पर, और को अपनाना क्या
त्याग अंक में पले प्रेम शिशु, उन्हें स्वार्थ बताना क्या
देकर हृदय, हृदय पाने की, आशा व्यर्थ लगाना क्या
-- हरिवंशराय बच्चन
Labels: मेरी कहानियाँ
आज लिखने बैठा तो जो लिखा उसने कुछ-कुछ कहानी जैसा रूप ले लिया।
ऊपर की शेल्फ़ पर रखे टिन के एक छोटे-से डिब्बे को दीपा ने उतारा और उसमें से बहुत संभालकर दो सौ रुपये निकाले। डिब्बे में बस इतने ही रुपये थे। ऐसा डिब्बा हर विवाहिता स्त्री के पास होता है जिसमें वह घर की आमदनी से बचाकर कुछ पैसे इकठ्ठे करती है ताकि यह पैसे मुश्किल पड़ने पर उपयोग किये जा सकें। पुरुष में यह हुनर नहीं होता और इसीलिये अक्सर कहा जाता है कि घर की बरकत स्त्री के हाथ में ही होती है।
दीपा को यह रुपये रमेश ने दो महीने पहले करवाचौथ पर उपहार में दिये थे। वह दीपा को साथ ले जाकर इन रुपयों से दीपा के लिये उसकी पसंद की साड़ी खरीदना चाहता था। लेकिन दीपा ने रुपये लेकर कहा कि अभी उसके पास दो साड़ियां हैं और वह ज़रूरत पड़ने पर इन रुपयो से कुछ महीने बाद एक और साड़ी खरीद लेगी।
रमेश पास की एक फ़ैक्ट्री में मैकेनिक का काम करता है। पगार के नाम पर बस इतने ही पैसे मिलते हैं कि घर का खर्च बड़ी मुश्किल से चल पाता है। साइकिल ना होने के कारण रमेश फ़ैक्ट्री आने-जाने के लिये रोज़ तीन किलोमीटर चलता है पर अपने लिये साइकिल नहीं खरीद पाता। फिर भी दो-दो चार-चार रुपये करके वह भी अपने पास थोड़े पैसे जमा करता रहता है ताकि दीपा के लिये कभी-कभार कोई उपहार खरीद सके। ये दो सौ रुपये इसी तंग हाथ से पैसे खर्च करने की आदत का नतीजा थे। वरना दो सौ रुपये की जमापूंजी इस दम्पत्ति के लिये एक सुखद सपने जैसी बात ही है।
दीपा भी इस तंगहाली में जीवन की गाड़ी को आगे बढा़ने में रमेश की मदद करती है। घर में हाथ से चलाई जाने वाली एक सिलाई मशीन है। मोहल्ले के लोग कमीज़, ब्लाउज़, बच्चों की निक्कर जैसे कपड़े दीपा से ही सिलवा लेते थे। लेकिन अब ऐसा काम बस कभी-कभार ही मिल पाता है। लोग अब ज़्यादा पैसा देकर दुकान वाले दर्ज़ियों से फ़ैन्सी स्टाइल के कपड़े बनवाना अधिक पसंद करते हैं। हमारा मध्यम-वर्ग अब बदल रहा है। कभी-कभार मिले सिलाई के ऐसे कामों से दीपा को जो पैसा मिलता है उसे वह एक गुल्लक में इकठ्ठा करती रहती है और उसने प्रण किया है कि इसका उपयोग बस किसी आपात स्थिति में ही करेगी।
रमेश आज सुबह जल्दी ही फ़ैक्ट्री चला गया। आजकल फ़ैक्ट्री में काम कुछ ज़्यादा है इसलिये ओवरटाइम करने का अवसर मिल रहा है और रमेश खुश है कि कुछ अतिरिक्त पैसे इस महीने मिल जाएगें। उधर दो सौ रुपये हाथ में लिये दीपा भी बहुत खुश है। उसने घर का काम जल्दी-जल्दी निपटाया था। एक निक्कर सीलनी थी -वह भी फ़टाफ़ट सील कर पड़ोसन को दे आयी थी। उसे इस काम के 15 रुपये मिले और उसने ये रुपये बाकयदा गुल्लक में डाल दिये। फिर दीपा जल्दी-जल्दी नहा-धोकर तैयार हुई। सुबह के दस बज चुके थे और आज उसे एक बहुत ज़रूरी काम करना था।
