उपकार

उपकार मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्मों में से एक है। क्यों भला?... इसके मैं कोई 25-30 कारण तो गिना ही सकता हूँ लेकिन यहाँ सबका बयान नहीं करूंगा। इस फ़िल्म के पसंद आने का सबसे पहला कारण तो शायद यह है कि इसमें मनोज कुमार मुख्य पात्र की भूमिका में हैं। मनोज कुमार द्वारा निभाये गये चरित्रों से मैं कहीं ना कहीं जुड़ाव महसूस करता हूँ। और उन चरित्रों के मुकाबिले जो मैं नहीं हूँ वह मैं हमेशा से ही बनना चाहता हूँ। सो यह कहा जा सकता है कि मनोज कुमार द्वारा अभिनीत चरित्र मेरे बचपन से ही मेरे "हीरो" रहें हैं। उपकार मुझे पसंद है क्योंकि:

1) जैसा कि मैनें कहा, मनोज कुमार द्वारा मुख्य पात्र की भूमिका का निभाया जाना व्यक्तिगत-रूप से मेरे कारण नम्बर एक है। इस पात्र का नाम "भारत" है। क्या अब आपको पता चला कि ध्रुवभारत में "भारत" कहाँ से आया है? :-) भारत एक आदर्शवान, मेहनती, ईमानदार, पढ़ा-लिखा, नौजवान किसान है जो अपने जीवन के कर्तव्य को समझता है। वह पैसे के लालच में खेती-बाड़ी छोड़कर शहर नहीं जाता क्योंकि उसे इस बात का अहसास है कि यदि हर किसान शहर चला जाएगा तो फिर अनाज की पैदावार नहीं हो सकेगी। भारत के चरित्र में मानवता है, भावनाएँ हैं और प्यार है... और शायद एक अच्छा इंसान होने के लिये इतना काफ़ी है।

2) यह एक मसाला फ़िल्म नहीं है बल्कि काफ़ी अर्थपूर्ण फ़िल्म है। साधारण भाषा में सरल और रोचक संवादों के ज़रिये बहुत से सामाजिक संदेश उस जनता तक पँहुचाने की कोशिश की गयी है जो इस फ़िल्म को देखने सिनेमा तक गई। परिवार-नियोजन का महत्व, "जय जवान जय किसान" के नारे का महत्व, किसानों को कालाबाज़ारी से बचने की सलाह इत्यादि कितने ही संदेश यह फ़िल्म जनता तक पहुँचाती है। आजकल अर्थपूर्ण और संदेशवाहक फ़िल्में तो लगता है बननी ही बंद हो गयी हैं।

3) यह एक सीधी-सादी सरल फ़िल्म है। एक साधारण-से गांव के साधारण-से जीवन पर बनी एक कहानी। मुझे ऐसी फ़िल्मे अच्छी लगती हैं जिनमें शहरी चमक-दमक की जगह हमारे गांवों की मिट्टी की खुशबू और सरलता हो। यदि कोई इस फ़िल्म के हल्के-फुल्केपन में छुपी गहरी दार्शनिकता को समझ सके तो बढ़िया लेकिन अधिकतर लोग इसे melodramatic और intellectually-shallow फ़िल्म ही कहेंगे।

4) लोगों ने आजकल आदर्श रखना और निभाना दोनो ही छोड़ दिये हैं। लेकिन यह कहानी दर्शाती है कि चाहे खरगोश तेज़ी से प्रगति करता दिखाई दे लेकिन कछुए की निरन्तरता का आदर्श अंतत: उसे विजय दिला ही देता है। Nice guys don't finish last.

5) इस फ़िल्म का गीत-संगीत बहुत ही मधुर और आत्मा को छू लेने वाला है। जहाँ एक ओर "क़स्में वादे प्यार वफ़ा सब" जैसा दर्द-भरा और दार्शनिक गीत है तो वहीं "आई झूम के बसंत" जैसा गीत भी है जिस पर मन थिरकने लगता है। "मेरे देश की धरती" तो देशभक्ति के गीतों में हमेशा अग्रणी रहा है। "दीवानों से ये मत पूछो" और "हर ख़ुशी हो वहाँ" दुख और असहाय होने के भावों को बड़ी ही शिद्दत से प्रस्तुत करते हैं।

6) गांव के जीवन की सरलता में जो हास-परिहास और अपनापन घुला होता है उसको भी यह फ़िल्म बखूबी उभारती है। सोम-मंगल, उनके बापू, प्यारी, लखपती और टुनटुन द्वारा निभाये गये किरदार पूरी फ़िल्म को जीवंत बनाये रखते हैं और उसे कहीं भी उबाऊ नहीं होने देते।

7) इस फ़िल्म का अंत भी मुझे बहुत पसंद है। इसका अंत ख़ुशनुमा है। अधिकांश ख़ुशनुमा अंत वाली फ़िल्मों में अगर किसी कारण से हीरो अपाहिज हो जाता है तो फ़िल्म के ख़त्म होते-होते हीरो पूरी तरह ठीक हो जाता है। और फ़िल्म ज़िन्दगी को परफ़ेक्ट दिखाते हुए समाप्त होती है। इस फ़िल्म में भारत के दोनो हाथ हमेशा के लिये कट जाते हैं लेकिन फ़िल्म यह दिखाते हुए समाप्त होती है कि कविता (फ़िल्म की नायिका: आशा पारेख) ने इसके बावज़ूद भारत का साथ नहीं छोड़ा। भारत को अपने भाई पूरण (प्रेम चोपड़ा) के रूप में अपने दोनों हाथ मिल गये थे। पूरण ने अपनी सभी बुराईयों से तौबा करते हुए गांव वापस आना और अपने खेतों में हल चलाने का निर्णय कर लिया था। भारत को कविता का मिल जाना बहुत दिलचस्प है क्योंकि वास्तविक ज़िन्दगी में इससे मुख़्तलिफ़ बातें अधिक होती हैं। विकलांगता वास्तविक संसार में (कमोबेश) अभिशाप की तरह है और विकलांग व्यक्ति को व्यहवारिक तौर पर समाज से बाहर ही रखा जाता है। ऐसा होता है लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिये। फ़िल्म के ख़त्म होने पर सिनेमा-हॉल से बाहर जाने की जल्दी के चलते शायद अधिकतर लोग इस संदेश को ना तो देखते होंगे और ना ही इसे तरजीह देते होंगे। हालांकि मेरे विचार में यह भी इस फ़िल्म द्वारा दिया जाने वाला एक महत्वपूर्ण संदेश है।

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