साढे़-दस बजे दीपा पास की मार्केट में एक कपड़े वाले की दुकान पर थी और दुकानदार उसे सूती कपड़ों के थान खोल-खोलकर दिखा रहा था। दीपा की नज़रें ऊपर की अलमारियों में लगे महंगे कपडों पर थी और उसे एक हल्के नीले रंग का कपड़ा बहुत भा रहा था। लेकिन दुकानदार ने उसका भाव बहुत अधिक बताया। दीपा इतने पैसे नहीं दे सकती थी -उसके पास तो केवल दो सौ रुपये थे। आखिरकार बड़े अच्छे-से जांच-परख कर दीपा ने एक स्लेटी रंग का कपड़ा खरीद लिया और उसके लिये 170 रुपये चुका दिये। कपड़ा कोई बहुत अच्छा नहीं था लेकिन उसके पास बस इतने ही पैसे थे। कपड़ा खरीद कर दीपा बहुत खुश थी। फिर वह एक और दुकान पर गयी जहाँ से उसने उसी स्लेटी रंग का धागा और कुछ मैचिंग बटन खरीदे।
बारह बजे तक दीपा सब सामान लेकर घर आ गयी थी और आते ही उसने कपड़े की कटाई शुरु कर दी। लगातार काम करते हुए उसने दोपहर का खाना भी नहीं खाया। उसे यह काम शाम से पहले ही पूरा करना था। शाम पाँच बजे तक स्लेटी रंग का कपड़ा एक कमीज़ की शक्ल ले चुका था। अगले मोहल्ले में इस्त्री करने वाले का ठीया था। दीपा दौड़ी-दौड़ी वहाँ गयी और कमीज़ को दो रुपये दे कर इस्त्री करवा लाई। इस्त्री जैसी चीज़ों पर खर्च करने के लिये इस युगल के पास पैसे नहीं थे। लेकिन यह नई सिली कमीज़ ख़ास है। इस पर अब के बाद शायद कभी इस्त्री नहीं होगी लेकिन आज तो दीपा इसे जितना अच्छा हो सके उतना अच्छा बना देना चाहती थी। दो सौ रुपये के अंदर दीपा ने शाम छह बजे तक कमीज़ तैयार कर दी थी। आज उसके पांवों में एक थिरकन-सी है। दीपा बहुत खुश है। शाम के खाने के लिये दाल पकाते हुए जाने क्या सोच-सोच कर मुस्कुरा रही है, गुनगुना रही है।
सवा-सात बजे के करीब रमेश थका-हारा घर पँहुचा। वह सुबह छह बजे ही फ़ैक्ट्री के लिये घर से निकल गया था। घर आते ही वह एक पटरी लेकर स्टोव के पास बैठ गया। दीपा ने स्टोव पर चाय का पानी चढ़ा दिया था और वहीं बैठी थी।
"दीपा, आज तो फ़ैक्ट्री में बस पूछो मत कितना काम था। शरीर टूट रहा है। पर अच्छा है, कुछ अतिरिक्त पैसे मिल जाएंगे इस महीने। फिर घर के दरवाज़े को ठीक करवा लेंगे। अब तो बस नाम का ही दरवाज़ा रह गया है -जाने कब गिर जाये। अच्छा तुम्हारा दिन कैसा रहा?", रमेश ने एक चम्मच से स्टोव पर चढी चाय को हिलाते हुए कहा।
"दिन बहुत अच्छा रहा। लेकिन मुझे तुम्हारा इतनी अधिक मेहनत करना अच्छा नहीं लगता। ये ओवरटाइम करना कोई ज़रूरी तो नहीं"
"ज़रूरी तो नहीं है, लेकिन दीपा मेहनत तो करनी ही पड़ती है। तुम भी तो कितनी मेहनत करती हो। मैं तो कहता हूँ कि तुम ये सिलाई के काम मत लिया करो। सारा दिन घर संभालती हो वो क्या कम है"
"सिलाई का काम अब मिलता ही कहाँ है, महीने में मुश्किल से एक-दो कपड़े सीलने के लिये मिलते हैं"
उनके इसी तरह बातें करते-करते चाय तैयार हो गयी। दीपा ने स्टील के दो गिलासों में थोड़ी-थोड़ी चाय डाली और एक गिलास रमेश को दे दिया। वे वहीं स्टोव के पास बैठे हुए बातें करते-करते चाय पीने लगे। रोज़ शाम को दीपा के साथ बैठ कर चाय पीने के इन कुछ मिनटों में कुछ ऐसा असर था कि रोज़ ही रमेश की सारे दिन की थकान इन्हीं पलों में छू-मंतर हो जाती थी। दीपा की आंखों में छांक कर उसे असीम सुकून मिलता था।
रमेश आराम से बातें करते हुए धीरे-धीरे चाय की चुस्किया ले रहा था। दीपा ने अपनी चाय खत्म करके गिलास बर्तन मांजने की जगह पर रख दिया। फिर वह उठ कर अंदर के कमरे में गयी और आज उसने जो कमीज़ सीली थी उसे ले आई। वापस रमेश के पास बैठते हुए उसने वह कमीज़ पटरी पर बैठे रमेश की गोद में रख दी।
"ये कमीज़ तुम्हारे लिये है", दीपा ने कहा
"मेरे लिये? लेकिन..."
"अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। मैं खरीद कर नहीं लाई हूँ... मैनें खुद सीली है।", दीपा ने मुस्कुराते हुए कहा
"ओह दीपा!...", रमेश ने चाय का गिलास एक ओर रख कर कहा और दीपा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उसे अपने कांधे पर टिका लिया। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे, बस वह दीपा के बालों को प्यार से सहला रहा था।
"लेकिन तुम्हारे पास कपड़ा खरीदने के पैसे कहाँ से आये?", कुछ पल बाद रमेश ने पूछा
"ये सब छोड़ो... पहले ये बताओ कि कमीज़ कैसी लगी"
"तुम्हारा उपहार मुझे कैसा लगेगा?... कुछ कहने को शब्द नहीं मिल रहे हैं दीपा। तुम्हें मेरा कितना ख्याल है और मैं तुम्हारे लिये कुछ नहीं..."
दीपा ने रमेश के होठों पर अपनी उंगली रख दी थी।
"तुम मुझे मिले हो क्या इससे अधिक खुशी और सौभाग्य की बात मेरे लिये कुछ और सकती है?", दीपा ने पूछा
"लेकिन तुमने इस कमीज़ के लिये अपनी गुल्लक से पैसे क्यों...", कहते हुए रमेश रुक जाता है और फिर उसके चेहरे पर अविश्वास और गहन प्रेम के मिले-जुले से भाव उभर आते हैं। उसने दीपा के चेहरे को अपने दोनो हाथों में लेते हुए कहा
"कहीं तुमने वो दो सौ रुपये..."
अब तक रमेश की आंखें भर आयीं थी। उसने दीपा को कस कर गले से लगा लिया। उसे पता था कि दीपा को पिछले तीन वर्ष से एक भी नई साड़ी नहीं मिली थी। रमेश के पास भी बस तीन कमीज़े थी जो अब टांके लग-लग कर जर्जर हो चली थी। दीपा ने उपहार में मिले उन दो सौ रुपयों में अपना प्यार मिला कर उन्हें अमूल्य कर दिया था। दुनिया का कोई भी कपड़ा आज दीपा की बनाई इस सूती स्लेटी कमीज़ का मुकाबला नहीं कर सकता था। प्रेम की भावना बहुत महान होती है और अगर उसमें त्याग की भावना मिल जाये तो वह ईश्वर हो जाती है। इस क्षण रमेश को लग रहा था कि उसकी बाहों में दीपा के रूप में स्वयं ईश्वर ही हैं। वह उस भावना के समक्ष नत-मस्तक हो जाना चाहता था। दीपा के त्यागपूर्ण प्रेम की विशालता के सामने वह अपने को बहुत सूक्ष्म अनुभव कर रहा था। लेकिन इस सूक्ष्मता ने उसे इतनी प्रसन्नता दी कि उसकी आंखे छलछला उठी...
अगले दिन रमेश वही कमीज़ पहन कर फ़ैक्ट्री की ओर जा रहा था। उसे लग रहा था कि जैसे इस कमीज़ से छन कर दीपा की हथेलियों की कोमलता और गर्माहट उसके शरीर तक पँहुच रही है। कमीज़ दीपा के प्यार से महक रही थी... और रमेश के चेहरे पर दीपा के प्यार की दमक थी।
ऊपर की शेल्फ़ पर रखे टिन के एक छोटे-से डिब्बे को दीपा ने उतारा और उसमें से बहुत संभालकर दो सौ रुपये निकाले। डिब्बे में बस इतने ही रुपये थे। ऐसा डिब्बा हर विवाहिता स्त्री के पास होता है जिसमें वह घर की आमदनी से बचाकर कुछ पैसे इकठ्ठे करती है ताकि यह पैसे मुश्किल पड़ने पर उपयोग किये जा सकें। पुरुष में यह हुनर नहीं होता और इसीलिये अक्सर कहा जाता है कि घर की बरकत स्त्री के हाथ में ही होती है।
दीपा को यह रुपये रमेश ने दो महीने पहले करवाचौथ पर उपहार में दिये थे। वह दीपा को साथ ले जाकर इन रुपयों से दीपा के लिये उसकी पसंद की साड़ी खरीदना चाहता था। लेकिन दीपा ने रुपये लेकर कहा कि अभी उसके पास दो साड़ियां हैं और वह ज़रूरत पड़ने पर इन रुपयो से कुछ महीने बाद एक और साड़ी खरीद लेगी।
रमेश पास की एक फ़ैक्ट्री में मैकेनिक का काम करता है। पगार के नाम पर बस इतने ही पैसे मिलते हैं कि घर का खर्च बड़ी मुश्किल से चल पाता है। साइकिल ना होने के कारण रमेश फ़ैक्ट्री आने-जाने के लिये रोज़ तीन किलोमीटर चलता है पर अपने लिये साइकिल नहीं खरीद पाता। फिर भी दो-दो चार-चार रुपये करके वह भी अपने पास थोड़े पैसे जमा करता रहता है ताकि दीपा के लिये कभी-कभार कोई उपहार खरीद सके। ये दो सौ रुपये इसी तंग हाथ से पैसे खर्च करने की आदत का नतीजा थे। वरना दो सौ रुपये की जमापूंजी इस दम्पत्ति के लिये एक सुखद सपने जैसी बात ही है।
दीपा भी इस तंगहाली में जीवन की गाड़ी को आगे बढा़ने में रमेश की मदद करती है। घर में हाथ से चलाई जाने वाली एक सिलाई मशीन है। मोहल्ले के लोग कमीज़, ब्लाउज़, बच्चों की निक्कर जैसे कपड़े दीपा से ही सिलवा लेते थे। लेकिन अब ऐसा काम बस कभी-कभार ही मिल पाता है। लोग अब ज़्यादा पैसा देकर दुकान वाले दर्ज़ियों से फ़ैन्सी स्टाइल के कपड़े बनवाना अधिक पसंद करते हैं। हमारा मध्यम-वर्ग अब बदल रहा है। कभी-कभार मिले सिलाई के ऐसे कामों से दीपा को जो पैसा मिलता है उसे वह एक गुल्लक में इकठ्ठा करती रहती है और उसने प्रण किया है कि इसका उपयोग बस किसी आपात स्थिति में ही करेगी।
रमेश आज सुबह जल्दी ही फ़ैक्ट्री चला गया। आजकल फ़ैक्ट्री में काम कुछ ज़्यादा है इसलिये ओवरटाइम करने का अवसर मिल रहा है और रमेश खुश है कि कुछ अतिरिक्त पैसे इस महीने मिल जाएगें। उधर दो सौ रुपये हाथ में लिये दीपा भी बहुत खुश है। उसने घर का काम जल्दी-जल्दी निपटाया था। एक निक्कर सीलनी थी -वह भी फ़टाफ़ट सील कर पड़ोसन को दे आयी थी। उसे इस काम के 15 रुपये मिले और उसने ये रुपये बाकयदा गुल्लक में डाल दिये। फिर दीपा जल्दी-जल्दी नहा-धोकर तैयार हुई। सुबह के दस बज चुके थे और आज उसे एक बहुत ज़रूरी काम करना था।
साढे़-दस बजे दीपा पास की मार्केट में एक कपड़े वाले की दुकान पर थी और दुकानदार उसे सूती कपड़ों के थान खोल-खोलकर दिखा रहा था। दीपा की नज़रें ऊपर की अलमारियों में लगे महंगे कपडों पर थी और उसे एक हल्के नीले रंग का कपड़ा बहुत भा रहा था। लेकिन दुकानदार ने उसका भाव बहुत अधिक बताया। दीपा इतने पैसे नहीं दे सकती थी -उसके पास तो केवल दो सौ रुपये थे। आखिरकार बड़े अच्छे-से जांच-परख कर दीपा ने एक स्लेटी रंग का कपड़ा खरीद लिया और उसके लिये 170 रुपये चुका दिये। कपड़ा कोई बहुत अच्छा नहीं था लेकिन उसके पास बस इतने ही पैसे थे। कपड़ा खरीद कर दीपा बहुत खुश थी। फिर वह एक और दुकान पर गयी जहाँ से उसने उसी स्लेटी रंग का धागा और कुछ मैचिंग बटन खरीदे।
बारह बजे तक दीपा सब सामान लेकर घर आ गयी थी और आते ही उसने कपड़े की कटाई शुरु कर दी। लगातार काम करते हुए उसने दोपहर का खाना भी नहीं खाया। उसे यह काम शाम से पहले ही पूरा करना था। शाम पाँच बजे तक स्लेटी रंग का कपड़ा एक कमीज़ की शक्ल ले चुका था। अगले मोहल्ले में इस्त्री करने वाले का ठीया था। दीपा दौड़ी-दौड़ी वहाँ गयी और कमीज़ को दो रुपये दे कर इस्त्री करवा लाई। इस्त्री जैसी चीज़ों पर खर्च करने के लिये इस युगल के पास पैसे नहीं थे। लेकिन यह नई सिली कमीज़ ख़ास है। इस पर अब के बाद शायद कभी इस्त्री नहीं होगी लेकिन आज तो दीपा इसे जितना अच्छा हो सके उतना अच्छा बना देना चाहती थी। दो सौ रुपये के अंदर दीपा ने शाम छह बजे तक कमीज़ तैयार कर दी थी। आज उसके पांवों में एक थिरकन-सी है। दीपा बहुत खुश है। शाम के खाने के लिये दाल पकाते हुए जाने क्या सोच-सोच कर मुस्कुरा रही है, गुनगुना रही है।
सवा-सात बजे के करीब रमेश थका-हारा घर पँहुचा। वह सुबह छह बजे ही फ़ैक्ट्री के लिये घर से निकल गया था। घर आते ही वह एक पटरी लेकर स्टोव के पास बैठ गया। दीपा ने स्टोव पर चाय का पानी चढ़ा दिया था और वहीं बैठी थी।
"दीपा, आज तो फ़ैक्ट्री में बस पूछो मत कितना काम था। शरीर टूट रहा है। पर अच्छा है, कुछ अतिरिक्त पैसे मिल जाएंगे इस महीने। फिर घर के दरवाज़े को ठीक करवा लेंगे। अब तो बस नाम का ही दरवाज़ा रह गया है -जाने कब गिर जाये। अच्छा तुम्हारा दिन कैसा रहा?", रमेश ने एक चम्मच से स्टोव पर चढी चाय को हिलाते हुए कहा।
"दिन बहुत अच्छा रहा। लेकिन मुझे तुम्हारा इतनी अधिक मेहनत करना अच्छा नहीं लगता। ये ओवरटाइम करना कोई ज़रूरी तो नहीं"
"ज़रूरी तो नहीं है, लेकिन दीपा मेहनत तो करनी ही पड़ती है। तुम भी तो कितनी मेहनत करती हो। मैं तो कहता हूँ कि तुम ये सिलाई के काम मत लिया करो। सारा दिन घर संभालती हो वो क्या कम है"
"सिलाई का काम अब मिलता ही कहाँ है, महीने में मुश्किल से एक-दो कपड़े सीलने के लिये मिलते हैं"
उनके इसी तरह बातें करते-करते चाय तैयार हो गयी। दीपा ने स्टील के दो गिलासों में थोड़ी-थोड़ी चाय डाली और एक गिलास रमेश को दे दिया। वे वहीं स्टोव के पास बैठे हुए बातें करते-करते चाय पीने लगे। रोज़ शाम को दीपा के साथ बैठ कर चाय पीने के इन कुछ मिनटों में कुछ ऐसा असर था कि रोज़ ही रमेश की सारे दिन की थकान इन्हीं पलों में छू-मंतर हो जाती थी। दीपा की आंखों में छांक कर उसे असीम सुकून मिलता था।
रमेश आराम से बातें करते हुए धीरे-धीरे चाय की चुस्किया ले रहा था। दीपा ने अपनी चाय खत्म करके गिलास बर्तन मांजने की जगह पर रख दिया। फिर वह उठ कर अंदर के कमरे में गयी और आज उसने जो कमीज़ सीली थी उसे ले आई। वापस रमेश के पास बैठते हुए उसने वह कमीज़ पटरी पर बैठे रमेश की गोद में रख दी।
"ये कमीज़ तुम्हारे लिये है", दीपा ने कहा
"मेरे लिये? लेकिन..."
"अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। मैं खरीद कर नहीं लाई हूँ... मैनें खुद सीली है।", दीपा ने मुस्कुराते हुए कहा
"ओह दीपा!...", रमेश ने चाय का गिलास एक ओर रख कर कहा और दीपा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उसे अपने कांधे पर टिका लिया। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे, बस वह दीपा के बालों को प्यार से सहला रहा था।
"लेकिन तुम्हारे पास कपड़ा खरीदने के पैसे कहाँ से आये?", कुछ पल बाद रमेश ने पूछा
"ये सब छोड़ो... पहले ये बताओ कि कमीज़ कैसी लगी"
"तुम्हारा उपहार मुझे कैसा लगेगा?... कुछ कहने को शब्द नहीं मिल रहे हैं दीपा। तुम्हें मेरा कितना ख्याल है और मैं तुम्हारे लिये कुछ नहीं..."
दीपा ने रमेश के होठों पर अपनी उंगली रख दी थी।
"तुम मुझे मिले हो क्या इससे अधिक खुशी और सौभाग्य की बात मेरे लिये कुछ और सकती है?", दीपा ने पूछा
"लेकिन तुमने इस कमीज़ के लिये अपनी गुल्लक से पैसे क्यों...", कहते हुए रमेश रुक जाता है और फिर उसके चेहरे पर अविश्वास और गहन प्रेम के मिले-जुले से भाव उभर आते हैं। उसने दीपा के चेहरे को अपने दोनो हाथों में लेते हुए कहा
"कहीं तुमने वो दो सौ रुपये..."
अब तक रमेश की आंखें भर आयीं थी। उसने दीपा को कस कर गले से लगा लिया। उसे पता था कि दीपा को पिछले तीन वर्ष से एक भी नई साड़ी नहीं मिली थी। रमेश के पास भी बस तीन कमीज़े थी जो अब टांके लग-लग कर जर्जर हो चली थी। दीपा ने उपहार में मिले उन दो सौ रुपयों में अपना प्यार मिला कर उन्हें अमूल्य कर दिया था। दुनिया का कोई भी कपड़ा आज दीपा की बनाई इस सूती स्लेटी कमीज़ का मुकाबला नहीं कर सकता था। प्रेम की भावना बहुत महान होती है और अगर उसमें त्याग की भावना मिल जाये तो वह ईश्वर हो जाती है। इस क्षण रमेश को लग रहा था कि उसकी बाहों में दीपा के रूप में स्वयं ईश्वर ही हैं। वह उस भावना के समक्ष नत-मस्तक हो जाना चाहता था। दीपा के त्यागपूर्ण प्रेम की विशालता के सामने वह अपने को बहुत सूक्ष्म अनुभव कर रहा था। लेकिन इस सूक्ष्मता ने उसे इतनी प्रसन्नता दी कि उसकी आंखे छलछला उठी...
अगले दिन रमेश वही कमीज़ पहन कर फ़ैक्ट्री की ओर जा रहा था। उसे लग रहा था कि जैसे इस कमीज़ से छन कर दीपा की हथेलियों की कोमलता और गर्माहट उसके शरीर तक पँहुच रही है। कमीज़ दीपा के प्यार से महक रही थी... और रमेश के चेहरे पर दीपा के प्यार की दमक थी।
Labels: मेरी कहानियाँ
Subscribe to:
Posts (Atom)